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Thursday, May 18, 2017

तदाकार-तद्रूप

वस्तु का मतलब है - जो अपनी वास्तविकता को प्रकाशित करे। दो तरह की वस्तुएं हैं। इकाइयां या प्रकृति - जिनको हम गिन सकते हैं। और दूसरी व्यापक (Space or emptiness), जिसमें सभी इकाइयाँ डूबी-भीगी-घिरी हैं। इकाइयों की वास्तविकता चार आयामों में है - रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म। व्यापक (शून्य) की वास्तविकता तीन आयामों में है - पारगामियता, पारदर्शिता, और व्यापकता। व्यापक में संपृक्त प्रकृति ही अस्तित्व समग्र है। मध्यस्थ-दर्शन अस्तित्व के अध्ययन का प्रस्ताव है।

प्रस्ताव शब्दों में है। शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के मूल में अस्तित्व में वस्तु होता है। अध्ययन पूर्वक वस्तु का अर्थ व्यक्ति को बोध हो जाता है।

तत्-सान्निध्य - कोई भी वस्तु सान्निध्य (पास में होना) में ही दिखता है। शब्द से इंगित वस्तु का सान्निध्य हो जाना = तत्-सान्निध्य। जैसे - "यह खाली स्थली ही व्यापक वस्तु है", इस तरह अंगुली-न्यास हो जाना व्यापक का तत्-सान्निध्य है। "यह वस्तु पदार्थावस्था है", इस तरह अंगुली-न्यास हो जाना ही पदार्थावस्था से तत्-सान्निध्य है।

तदाकार - वस्तु पर ध्यान देने से वस्तु के आकार में जब हमारा ज्ञान होता है, तब हम वस्तु को समझे। यही तदाकार का मतलब है। तदाकार विधि से हम एक एक वस्तु को पहचानते हैं। अध्ययन विधि से जीवन एक-एक वस्तु में तदाकार होता है। प्रकृति की इकाइयों के साथ तदाकार होने का मतलब उनके रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म को समझना। रूप और गुण के साथ मनाकार होता है। स्व-भाव और धर्म का बोध और अनुभव होता है। व्यापक वस्तु का केवल अनुभव होता है।

तद्रूप - व्यापक और ज्ञान में भेद समाप्त हो जाना ही तद्रूप है। "व्यापक वस्तु ही जीवन में ज्ञान है" - यही अनुभव में आता है।

तदाकार विधि से अध्ययन के पूर्ण होने पर जीवन तद्रूपता में स्वयं को पाता है। तद्रूपता में ही प्रमाण है।

- (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

शब्द से अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचानने के लिए मन को लगाना पड़ता है। शब्द से इंगित अस्तित्व में वस्तु को स्वीकारना होता है, तब तदाकार होने की बात आती है। यदि शब्द से कोई वस्तु अस्तित्व में इंगित नहीं होती तो वह शब्द सार्थक नहीं है। वस्तु को स्वीकारते नहीं हैं तो तदाकार नहीं हो पाते। तदाकार होने पर तद्रूप होते ही हैं। उसके लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है - वह परमार्थ ही है।

तदाकार होना ही अध्ययन है। तद्रूप होना ही अनुभव है। तद्रूप होने पर प्रमाण होता ही है, उसके लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। प्रमाण तो व्यक्त होता ही है. जैसे – आप जो पूछते हो, उसका उत्तर मेरे पास रहता ही है। अनुभव-मूलक विधि से व्यक्त होने वाला अध्ययन कराएगा। अनुभव की रोशनी में ही अध्ययन करने वाले का विश्वास होता है। विश्वास के आधार पर ही वस्तु का बोध होता है। वस्तु का बोध होने पर तदाकार हुआ।

(अक्टूबर २०१०, बांदा)

अनुसन्धान पूर्वक जो मुझे समझ आया उसकी सूचना मैंने प्रस्तुत की है। इस सूचना से तदाकार-तद्रूप होना आप सभी के लिए अनुकूल होगा, यह मान कर मैंने इस प्रस्तुत किया है। तदाकार-तद्रूप होने का भाग (कल्पनाशीलता के रूप में ) आप ही के पास है।

"सूचना और उसमें तदाकार-तद्रूप होना" - यह सिद्धांत है। अभी तक चाहे आबाद, बर्बाद, अच्छा, बुरा जैसे भी मनुष्य जिया हो - इसी सिद्धांत पर चला है। मानव जाति का यही स्वरूप है। अभी भी जो मानव-जाति चल रही है, वह तदाकार-तद्रूप विधि से ही चल रही है।

व्यवस्था में हम सभी जीना चाहते हैं। (मध्यस्थ-दर्शन द्वारा प्रस्तावित) व्यवस्था के स्वरूप को मान करके ही (इसके अध्ययन की) शुरुआत होती है। समझ के लिए जो सूचना आवश्यक है - वह पहले से ही उपलब्ध रहता है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है, तदाकार-तद्रूप होने का भाग आपका है।

जब मैंने शुरू किया था - तब "व्यवस्था के स्वरूप" को समझाने की कोई सूचना नहीं थी। न तदाकार-तद्रूप होने का कोई रास्ता था। उस कष्ट से सभी न गुजरें, इसलिए व्यवस्था के स्वरूप की सूचना प्रस्तुत की है, और उसमें तदाकार-तद्रूप होने की अध्ययन-विधि प्रस्तावित की है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है। उसमें तदाकार-तद्रूप आपको होना है।

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

हर मनुष्य में तदाकार-तद्रूप होने का माद्दा है। कल्पनाशीलता के आधार पर तदाकार होते हैं। जिसके फलन में अनुभव मूलक विधि से तद्रूपता को प्रमाणित करते हैं।

प्राप्त का अनुभव और प्राप्य का सान्निध्य होता है। सत्ता (व्यापक) हमको "प्राप्त" है - उसका हमको अनुभव करना है। सभी मनुष्य-सम्बन्ध और मनुष्येत्तर सम्बन्ध हमको "प्राप्य" हैं - उनको हम तदाकार विधि से समझते हैं, और तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। जैसे - आपकी माता के साथ आपका सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को आप तदाकार विधि से समझते हैं, और समझने के बाद इस सम्बन्ध में न्याय प्रमाणित करना है या नहीं करना है - उसका आप निर्णय लेते हैं। समझने के बाद "न्याय प्रमाणित करना है" - यही निर्णय करना बनता है। फ़िर उस सम्बन्ध को आप तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। उसी तरह व्यवस्था संबंधों को भी तदाकार-तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। उसी तरह उपकार करने में भी तदाकार-तद्रूप विधि से प्रमाणित होते हैं। तदाकार-तद्रूप विधि के अलावा स्वयं को प्रमाणित करने का दूसरा कोई विधि हो ही नहीं सकता।

प्रश्न: तदाकार-तद्रूप नहीं हो पा रहे हैं - तो क्या करें?

उत्तर: उसके कारण को खोजना पड़ेगा। यदि अपनी कल्पनाशीलता को हम अमानवीय कृत्यों में जीव-चेतना विधि से प्रयोग करते हैं - तो उससे छूट नहीं पाते हैं। इस तरह सुविधा-संग्रह बलवती हो जाता है, समाधान-समृद्धि लक्ष्य की प्राथमिकता नीचे चली जाती है। यदि समाधान-समृद्धि लक्ष्य प्राथमिक बनता है, तो बाकी सब उसके नीचे चला जाता है। समाधान-समृद्धि में जब हम पारंगत हो जाते हैं, तो बाकी सब उसमें घुल जाता है। समस्याएं समाधान में विलय हो जाती हैं। उनका कोई अवशेष नहीं बचता। सारा अज्ञान ज्ञान में विलय हो जाता है।

ज्ञान के पक्ष में हम सभी हैं। ज्ञान क्या है - उसको स्वीकारने का माद्दा मनुष्य में है। जीव-चेतना को हम पकड़े रहे - और हमको ज्ञान हो जाए, यह हो नहीं सकता। मानव-चेतना में जीव-चेतना विलय होता है।

मनुष्य में जीवन-सहज विधि से तदाकार-तद्रूप होने की विधि है। जैसे अभी रूप, पद, धन, और बल के साथ तदाकार-तद्रूप है ही मनुष्य। सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप होना शेष रह गया। सच्चाई क्या है? - उसके लिए मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आपके अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान परम-सत्य है। सह-अस्तित्व में जीवन-ज्ञान परम-सत्य है। सह-अस्तित्व में ही जीवन है। सह-अस्तित्व से परे कुछ भी नहीं है। जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - ये तीनो के मिलने से ज्ञान हुआ।

सत्य हमको प्राप्त है। प्राप्त का हमको अनुभव करना है। अनुभव के लिए अध्ययन आवश्यक है।

तदाकार-तद्रूप होना ही अनुभव है। अनुभव उससे अलग नहीं है।

(दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

पढ़ना आ जाने या लिखना आ जाने मात्र से हम विद्वान नहीं हुए। समझ में आने पर या पारंगत होने पर ही अध्ययन हुआ। समझ में आने पर ही प्रमाणित होने की बात हुई. प्रमाणित होने का मतलब है – अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या में जी पाना। अध्ययन का मतलब है – शब्द के अर्थ में तदाकार-तद्रूप होना। आपके पास जो कल्पनाशीलता है, उसके साथ सह-अस्तित्व में तदाकार-तद्रूप हुआ जा सकता है। सह-अस्तित्व रहता ही है। सह-अस्तित्व न हो, ऐसा कोई क्षण नहीं है। कल्पनाशीलता न हो, ऐसा कोई मानव होता नहीं है। हर जीते हुए मानव में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। अब तदाकार-तद्रूप होने में आप कहाँ अटके हैं, उसको पहचानने की आवश्यकता है।

आवश्यकता महसूस होता है तो तदाकार होता ही है, तद्रूप होता ही है। जब अनुसंधान विधि से तदाकार-तद्रूप होता है, तो अध्ययन-विधि से क्यों नहीं होगा भाई? तदाकार-तद्रूप विधि से ही तो मैं भी इसको पाया हूँ। आप किताब से या शब्द से प्रकृति में तदाकार-तद्रूप होने तक जाओगे। किताब केवल सूचना है। किताब में लिखे शब्द से इंगित अर्थ के साथ तदाकार-तद्रूप होने पर समझ में आता है।

जब समाधान, नियम, नियंत्रण, स्व-धन, स्व-नारी-स्व-पुरुष, दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार एक “आवश्यकता” के रूप में स्वीकार होता है, तभी तदाकार-तद्रूप होता है, अनुभव होता है। अन्यथा नहीं होता है। किसी की आवश्यकता बने बिना उसे समझाने के लिए जो हम प्रयास करते हैं, वह उपदेश ही होता है, सूचना तक ही पहुँचता है। अध्ययन से ही हर व्यक्ति पारंगत होता है। अध्ययन के बिना कोई पारंगत होता नहीं है। अनुभव मूलक विधि से ही हम प्रमाणित होते हैं। अनुभव के बिना हम प्रमाणित होते नहीं हैं। यह बात यदि समझ आता है तो अनुभव की आवश्यकता है या नहीं, आप देख लो! अनुभव की आवश्यकता आ गयी है तो अनुभव हो कर रहेगा। आवश्यकता के आधार पर ही हर व्यक्ति काम करता है। आपकी आवश्यकता बनने का कार्यक्रम आपमें स्वयं में ही होता है। दूसरा कोई आपकी आवश्यकता बना ही नहीं सकता. यही मुख्य बात है। हर व्यक्ति की जिम्मेदारी की बात वहीं है। अनुभव हर व्यक्ति की आवश्यकता है, ऐसा मान कर ही इस प्रस्ताव को प्रस्तुत किया है। अनुभव को व्यक्ति ही प्रमाणित करेगा. जानवर तो करेगा नहीं, पेड़-पौधे तो करेंगे नहीं, पत्थर तो करेंगे नहीं...

(सितम्बर २०११, अमरकंटक)

आपने हमको बताया: आपने साधना पूर्वक "समाधि" की स्थिति प्राप्त की। समाधि में आपने कहा - आपको ज्ञान नहीं हुआ। आपने फ़िर "संयम" करने का अपना डिजाईन बनाया। जिसके फलन में आपने एक परमाणु से लेकर मनुष्य तक अस्तित्व में व्यवस्था के स्वरूप को देखा, उसका अध्ययन किया। उसका आपने हमको वर्णन भी किया। क्या हम जो अध्ययन कर रहे हैं, उससे हमको वही सब दिखेगा?

उत्तर: मैंने जो देखा वह आपके पास सूचना है। सूचना होना भर आपके लिए पर्याप्त नहीं है। इस सूचना से आपको तदाकार होने तक जाना है। तदाकार होने पर आपको वही दिखेगा जो मुझे दिखा। अनुभव की रोशनी में स्मरण पूर्वक प्रयत्न करने से हम तदाकार होने की स्थिति में पहुँचते हैं।

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता हर व्यक्ति में पूंजी के रूप में रखा है। यह हर व्यक्ति में अध्ययन करने का स्त्रोत है। इससे ज्यादा क्या guarantee दी जाए?

मैंने एक मिट्टी से लेकर मानव तक त्व-सहित व्यवस्था में रहने के स्वरूप का अध्ययन किया। व्यवस्था में होने का प्रवृत्ति एक परमाणु-अंश में भी है, इस बात का मैं अध्ययन किया हूँ। तदाकार विधि से आप अध्ययन करेंगे तो आप को भी वैसे ही दिखेगा। इसके लिए कोई यंत्र काम नहीं आएगा, कोई किताब काम नहीं आएगा - केवल जीवन ही काम आएगा। जीवन की प्यास अस्तित्व सहज वास्तविकताओं में तदाकार होने पर ही बुझती है।

तदाकार होने तक पहुंचाना ही अध्ययन की मूल चेष्टा है।

शब्द से अर्थ की ओर ध्यान देने से अर्थ के मूल में अस्तित्व में जो वस्तु के साथ तदाकार होना बनता ही है। उसके बाद तद्रूप होना (प्रमाणित होना) स्वाभाविक है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में साक्षात्कार होने तक पुरुषार्थ है। उसके बाद बोध और अनुभव अपने आप होता है। साक्षात्कार के बाद बुद्धि में बोध, और आत्मा में अनुभव तुंरत ही होता है। उसमें देर नहीं लगती।

तदाकार होने की स्थिति में जब हम पहुँचते हैं - तो हमको स्पष्ट होता है:

वस्तु, वस्तु का प्रयोजन, और वस्तु के साथ हमारा सम्बन्ध।

यह हर वस्तु के साथ होना। इसमें कोई भी कड़ी छुटा तो वह केवल शब्द ही सुना है। इस association में जो सबसे प्रबल प्रस्ताव है, वह यही है।

तदाकार होने की स्थिति केवल अध्ययन से आता है। तद्रूप विधि से प्रमाण आता है - यह अनुभव के बाद होता है।

तदाकार-तद्रूप होने की स्थिति ही "दृष्टा-पद" है।

इससे पहले (मध्यस्थ-दर्शन के प्रकटन से पहले) भक्ति में तदाकार-तद्रूप की बात की गयी है। जैसे - नारद भक्ति सूत्र में। और कहीं तदाकार-तद्रूप की बात नहीं है। उसमें ईष्ट-देवता के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात कही गयी है। उसके लिए नवधा-भक्ति सूत्र दिया गया। कौन उन नौ सीढियों को पार कर पाया - उसका कोई प्रमाण परम्परा में आया नहीं।

यहाँ (मध्यस्थ-दर्शन में) कह रहे हैं - अस्तित्व में सभी वस्तुएं (वास्तविकताएं) हैं। वस्तु को पहचानना ज्ञान है। उसमें तदाकार होना भक्ति है। ज्ञान के बिना भक्ति होता नहीं है।

प्रश्न: क्या तदाकार-तद्रूप होने के लिए कोई discipline की आवश्यकता है?

उत्तर: जीने के लिए कोई "उपदेश" की ज़रूरत नहीं है। अस्तित्व सहज नियमो को पहचानने पर तदाकार-तद्रूप स्वरूप में जीने की अर्हता बन ही जाता है। समझदारी के लिए सूचना है। सूचना के बाद अध्ययन है। अध्ययन पूर्वक हम अनुभव मूलक विधि से जीने के लिए तैयार हो जाते हैं।

प्रश्न: समझने के क्रम में क्या discipline का कोई रोल नहीं है?

उत्तर: सही जीने का कोई मॉडल हो, उस ढंग से हम जीना शुरू कर देते हैं, तो उस ढंग से विचारने की ओर भी जाते हैं। सही जीने का मॉडल वही व्यक्ति होगा जो सही को समझा होगा। सही जीने का मॉडल है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। मॉडल का हम अनुकरण-अनुसरण करते हैं, उसके साथ शब्द को सुनते हैं, शब्द से अर्थ की ओर जाते हैं। अनुकरण-अनुसरण करना अध्ययन के लिए प्रेरणा है। अर्थ की ओर जाने पर उसके मूल में अस्तित्व में वस्तु से तदाकार होने का प्रवृत्ति जीवन में रहता ही है। तदाकार होने पर साक्षात्कार हो गया, बोध हो गया, अनुभव हो गया। अनुभव होने पर हम तद्रूप हो गए। तद्रूपता प्रमाण है।

प्रश्न: प्रमाण रूप में जीने का क्या अर्थ है?

उत्तर: प्रमाण रूप में जीना = हर मोड़-मुद्दे पर समाधानित जीना। श्रम पूर्वक अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन कर लेना। शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति इन तीन के अलावा भौतिक वस्तुओं का और कहीं नियोजन ही नहीं है। मानवीयता विधि से भौतिक वस्तुओं के सदुपयोग की सीमा यही तक है।

 (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

एक व्यक्ति जो समाधान पाया उसे हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इसका आधार है - कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। जो मैं बोलता हूँ, उसके अर्थ को समझने का अधिकार आपके पास कल्पनाशीलता के रूप में है। अर्थ में तदाकार-तद्रूप हो गया - मतलब समाधान हुआ। अनुभव हो गया, तो प्रमाण हो गया।

समझे हुए, प्रमाणित व्यक्ति के समझाने से समझ में आता है। जैसे - आप और मैं यहाँ बैठे हैं। मैं जो समझाता हूँ, वह आप के समझ में आता है - क्योंकि मैं समझा हुआ हूँ, प्रमाणित हूँ और आप समझना चाहते हैं। कल्पनाशीलता आपके पास भी है, मेरे पास भी है।

संयमकाल में मैंने अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से ही अध्ययन किया था। मैंने सीधे प्रकृति से अध्ययन किया था, आप मुझ से अध्ययन कर रहे हो।

समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप थी। या मेरी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चुप थी। संयम-काल में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता क्रियाशील हुई, तभी तो मैं अध्ययन कर पाया। संयम-काल में मैं सच्चाई के प्रति तदाकार-तद्रूप हुआ। ऐसे तदाकार-तद्रूप होना "ध्यान" देना हुआ कि नहीं? संयम-काल में मैंने आँखे खोल कर ध्यान किया। ऐसे तदाकार-तद्रूप होने का अधिकार आपके पास भी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है। कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता हर व्यक्ति में नियति प्रदत्त विधि से है, या सहअस्तित्व विधि से है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सब में समान रूप से है - चाहे अपने को "ज्ञानी" कहें, "विज्ञानी" कहें, या "अज्ञानी" कहें। इसीलिये मैं कहता हूँ - इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए सबको समान रूप से परिश्रम करना होगा।

मनुष्य ने जीव-चेतना में जीते हुए जीवों से अच्छा जीने के अर्थ में अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया। इसमें मनुष्य सफल भी हुआ। इस तरह मनुष्य आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरश्रवण, और दूरदर्शन सम्बन्धी सभी वस्तुओं को प्राप्त करने में सफल भी हो गया। इन सब को करने में कल्पनाशीलता का तृप्तिबिंदु न होने से मनुष्य "भोग कार्य" में लग गया। चाहे पढ़े-लिखे हों, या अनपढ़ हों - सब भोगवाद में परस्त हैं।

समाधान पूर्वक जिस दिन से जीना शुरू करते हैं, उस दिन से "मानव चेतना" की शुरुआत है।  इसको "गुणात्मक परिवर्तन" या "चेतना विकास" नाम दिया।

कल्पनाशीलता हर व्यक्ति के पास है। अनुभव करने का आधार वही है। कल्पनाशीलता जीवन में है, शरीर में नहीं है। इसी लिए "जीवन जागृति" की बात की है। जीवन जागृति का बिंदु "अनुभव" है। इतने दिन मनुष्य-जाति जो कुछ भी करता रहा, पर यह नहीं किया। मनुष्य के पास पांच विभूतियाँ हैं - रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि। मनुष्य ने इनमें से चार - रूप, बल, पद, और धन - का प्रयोग अपनी कर्मस्वतंत्रता के रहते करके देख किया। "बुद्धि" का प्रयोग अभी तक नहीं किया। बुद्धि का प्रयोग कल्पनाशीलता की तदाकार-तद्रूप विधि को छोड़ कर होगा नहीं। समझदारी के साथ हमको तदाकार-तद्रूप होना है। अभी तक जीव-चेतना में अवैध को वैध मानते हुए सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ तदाकार-तद्रूप रहे। अब एक ही उपाय है - मानव-चेतना को पाया जाए, और उसमें तदाकार-तद्रूपता को पाया जाए।

प्रश्न: आपने जब अध्ययन किया तो आपके पास कोई पूर्व-स्मृतियाँ नहीं थी, सब कुछ clean slate था। जबकि हम जो अध्ययन कर रहे हैं तो हमारे साथ तो बहुत पूर्व-स्मृतियाँ हैं जो इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं, फिर हम आपके जैसे अध्ययन कर सकते हैं, अनुभव तक पहुँच सकते हैं - इस बात पर कैसे विश्वास करें?

उत्तर: आपके पास जो "जिज्ञासा" है - वह समाधि की clean slate से कहीं बड़ी चीज है। जिज्ञासा, समझने की गति, और जीने की निष्ठा - इन तीनो को जोड़ने से उपलब्धि तक पहुँच सकते हैं। जीने की निष्ठा इच्छा शक्ति की बात है। जीने की निष्ठा में कमी के मूल में आपके पूर्वाग्रह ही हैं।

(दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

प्रश्न:  व्यापक वस्तु में तदाकार होने के लिए क्या करें?

उत्तर-  व्यापक वस्तु की महिमा समझ में आने पर ही उसमें तदाकार होना बनता है.  "व्यापक" शब्द सुनने मात्र से तदाकार नहीं होगा।  उसका महिमा ज्ञान होना आवश्यक है.  क्या महिमा?  साम्य ऊर्जा की व्यापकता, पारगामीयिता और पारदर्शीयता स्पष्ट होना।

स्वयं में ज्ञान और ऊर्जा संपन्नता के आधार पर व्यापक वस्तु का पारगामी होना समझ में आता है.  हर वस्तु ऊर्जा सम्पन्न है, इसलिए ऊर्जा का पारगामी होना समझ में आता है.   इसको अपने में ही ज्ञान करना पड़ता है.  विवेचना करना पड़ेगा, उसको अनुभव करना पड़ेगा।  यहीं से अनुभव शुरू होता है.

"सत्ता में सम्पृक्तता" के आधार को स्वीकारने के बाद अभी जो शरीर को जीवन मान कर जीते थे, उससे हम एक कदम आगे हो गए.  उसके बाद आगे अध्ययन  क्रम में ये चारों भाग आ गए - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति।

इस तरह इन चारों अवस्थाओं के संबंध में हम निर्भ्रम हो गए. जागृति के बारे में निर्भ्रम हो गए.  इसका नाम है ज्ञान संपन्नता। ऐसे ज्ञान संपन्न होने के बाद हम साम्य ऊर्जा (व्यापक वस्तु) में तदाकार होते हैं.

पहले ऊर्जा में तदाकार होगा, ऐसा होगा नहीं है.  विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति का समझ अध्ययन से आता है.  आकर के इसमें हम यदि जागृति को प्रमाणित करना शुरू किए तो "ज्ञान व्यापक है" ये पता लगता है.  तब मानव को अनुभव होता है कि ऊर्जा में, ज्ञान में हम तदाकार हैं ही!  मानव को साम्य ऊर्जा ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है.  साम्य ऊर्जा में ही सब कुछ है, ज्ञान में ही सब कुछ है.  मानव को स्पष्ट होता है कि उसका सब कुछ ज्ञान के अंतर्गत है.

अध्ययन पूर्वक तीनों अवस्थाओं का दृष्टा होना, और जागृति में तद्रूप होना।

ज्ञान में तदाकार हो गए तो फलस्वरूप ज्ञान के बारे में सोचा, ज्ञान व्यापक है और ऊर्जा भी व्यापक है.  इसलिए ऊर्जा ही ज्ञान रूप में प्राप्त है.  "ज्ञान व्यापक है" ये समझ में आया. "ऊर्जा व्यापक है" ये समझ में आया.
ये दोनों एक ही वस्तु है या अलग अलग है, इसका विवेचना होती है.  विवेचना होकर निष्कर्ष निकलता है - व्यापक वस्तु ही मानव को ज्ञान रूप में प्राप्त है.
- दिसंबर २००८, अमरकंटक

सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने के बाद ही हम उसको अपनाते हैं। अभी तक जितना आप अपनाए हो, उसी विधि से अपनाए हो। आगे जो अपनाओगे, उसी विधि से अपनाओगे। अध्ययन विधि में पहले सूचना है। सूचना तक पठन है। सूचना से इंगित अर्थ में जाते हैं, तो अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना होता है। तदाकार होने के बाद कोई प्रश्न ही नहीं है।

कल्पनाशीलता द्वारा सच्चाई रुपी अर्थ को स्वीकार लेना ही "तदाकार होना" है। अर्थ को समझते हैं, तो शरीर गौण हो गया - जीवन प्राथमिक हो गया। तदाकार होने के बाद ही बोध होता है। अस्तित्व चार अवस्थाओं के स्वरूप में है। इनके साथ अपने "सही से जीने" के स्वरूप को स्वीकारना ही बोध है। बोध होने के बाद ही अनुभव होता है। अनुभव सच्चाई का प्रमाण होता है। अनुभव पूर्वक यह निश्चयन होता है कि - "पूरी बात को मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। इसको अनुभव-मूलक बोध कहा। जिसके फलस्वरूप चित्त में चिंतन होता है। जिसका फिर चित्रण होता है। चित्रण पुनः वृत्ति और मन द्वारा शरीर के साथ जुड़ता है - संबंधों में जागृति को प्रमाणित करने के लिए। इस तरह - अनुभव जीवन में, प्रमाण मनुष्य में।

अध्ययन है - शब्द (सूचना) के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु को पहचानना। अध्ययन भाषा से शुरू होता है, अर्थ में अंत होता है।

पहले सूचना के लिए जिज्ञासा है। फिर सूचना से इंगित अर्थ के लिए जिज्ञासा है। फिर अर्थ में तदाकार होने के लिए जिज्ञासा है। उसके बाद प्रमाणित होने के लिए जिज्ञासा है। जिज्ञासा के ये चार स्तर हैं।

समझाने वाला समझा-हुआ होना और समझाने के तरीके से संपन्न होना ; और समझने वाले के पास सुनने से लेकर साक्षात्कार करने तक की जिज्ञासा होना - इन दो बातों की आवश्यकता है। इन दोनों के बिना संवाद सफल नहीं होता।

आपका "लक्ष्य" क्या है, और आपके पास उस लक्ष्य को पाने के लिए "पूंजी" क्या है - ये दोनों पहले स्पष्ट होना आवश्यक है।

यदि आपको स्वीकार होता है कि आपका लक्ष्य "सार्वभौम व्यवस्था" है और उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके पास "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता" पूंजी रूप में है - तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए यह पूरा प्रस्ताव ठीक है या नहीं, उसको शोध करना! आपको अपने लक्ष्य के लिए इस प्रस्ताव की आवश्यकता है या नहीं - यह तय करना। फिर उस लक्ष्य के अर्थ में जब आप जीने लगते हैं, तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती जाती हैं।

सार्वभौम-व्यवस्था के लिए जीने का हम रास्ता बनाते हैं, तो सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सोचने का रास्ता बन जाता है।

-  (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

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