ANNOUNCEMENTS



Sunday, May 7, 2017

पुरुषार्थ और परमार्थ

तर्क पुरुषार्थ के साथ है, वहाँ उसका प्रयोग होना भी चाहिए।  किन्तु पुरुषार्थ के बाद परमार्थ में तर्क का प्रयोग नहीं है.  परमार्थ में पुरुषार्थ विलय होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ में समावेश होता ही है.  पुरुषार्थ परमार्थ का समर्थन देता ही है.  यह नियम है, नियति-सम्मत है.

(दिसंबर २००९, अमरकंटक)

न्याय, धर्म, और सत्य का प्रयोजन आपको तर्क से समझ में आता है। यह अध्ययन विधि से पूरा हो जाता है। इसको 'पुरुषार्थ' नाम दिया। पुरुषार्थ तर्क के साथ है। उसके बाद साक्षात्कार, बोध, संकल्प, और अनुभव कोई पुरुषार्थ या तर्क नहीं है। वह जीवन की स्वयं-स्फूर्त प्यास से हो जाता है।

(जुलाई २०१०, अमरकंटक)

साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ है - जिसका नाम है "अध्ययन"। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव स्वयं-स्फूर्त है। उसमें मनुष्य का कोई पुरुषार्थ नहीं है। साक्षात्कार तक पहुंचना ही पुरुषार्थ का अन्तिम स्वरूप है।

(सितम्बर २००९, अमरकंटक)

मानव-चेतना की “आवश्यकता” को महसूस करने पर ही मानव अनुभव करेगा और मानव-चेतना को अपनाएगा। हर व्यक्ति में इस आवश्यकता बनने के लिए उसे अध्ययन रुपी पुरुषार्थ करना होगा। पूरा समझ में आना और प्रमाणित होना ही परमार्थ है, वही समाधान है। फिर पुरुषार्थ के साथ समृद्धि होता ही है. समाधान-समृद्धि होने पर अभय होता ही है। समाधान-समृद्धि और अभय होने पर सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाणित होता है। ऐसा व्यवस्था बना हुआ है।

(सितम्बर २०११, अमरकंटक)

समाधि के बाद संयम किया। जिसके फलस्वरूप मैंने सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का अध्ययन किया - और वह मुझे समझ में आया। समझने के बाद मुझे पता चला यह मानव-जाति के पुण्य से मुझे समझ में आया है, इसको मानव को अर्पित किया जाए। उसी क्रम में मैं आज आप तक पहुँचा हूँ। मुझे आप से एक कौडी की भी ज़रूरत नहीं है। मैं अपने आप में संतुष्ट हूँ। अपने पुरुषार्थ से मैं जो वस्तु उपार्जित करता हूँ, उससे संतुष्ट हूँ। इस तरह - अपने पुरुषार्थ और परमार्थ दोनों से मैं संतुष्ट हूँ।

(अक्टूबर २००६, कानपुर)

समझने की तीन स्थितियां हैं - साक्षात्कार, बोध, और अनुभव। साक्षात्कार, बोध, और अनुभव के बीच कोई दूरी नहीं है, कोई अवधि नहीं है। यह तत्काल ही होता है। साक्षात्कार में पहुँचा तो वह तुंरत बोध और अनुभव होता है। पुरुषार्थ का ज़ोर साक्षात्कार तक पहुँचने के लिए है। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव के लिए कोई पुरुषार्थ का ज़ोर नहीं है। जब कभी भी हम साक्षात्कार तक पहुँचते हैं, बोध और अनुभव तत्काल होता ही है।

 (जनवरी २००७, अमरकंटक)

जागृति के लिए पुरुषार्थ ( पुरुषार्थ = जागृति के लिए हम जो भी प्रयास करते हैं। )
जागृति पूर्वक परमार्थ (परमार्थ = जीने में प्रमाण प्रस्तुत करना। )

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

साक्षात्कार पूर्वक अर्थ बोध होना, अर्थ-बोध होने के बाद अनुभव होना, फिर अनुभव-प्रमाण बोध होना, फिर प्रमाण को संप्रेषित करना - यह परमार्थ है। पुरुषार्थ साक्षात्कार तक ही है।

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

मन को बुद्धि के अनुरूप होने के लिए जो प्रयास है, अभ्यास है, वही पुरुषार्थ है, वही साधना है, वही अध्ययन है.

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

अध्ययन अस्तित्व की यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता को “जानने” की विधि है। “जानने” के बाद “मानना” होता ही है। अध्ययन विधि में “मानने” से शुरू करते हैं। “ मानने” के बाद “जानना” आवश्यक हो जाता है। “ मानने” से यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता का भास-आभास होता है। फिर उसको अनुभव करने के लिए प्राथमिकता यदि बन जाता है तो प्रतीति होता ही है। प्रतीति होता है तो अनुभूति होता ही है। प्रतीति के बाद अनुभूति के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है, वह अपने-आप से होता है। प्रतीति तक पुरुषार्थ है, अर्थात श्रम पूर्वक प्रयास है, तर्क का कुछ दूरी तक प्रयोग है। अनुभूति परमार्थ है. फल-स्वरूप मानव परमार्थ विधि से सोचना, कार्य करना शुरू कर देता है।

(अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

इस सारी प्रक्रिया में 'स्वयं-स्फूर्त' के विरुद्ध जो कदम है - वह है, "मानना"। अभी तक जो पहले मान कर, समझ कर हम चले हैं, 'सह-अस्तित्व को मानना' उससे भिन्न है - इसलिए उसमें श्रम लगता है। अध्ययन के लिए पहला चरण 'मानना' ही है। फिर थोडा सुनने के बाद, उसका महत्त्व थोडा समझ आने के बाद उसमें रूचि बनता है। रूचि बनने के बाद उसको स्वत्व बनाने के लिए हम स्वयम को लगाते हैं। स्वयं को लगाते हैं तो तदाकार होते हैं। तदाकार होने पर हम समझ जाते हैं। तद्रूप होने पर हम प्रमाणित होते हैं। तदाकार होते तक पुरुषार्थ है। उसके बाद परमार्थ है, जो स्वयं-स्फूर्त होता है।

(जुलाई २०१०, अमरकंटक)

कर्म-अभ्यास को अनुभव से न जोड़ा जाए! कर्म-अभ्यास पुरुषार्थ की सीमा में है। मैंने अनुभव किया है, पर मैं सभी आयामों में कर्म-अभ्यास संपन्न हूँ - ऐसा नहीं है। मैं जिन आयामों में कर्म-अभ्यास करना चाहता हूँ, वह कर सकता हूँ - ऐसा अधिकार बना है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर यह अधिकार बना है।

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

अवधारणा प्राप्त होने, साक्षात्कार होने तक ही मनुष्य का पुरुषार्थ है। अवधारणा प्राप्त होने के बाद, साक्षात्कार होने के बाद परमार्थ ही है।

 (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

दृष्टा-पद प्रतिष्ठा तक पहुँचने के लिए पुरुषार्थ है। उसके बाद परमार्थ है। पुरुषार्थ के साथ तर्क जुड़ा है। परमार्थ के साथ तर्क नहीं है। परमार्थ में तर्क पहुँचता ही नहीं है। परमार्थ में हर क्यों और कैसे का उत्तर ही है फिर। परमार्थ में जीना ही जागृति का स्वरूप है।

(अनुभव शिविर २०१०, अमरकंटक)

तदाकार होने तक पहुंचाना ही अध्ययन की मूल चेष्टा है।  शब्द से अर्थ की ओर ध्यान देने से अर्थ के मूल में अस्तित्व में जो वस्तु के साथ तदाकार होना बनता ही है। उसके बाद तद्रूप होना (प्रमाणित होना) स्वाभाविक है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में साक्षात्कार होने तक पुरुषार्थ है। उसके बाद बोध और अनुभव अपने आप होता है। साक्षात्कार के बाद बुद्धि में बोध, और आत्मा में अनुभव तुंरत ही होता है। उसमें देर नहीं लगती।

 (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

तर्क एक बौद्धिक साधन है। साधन साध्य नहीं होता है।

प्रश्न: मानव के पास तर्क का साधन कहाँ से आ गया?

उत्तर: तर्क का साधन मनुष्य के पास कल्पनाशीलता वश आ गया। मनुष्य के पास कुछ बौद्धिक साधन हैं, और कुछ भौतिक साधन हैं। शब्द विधि से बौद्धिक साधन हैं - जो कल्पनाशीलता वश आए। भौतिक वस्तुओं के स्वरूप में जो साधन हैं - वे मनुष्य के प्रयत्न या पुरुषार्थ से आए।

(दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

No comments: