जीवन में "शुभ का चाहत" बना हुआ है। जीवन सहज रूप में शुभ को ही चाहता है।
प्रश्न: जीवन सहज रूप में "शुभ" को ही क्यों चाहता है?
उत्तर: क्योंकि जीवन की गम्य-स्थली "शुभ" है।
प्रश्न: जीवन को (या मुझे) पता कैसे चला कि उसका गम्य-स्थली "शुभ" है?
उत्तर: जीवन को पता नहीं है, पर ऐसा है! अभी जो लोग कहते हैं, हम "सुखी" हैं या "दुखी" हैं - उनको पता ही नहीं है - सुख क्या है? अभी तक केवल संवेदनाओं का ज्ञान है। संवेदनाएं जब तक राजी रहती हैं, तब तक अपने को "सुखी" मान लेते हैं। संवेदनाएं जब राजी नहीं रहती तो अपने को "दुखी" मान लेते हैं। जंगल-युग में क्रूर जीव-जानवरों से दुखी होने की बात होती थी। आज अमानवीयता से दुखी होने की बात है, जिसको हम "शोषण" कह रहे हैं। सुखी होने की अपेक्षा में ही मनुष्य आज तक दुखी होता आया है।
प्रश्न: सुखी होने की अपेक्षा मनुष्य में आ कैसे गयी?
उत्तर: संवेदनाओं की सीमा में जीने से मनुष्य को सुख भासता है (या सुख जैसा लगता है) - पर वह सुख होता नहीं है। सुख के इस भास् के टूटने से मनुष्य दुखी होता है। "दुःख नहीं चाहिए" - यह मनुष्य को पता चलता है। पर "सुख" क्या है - यह पता नहीं चलता। "दुःख नहीं चाहिए" - इस बात का ज्ञान मनुष्य को जंगल-युग से ही है। ऐसी स्थिति जिसमें "दुःख नहीं हो" - उसको मनुष्य ने "सुख" नाम दे दिया। इस तरह "सुख चाहिए" - यह बात मनुष्य के पकड़ में आयी। "सुख" नाम पकड़ में आया। लेकिन "सुखी" कैसे होना है - यह मनुष्य के पकड़ में नहीं आया। मनुष्य की यह स्थिति जंगल युग से आज के अत्याधुनिक-युग तक बनी हुई है। अत्याधुनिक-युग में मनुष्य ने बहुत शेखी मारा - ऐसा कर देंगे, तैसा कर देंगे! पर उसका सुखी होना भर बना नहीं!
अब क्या किया जाए? यही पुनर्विचार की स्थिति है।
उसी क्रम में यह अनुसंधान हुआ है। अनुसंधान पूर्वक पता चला - मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव का सुखी होना बनता है।
अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीवों से अच्छा जीने का कोशिश किया है - यह भी है। पर इसी क्रम में धरती बीमार हो गया।
(दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
मनुष्य जब धरती पर सबसे पहले प्रकट हुआ तो जीव जानवरों की तरह ही जिया। जीव-चेतना में मनुष्य जिया - पर जीवों से अच्छा जीना चाहा। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - इसी लिए वह जीवों से अच्छा जीना चाहा। यह "अच्छा चाहना" मनुष्य में गुणात्मक परिवर्तन की सहज-अपेक्षा का ही प्रदर्शन है।
मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता के चलते आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन की सभी वस्तुओं का इन्तेज़ाम कर लिया। "अच्छा चाहने" के अर्थ में वस्तुओं का तो इन्तेजाम कर लिया पर अपनी आवश्यकता का निर्णय नहीं होने से वस्तुओं के पीछे पागलपन बढ़ता गया। भौतिकवाद व्यवहारिक नहीं हुआ।
कल्पनाशीलता को दूसरे ओर मनुष्य ने "रहस्य" के लिए भी invest किया। "अच्छा चाहने" के लिए ही यह किया, इसमें दो राय नहीं है। रहस्यवाद व्यवहारिक नहीं हुआ।
इस तरह दोनों तरह से मनुष्य को स्थिरता -निश्चयता की जगह नहीं मिली। इसलिए मनुष्य आवारा हो गया। आवारा हुआ तो मनमानी करता ही है। मनमानी करने के परिणाम हमारे सामने आ ही गए हैं। धरती बीमार होने से मनुष्य की गलती उजागर हो गयी। अब विकल्प की आवश्यकता बन गयी।
मानव इतिहास को मैं ऐसे पहचानता हूँ। अभी मानव-इतिहास को ऐसे कोई पहचानता नहीं है। घटना-क्रम को इतिहास बताते हैं। यह घटना हुई, फ़िर दूसरी घटना हुई - इसको अभी इतिहास बताते हैं। मानव में गुणात्मक-परिवर्तन की सहज-अपेक्षा यदि नहीं होती तो मानव-चेतना के इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने की जगह ही नहीं होती। धरती का बीमार होना भी मानव-चेतना में संक्रमित होने की आवश्यकता को ही इंगित करता है। अपेक्षा और आवश्यकता के साथ अब सम्भावना का भी उदय हो गया है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान पूर्वक मानव जाति की जागृति की सम्भावना उदय हो चुकी है। यह एक ऐतिहासिक घटना है।
(अप्रैल २००८, अमरकंटक)
जीवचेतना में जीते हुए मनुष्य में भी न्याय, समाधान, और सत्य (व्यवस्था) की सहज-अपेक्षा है।
अध्ययन क्रम में : -
न्याय सहज अपेक्षा के आधार पर "मूल्य" स्पष्ट हो जाता है।
समाधान सहज अपेक्षा के आधार पर "चरित्र" स्पष्ट हो जाता है।
सत्य (व्यवस्था) सहज अपेक्षा के आधार पर "नैतिकता" स्पष्ट हो जाता है।
मानव में "चाहत" ग़लत नहीं है। "चाहत" के अनुरूप "घटना" घटित नहीं हुआ। उसके विपरीत अपराधिक घटनाएं घटता चला गया। अपराधिक घटनाओं के फलन में ही धरती बीमार हो गयी। इसलिए "पुनर्विचार" की आवश्यकता आ गयी। धरती पर आदमी को बने रहना है तो पुनर्विचार करेगा, नहीं रहना है तो नहीं करेगा।
मानव परम्परा जो ईश्वरवादी और भौतिकवादी तरीकों से सोचा है, उनका इस ओर ध्यान ही नहीं गया। या अनुसंधान नहीं किया। इसी को यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्तावित किया जा रहा है।
(अगस्त २००६, अमरकंटक)
भ्रमित-मनुष्य में भी वृत्ति में न्याय, धर्म, और सत्य की "सहज-अपेक्षा" रहती है।
न्याय, धर्म, और सत्य का मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव शब्द के रूप में विचार में पहुँचता है। इससे वृत्ति में जो पहले से "अपेक्षा" थी उसकी पुष्टि हुई।
सह-अस्तित्व के प्रस्ताव की सूचना का परिशीलन करने के लिए चित्त में गए। चित्त में परिशीलन करने से सह-अस्तित्व साक्षात्कार हुआ।
चित्त में सह-अस्तित्व साक्षात्कार होने पर तुंरत ही बुद्धि में न्याय, धर्म, और सत्य का बोध होता है।
बुद्धि में जब बोध होता है तो स्वतः आत्मा में अनुभव हो जाता है।
आत्मा में अनुभव होने पर बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध होता है। इससे अनुभव को प्रमाणित करने का संकल्प बनता है। अनुभव-प्रमाण बोध के आधार पर चिंतन हुआ। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक चित्रण हुआ। वृत्ति अनुभव-प्रमाण विधि से संतुष्ट हो गयी। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक विश्लेषण हुआ। इस विश्लेषण के अनुरूप मन में मूल्यों का आस्वादन हुआ - जिसके लिए आदि-काल से मनुष्य प्यासा रहा। मन तृप्त हुआ, फलस्वरूप अपनी तृप्ति को प्रमाणित करने के लिए चयन शुरू किया - जिसमें समाधान निहित हुआ, सत्य निहित हुआ, न्याय निहित हुआ। इस तरह न्याय, धर्म, और सत्य तीनो प्रमाणित होने लगे!
बुद्धि में अनुभव-मूलक संकल्प और मन में अनुभव-मूलक चयन - इन दोनों के योगफल में प्रमाण मानव-परम्परा में प्रवाहित होता है। अनुभव होने के बाद प्रमाणित होने का हमारा जो प्रवृत्ति बनता है, उसके अनुसार हमारा आचरण मानवीयता पूर्ण बनता है। मानवीयता पूर्ण आचरण बनता है, तो उसके आधार पर मानवीय संविधान बनता है। मानवीय संविधान बनता है तो मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है। मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है तो मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है। इस तरह अनुभव फैलता चला जाता है।
(अगस्त २००६, अमरकंटक)
प्रश्न: “सहज” शब्द से क्या आशय है?
उत्तर: सहज से आशय है – मानव को जिसे बनाना नहीं है. सभी व्यवस्था सहज है. नियम सहज है. जीवन सहज है. शरीर सहज है. क्या सहज है, यह समझे बिना मानव ने अपने को “बनाने वाला” मान कर ही तो सब कुछ को बर्बाद किया है. मानव ही सारी कृत्रिमता का आधार है, और कोई भी नहीं है. मानव सहजता का आधार अभी तक बना नहीं. मानव को सहज को पहचानने की आवश्यकता है. सहजता विधि से मानव के बने रहने की व्यवस्था है. कृत्रिमता विधि से कहीं न कहीं कुंठित होता है. सहज की ही निरंतरता होती है. अक्षुण्णता की अपेक्षा मानव सदा से ही रखे हुए है. उस अपेक्षा के अनुसार काम नहीं किया तो क्या वह झूठ नहीं हो गया?
(अप्रैल २००८, अमरकंटक)
कुल मिला कर - मनुष्य में जागृति की सहज-अपेक्षा पर मध्यस्थ-दर्शन का सारा तर्क जुड़ा हुआ है। जागृति की अपेक्षा मनुष्य में आदि-काल से है। "हर व्यक्ति समझदार हो सकता है।" - यहाँ से यह बात शुरू है। यही इस प्रस्तुति का आधार है।
(जनवरी २००७, अमरकंटक)
मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधियों से जितने भी कर्म करता आया, और आगे करने वाला है - उन सबके फलन में मनुष्य "सुखी" होना चाहता है, या मनः स्वस्थता प्रमाणित करना चाहता है।
कल्पनाशीलता में ही सुखी होने की आशा, अथवा अपेक्षा, अथवा इच्छा समाई है।
आशा, अपेक्षा, और इच्छा जीवन-सहज प्रक्रिया है। इसी के साथ जीवन में स्मृतियाँ प्रभावित रहती ही हैं। हर मानव में विगत से स्मृतियाँ, वर्तमान में प्रमाण, और भविष्य के लिए अपेक्षा होना स्पष्ट होता है। "सुख" प्रमाण स्वरूप में वर्तमान में ही होता है। वर्तमान में आशा, अपेक्षा, और इच्छा के तृप्त न होने के फलस्वरूप ही मनुष्य भूत और भविष्य में अपने स्मरण को दौडाए रहता है। भूत और भविष्य "सुख" का आधार न होने के फलस्वरूप मनुष्य "मनमानी" करता है।
अपराध-मुक्त मानव-परम्परा के लिए हर व्यक्ति समाधान-संपन्न होना, और हर परिवार समाधान-समृद्धि संपन्न होना और उपकार करना आवश्यक है। उसके लिए मनुष्य में "चेतना विकास" ही प्रधान मुद्दा है। मानव-चेतना में जीवन-सहज आशा, अपेक्षा, और इच्छा "वर्तमान" में ही तृप्त रहती हैं। "मनमानी" को रोकने के लिए फ़िर "भय", "प्रलोभन", और "आस्था" पर आधारित तंत्रों की आवश्यकता नहीं रहती।
(अप्रैल २००६, अमरकंटक)
"सुख-शान्ति पूर्वक जीना" - सामान्य व्यक्ति में यह सहज-अपेक्षा पायी जाती है। इस अपेक्षा के लिए स्मृति के साथ कल्पनाशीलता को जोड़ कर मानव-जाति सोचता आया, प्रयोग करता आया। इससे यह हमको पता चलता है - हर मानव सोचने वाला है, हर मानव में सोच-विचार की आवश्यकता बनी हुई है। साथ ही - सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीना" की स्थिति-गति को पहचानने की आवश्यकता बनी हुई है। मानव कल्पनाशील है, विचारशील है, और इस कल्पना और विचार का मुद्दा है - सुख-शान्ति पूर्वक जीना।
मानव के अध्ययन से पता चलता है - हर मानव समझने-समझाने वाला भी है। और शरीर द्वारा सोच-विचार को प्रस्तुत करता है। इस तरह से विचार मानव-परम्परा में "अनुकरणीय विधि से" पीढी से पीढी पहुँचता हुआ देखने को मिलता है। जो विचार नहीं पहुँच पाता है, उसके स्थान पर परिवर्तित रूप में और कोई चीज स्थापित हो जाती है।
(अप्रैल २००६ - अमरकंटक)
जीव चेतना में जीते हुए मानव में अपेक्षा 'मानव चेतना' की ही होती है. संवाद करते समय दूसरे व्यक्ति की सही को लेकर अपेक्षा को स्वीकारने में कहीं भी कंजूसी न करें। मानव के पास शुभ की ओर जाने का रास्ता चाहे संकीर्ण हो, पर सदा बना है. इसी की गवाही में हर मानव स्वयं में शुभ की अपेक्षा को होना बताता है.
अब हम यहाँ जीव चेतना से मानव चेतना में संक्रमित होने की बात कर रहे हैं. मानव चेतना का कोई भी बात जीव चेतना की किसी भी बात की वकालत नहीं करता - न जीव चेतना के संविधान की, न जीव चेतना की मानसिकता की, न जीव चेतना की शिक्षा की, न जीव चेतना की व्यवस्था की.
(जनवरी २००७, अमरकंटक)
सर्वप्रथम मानव ने संवेदनाओं के आधार पर ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया। इसके पहले शब्द होता है, स्पर्श होता है, गंध होता है, रस होता है, रूप होता है - यह उपयोग में था ही. जैसे - जीव-जानवर अपने आहार को पहचानने के लिए गंध का उपयोग करते हैं, उससे पहले पेड़ पौधों की जड़ों में अपने पोषक तत्वों को पहचानने के लिए गंध का उपयोग है. मानव ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए इनके ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया। क्यों? क्योंकि मानव में सुख की सहज अपेक्षा है. इसी बिंदु से मानव का अध्ययन शुरू होता है.
(अगस्त २००६, अमरकंटक)
भ्रमित-अवस्था में जीता हुआ आदमी गलतियां करने में विवश होता है पर गिरफ्त नहीं होता। क्योंकि सच्चाई के लिए खिड़की कहीं न कहीं हर व्यक्ति में खुली ही रहती है। सहीपन की अपेक्षा में ही हम गलती करते हैं। सहीपन की स्वयं में अपेक्षा ही अध्ययन का आधार है।
(जनवरी २००७, अमरकंटक)
मानव सहज-अपेक्षा स्वतन्त्र रहने की है। जीव-चेतना में "मनमानी विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है। मानव-चेतना में "समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है।
"मनमानी विधि" से सम्पूर्ण प्रकार के गलती, अपराध, अनाचार, दुराचार, अत्याचार होना देखा जाता है। इस विधि से अपराधों का प्रचार, अपराध करने के लिए अध्ययन, और अपराध करने के लिए अवसर पैदा करने वाला व्यक्ति अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है, ऐसा देश अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है। "मनमानी विधि" से भिन्न रूप में यदि देखना चाहते हैं, तो "मानव की मानसिकता" पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
मानव की मानसिकता पर ध्यान देने पर पता चलता है - हर मानव सर्वाधिक भागों में "सहीपन" को, "सार्थकता" को, "सत्यता" को, और "समाधान" को चाहता है। लेकिन परम्पराएं - धर्म-परम्परा, शिक्षा-परम्परा, व्यापार-परम्परा - सभी एक से एक घोर विपदा की ओर गतिशील हैं। व्यक्ति को प्रचलित-परम्परा से जो मिलता है, वह उसका अनुसरण-अनुकरण करने के लिए विवश होना पाया जाता है।
दो प्रकार की विचारधाराएं (आदर्शवादी और भौतिकवादी) जो मानव-परम्परा में प्रभावित हुई - उनसे फल-परिणाम में सुख-शान्ति की स्थली में पहुँचने के विपरीत अशांति और समस्याओं से घिर गए। स्वतंत्रता की अपेक्षा मानव में सहज है। इसी अपेक्षा-क्रम में मानव समझदारी पूर्वक हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचान पाता है, फल-स्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है।
संबंधों में सामरस्यता ही स्वतंत्रता का स्वरूप है।
(अप्रैल २००६, अमरकंटक)
प्रश्न: जीवन सहज रूप में "शुभ" को ही क्यों चाहता है?
उत्तर: क्योंकि जीवन की गम्य-स्थली "शुभ" है।
प्रश्न: जीवन को (या मुझे) पता कैसे चला कि उसका गम्य-स्थली "शुभ" है?
उत्तर: जीवन को पता नहीं है, पर ऐसा है! अभी जो लोग कहते हैं, हम "सुखी" हैं या "दुखी" हैं - उनको पता ही नहीं है - सुख क्या है? अभी तक केवल संवेदनाओं का ज्ञान है। संवेदनाएं जब तक राजी रहती हैं, तब तक अपने को "सुखी" मान लेते हैं। संवेदनाएं जब राजी नहीं रहती तो अपने को "दुखी" मान लेते हैं। जंगल-युग में क्रूर जीव-जानवरों से दुखी होने की बात होती थी। आज अमानवीयता से दुखी होने की बात है, जिसको हम "शोषण" कह रहे हैं। सुखी होने की अपेक्षा में ही मनुष्य आज तक दुखी होता आया है।
प्रश्न: सुखी होने की अपेक्षा मनुष्य में आ कैसे गयी?
उत्तर: संवेदनाओं की सीमा में जीने से मनुष्य को सुख भासता है (या सुख जैसा लगता है) - पर वह सुख होता नहीं है। सुख के इस भास् के टूटने से मनुष्य दुखी होता है। "दुःख नहीं चाहिए" - यह मनुष्य को पता चलता है। पर "सुख" क्या है - यह पता नहीं चलता। "दुःख नहीं चाहिए" - इस बात का ज्ञान मनुष्य को जंगल-युग से ही है। ऐसी स्थिति जिसमें "दुःख नहीं हो" - उसको मनुष्य ने "सुख" नाम दे दिया। इस तरह "सुख चाहिए" - यह बात मनुष्य के पकड़ में आयी। "सुख" नाम पकड़ में आया। लेकिन "सुखी" कैसे होना है - यह मनुष्य के पकड़ में नहीं आया। मनुष्य की यह स्थिति जंगल युग से आज के अत्याधुनिक-युग तक बनी हुई है। अत्याधुनिक-युग में मनुष्य ने बहुत शेखी मारा - ऐसा कर देंगे, तैसा कर देंगे! पर उसका सुखी होना भर बना नहीं!
अब क्या किया जाए? यही पुनर्विचार की स्थिति है।
उसी क्रम में यह अनुसंधान हुआ है। अनुसंधान पूर्वक पता चला - मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव का सुखी होना बनता है।
अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीवों से अच्छा जीने का कोशिश किया है - यह भी है। पर इसी क्रम में धरती बीमार हो गया।
(दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
मनुष्य जब धरती पर सबसे पहले प्रकट हुआ तो जीव जानवरों की तरह ही जिया। जीव-चेतना में मनुष्य जिया - पर जीवों से अच्छा जीना चाहा। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - इसी लिए वह जीवों से अच्छा जीना चाहा। यह "अच्छा चाहना" मनुष्य में गुणात्मक परिवर्तन की सहज-अपेक्षा का ही प्रदर्शन है।
मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता के चलते आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन की सभी वस्तुओं का इन्तेज़ाम कर लिया। "अच्छा चाहने" के अर्थ में वस्तुओं का तो इन्तेजाम कर लिया पर अपनी आवश्यकता का निर्णय नहीं होने से वस्तुओं के पीछे पागलपन बढ़ता गया। भौतिकवाद व्यवहारिक नहीं हुआ।
कल्पनाशीलता को दूसरे ओर मनुष्य ने "रहस्य" के लिए भी invest किया। "अच्छा चाहने" के लिए ही यह किया, इसमें दो राय नहीं है। रहस्यवाद व्यवहारिक नहीं हुआ।
इस तरह दोनों तरह से मनुष्य को स्थिरता -निश्चयता की जगह नहीं मिली। इसलिए मनुष्य आवारा हो गया। आवारा हुआ तो मनमानी करता ही है। मनमानी करने के परिणाम हमारे सामने आ ही गए हैं। धरती बीमार होने से मनुष्य की गलती उजागर हो गयी। अब विकल्प की आवश्यकता बन गयी।
मानव इतिहास को मैं ऐसे पहचानता हूँ। अभी मानव-इतिहास को ऐसे कोई पहचानता नहीं है। घटना-क्रम को इतिहास बताते हैं। यह घटना हुई, फ़िर दूसरी घटना हुई - इसको अभी इतिहास बताते हैं। मानव में गुणात्मक-परिवर्तन की सहज-अपेक्षा यदि नहीं होती तो मानव-चेतना के इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने की जगह ही नहीं होती। धरती का बीमार होना भी मानव-चेतना में संक्रमित होने की आवश्यकता को ही इंगित करता है। अपेक्षा और आवश्यकता के साथ अब सम्भावना का भी उदय हो गया है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान पूर्वक मानव जाति की जागृति की सम्भावना उदय हो चुकी है। यह एक ऐतिहासिक घटना है।
(अप्रैल २००८, अमरकंटक)
जीवचेतना में जीते हुए मनुष्य में भी न्याय, समाधान, और सत्य (व्यवस्था) की सहज-अपेक्षा है।
अध्ययन क्रम में : -
न्याय सहज अपेक्षा के आधार पर "मूल्य" स्पष्ट हो जाता है।
समाधान सहज अपेक्षा के आधार पर "चरित्र" स्पष्ट हो जाता है।
सत्य (व्यवस्था) सहज अपेक्षा के आधार पर "नैतिकता" स्पष्ट हो जाता है।
मानव में "चाहत" ग़लत नहीं है। "चाहत" के अनुरूप "घटना" घटित नहीं हुआ। उसके विपरीत अपराधिक घटनाएं घटता चला गया। अपराधिक घटनाओं के फलन में ही धरती बीमार हो गयी। इसलिए "पुनर्विचार" की आवश्यकता आ गयी। धरती पर आदमी को बने रहना है तो पुनर्विचार करेगा, नहीं रहना है तो नहीं करेगा।
मानव परम्परा जो ईश्वरवादी और भौतिकवादी तरीकों से सोचा है, उनका इस ओर ध्यान ही नहीं गया। या अनुसंधान नहीं किया। इसी को यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्तावित किया जा रहा है।
(अगस्त २००६, अमरकंटक)
भ्रमित-मनुष्य में भी वृत्ति में न्याय, धर्म, और सत्य की "सहज-अपेक्षा" रहती है।
न्याय, धर्म, और सत्य का मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव शब्द के रूप में विचार में पहुँचता है। इससे वृत्ति में जो पहले से "अपेक्षा" थी उसकी पुष्टि हुई।
सह-अस्तित्व के प्रस्ताव की सूचना का परिशीलन करने के लिए चित्त में गए। चित्त में परिशीलन करने से सह-अस्तित्व साक्षात्कार हुआ।
चित्त में सह-अस्तित्व साक्षात्कार होने पर तुंरत ही बुद्धि में न्याय, धर्म, और सत्य का बोध होता है।
बुद्धि में जब बोध होता है तो स्वतः आत्मा में अनुभव हो जाता है।
आत्मा में अनुभव होने पर बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध होता है। इससे अनुभव को प्रमाणित करने का संकल्प बनता है। अनुभव-प्रमाण बोध के आधार पर चिंतन हुआ। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक चित्रण हुआ। वृत्ति अनुभव-प्रमाण विधि से संतुष्ट हो गयी। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक विश्लेषण हुआ। इस विश्लेषण के अनुरूप मन में मूल्यों का आस्वादन हुआ - जिसके लिए आदि-काल से मनुष्य प्यासा रहा। मन तृप्त हुआ, फलस्वरूप अपनी तृप्ति को प्रमाणित करने के लिए चयन शुरू किया - जिसमें समाधान निहित हुआ, सत्य निहित हुआ, न्याय निहित हुआ। इस तरह न्याय, धर्म, और सत्य तीनो प्रमाणित होने लगे!
बुद्धि में अनुभव-मूलक संकल्प और मन में अनुभव-मूलक चयन - इन दोनों के योगफल में प्रमाण मानव-परम्परा में प्रवाहित होता है। अनुभव होने के बाद प्रमाणित होने का हमारा जो प्रवृत्ति बनता है, उसके अनुसार हमारा आचरण मानवीयता पूर्ण बनता है। मानवीयता पूर्ण आचरण बनता है, तो उसके आधार पर मानवीय संविधान बनता है। मानवीय संविधान बनता है तो मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है। मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है तो मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है। इस तरह अनुभव फैलता चला जाता है।
(अगस्त २००६, अमरकंटक)
प्रश्न: “सहज” शब्द से क्या आशय है?
उत्तर: सहज से आशय है – मानव को जिसे बनाना नहीं है. सभी व्यवस्था सहज है. नियम सहज है. जीवन सहज है. शरीर सहज है. क्या सहज है, यह समझे बिना मानव ने अपने को “बनाने वाला” मान कर ही तो सब कुछ को बर्बाद किया है. मानव ही सारी कृत्रिमता का आधार है, और कोई भी नहीं है. मानव सहजता का आधार अभी तक बना नहीं. मानव को सहज को पहचानने की आवश्यकता है. सहजता विधि से मानव के बने रहने की व्यवस्था है. कृत्रिमता विधि से कहीं न कहीं कुंठित होता है. सहज की ही निरंतरता होती है. अक्षुण्णता की अपेक्षा मानव सदा से ही रखे हुए है. उस अपेक्षा के अनुसार काम नहीं किया तो क्या वह झूठ नहीं हो गया?
(अप्रैल २००८, अमरकंटक)
कुल मिला कर - मनुष्य में जागृति की सहज-अपेक्षा पर मध्यस्थ-दर्शन का सारा तर्क जुड़ा हुआ है। जागृति की अपेक्षा मनुष्य में आदि-काल से है। "हर व्यक्ति समझदार हो सकता है।" - यहाँ से यह बात शुरू है। यही इस प्रस्तुति का आधार है।
(जनवरी २००७, अमरकंटक)
मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधियों से जितने भी कर्म करता आया, और आगे करने वाला है - उन सबके फलन में मनुष्य "सुखी" होना चाहता है, या मनः स्वस्थता प्रमाणित करना चाहता है।
कल्पनाशीलता में ही सुखी होने की आशा, अथवा अपेक्षा, अथवा इच्छा समाई है।
आशा, अपेक्षा, और इच्छा जीवन-सहज प्रक्रिया है। इसी के साथ जीवन में स्मृतियाँ प्रभावित रहती ही हैं। हर मानव में विगत से स्मृतियाँ, वर्तमान में प्रमाण, और भविष्य के लिए अपेक्षा होना स्पष्ट होता है। "सुख" प्रमाण स्वरूप में वर्तमान में ही होता है। वर्तमान में आशा, अपेक्षा, और इच्छा के तृप्त न होने के फलस्वरूप ही मनुष्य भूत और भविष्य में अपने स्मरण को दौडाए रहता है। भूत और भविष्य "सुख" का आधार न होने के फलस्वरूप मनुष्य "मनमानी" करता है।
अपराध-मुक्त मानव-परम्परा के लिए हर व्यक्ति समाधान-संपन्न होना, और हर परिवार समाधान-समृद्धि संपन्न होना और उपकार करना आवश्यक है। उसके लिए मनुष्य में "चेतना विकास" ही प्रधान मुद्दा है। मानव-चेतना में जीवन-सहज आशा, अपेक्षा, और इच्छा "वर्तमान" में ही तृप्त रहती हैं। "मनमानी" को रोकने के लिए फ़िर "भय", "प्रलोभन", और "आस्था" पर आधारित तंत्रों की आवश्यकता नहीं रहती।
(अप्रैल २००६, अमरकंटक)
"सुख-शान्ति पूर्वक जीना" - सामान्य व्यक्ति में यह सहज-अपेक्षा पायी जाती है। इस अपेक्षा के लिए स्मृति के साथ कल्पनाशीलता को जोड़ कर मानव-जाति सोचता आया, प्रयोग करता आया। इससे यह हमको पता चलता है - हर मानव सोचने वाला है, हर मानव में सोच-विचार की आवश्यकता बनी हुई है। साथ ही - सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीना" की स्थिति-गति को पहचानने की आवश्यकता बनी हुई है। मानव कल्पनाशील है, विचारशील है, और इस कल्पना और विचार का मुद्दा है - सुख-शान्ति पूर्वक जीना।
मानव के अध्ययन से पता चलता है - हर मानव समझने-समझाने वाला भी है। और शरीर द्वारा सोच-विचार को प्रस्तुत करता है। इस तरह से विचार मानव-परम्परा में "अनुकरणीय विधि से" पीढी से पीढी पहुँचता हुआ देखने को मिलता है। जो विचार नहीं पहुँच पाता है, उसके स्थान पर परिवर्तित रूप में और कोई चीज स्थापित हो जाती है।
(अप्रैल २००६ - अमरकंटक)
जीव चेतना में जीते हुए मानव में अपेक्षा 'मानव चेतना' की ही होती है. संवाद करते समय दूसरे व्यक्ति की सही को लेकर अपेक्षा को स्वीकारने में कहीं भी कंजूसी न करें। मानव के पास शुभ की ओर जाने का रास्ता चाहे संकीर्ण हो, पर सदा बना है. इसी की गवाही में हर मानव स्वयं में शुभ की अपेक्षा को होना बताता है.
अब हम यहाँ जीव चेतना से मानव चेतना में संक्रमित होने की बात कर रहे हैं. मानव चेतना का कोई भी बात जीव चेतना की किसी भी बात की वकालत नहीं करता - न जीव चेतना के संविधान की, न जीव चेतना की मानसिकता की, न जीव चेतना की शिक्षा की, न जीव चेतना की व्यवस्था की.
(जनवरी २००७, अमरकंटक)
सर्वप्रथम मानव ने संवेदनाओं के आधार पर ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया। इसके पहले शब्द होता है, स्पर्श होता है, गंध होता है, रस होता है, रूप होता है - यह उपयोग में था ही. जैसे - जीव-जानवर अपने आहार को पहचानने के लिए गंध का उपयोग करते हैं, उससे पहले पेड़ पौधों की जड़ों में अपने पोषक तत्वों को पहचानने के लिए गंध का उपयोग है. मानव ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए इनके ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया। क्यों? क्योंकि मानव में सुख की सहज अपेक्षा है. इसी बिंदु से मानव का अध्ययन शुरू होता है.
(अगस्त २००६, अमरकंटक)
भ्रमित-अवस्था में जीता हुआ आदमी गलतियां करने में विवश होता है पर गिरफ्त नहीं होता। क्योंकि सच्चाई के लिए खिड़की कहीं न कहीं हर व्यक्ति में खुली ही रहती है। सहीपन की अपेक्षा में ही हम गलती करते हैं। सहीपन की स्वयं में अपेक्षा ही अध्ययन का आधार है।
(जनवरी २००७, अमरकंटक)
मानव सहज-अपेक्षा स्वतन्त्र रहने की है। जीव-चेतना में "मनमानी विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है। मानव-चेतना में "समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है।
"मनमानी विधि" से सम्पूर्ण प्रकार के गलती, अपराध, अनाचार, दुराचार, अत्याचार होना देखा जाता है। इस विधि से अपराधों का प्रचार, अपराध करने के लिए अध्ययन, और अपराध करने के लिए अवसर पैदा करने वाला व्यक्ति अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है, ऐसा देश अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है। "मनमानी विधि" से भिन्न रूप में यदि देखना चाहते हैं, तो "मानव की मानसिकता" पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
मानव की मानसिकता पर ध्यान देने पर पता चलता है - हर मानव सर्वाधिक भागों में "सहीपन" को, "सार्थकता" को, "सत्यता" को, और "समाधान" को चाहता है। लेकिन परम्पराएं - धर्म-परम्परा, शिक्षा-परम्परा, व्यापार-परम्परा - सभी एक से एक घोर विपदा की ओर गतिशील हैं। व्यक्ति को प्रचलित-परम्परा से जो मिलता है, वह उसका अनुसरण-अनुकरण करने के लिए विवश होना पाया जाता है।
दो प्रकार की विचारधाराएं (आदर्शवादी और भौतिकवादी) जो मानव-परम्परा में प्रभावित हुई - उनसे फल-परिणाम में सुख-शान्ति की स्थली में पहुँचने के विपरीत अशांति और समस्याओं से घिर गए। स्वतंत्रता की अपेक्षा मानव में सहज है। इसी अपेक्षा-क्रम में मानव समझदारी पूर्वक हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचान पाता है, फल-स्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है।
संबंधों में सामरस्यता ही स्वतंत्रता का स्वरूप है।
(अप्रैल २००६, अमरकंटक)
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