This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
समझना और फिर समझ को प्रमाणित करना। समझने में भले ही २-४ दिन ज्यादा लग जाए, क्या आपत्ति है?
प्रश्न: यह २-४ शरीर यात्राओं की तो बात नहीं है?
उत्तर: नहीं। इसी शरीर यात्रा में समझना और प्रमाणित होना। प्रमाणित होने की स्थली भी दो हैं - शिक्षा और व्यवस्था। शिक्षा और व्यवस्था में इसके प्रमाणित होने के बाद इसकी स्वयं स्फूर्त गति है.
प्रश्न: एक हठ है हमारी - जब तक समझेंगे नहीं, तब तक करने निकलेंगे नहीं! क्या यह हठ ठीक है?
उत्तर: ऐसा कुछ होता नहीं है. जितना समझे हैं, उतना ही करना होता है. उससे ज्यादा करना होता ही नहीं है. अभी इस दर्शन को लेकर जितना लोग कर रहे हैं, उतना वे समझ चुके हैं. जितना किये नहीं हैं - उतना समझना शेष होगा या समझ गए होंगे, पर करना शेष होगा।
शिक्षा में चेतना विकास, मूल्य शिक्षा और तकनीकी का समावेश होना है. उसमें से चेतना विकास और मूल्य शिक्षा पर सूचना विधि से हम थोड़ा काम किये हैं. तकनीकी भाग को हम अभी तक छुए नहीं हैं. सूचना तक पहुँच जाए - इतना काम किये हैं. मानव चेतना को समझे हैं तभी मानव चेतना को सूचना विधि से प्रस्तुत कर पा रहे हैं. जिसको लोग स्वीकार रहे हैं. हमारे समझे होने की गवाही है दूसऱे में उसकी स्वीकृति हो जाना, यही इसका कसौटी है.
आप लोग जो शुरू किये हो वह और सघन है. आपकी मंशा है - समग्र समझ में आ जाए, अनुभव हो जाए, उसके बाद प्रमाणित होने के अर्थ में काम किया जाए. इसमें मैं सहमत हूँ. इसमें पहाड़ यह है - पीछे का मॉडल बरकरार रहे और यह करतलगत हो जाए, यह संभव नहीं है. धीरे-धीरे यह समझ में आ जाता है कि पीछे का मॉडल अनावश्यक है.
जैसे मैं भक्ति-विरक्ति के मॉडल में चला था. जब मुझे समझ में आया कि भक्ति-विरक्ति सबके लिए मॉडल नहीं है, सबके लिए मॉडल समाधान-समृद्धि है, जो अनुभव मूलक विधि और अनुभवगामी पद्दति द्वारा लोकव्यापीकरण किया जा सकता है, तो मैं समाधान-समृद्धि के मॉडल में परिवर्तित हुआ. इससे साधना-समाधि बाई-पास हो गया और उससे मिलने वाला फल मानव को अर्पित करना बन गया. इससे किसको क्या तकलीफ है?
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
जीवन अपने स्वरूप में एक गठनपूर्ण परमाणु है. जीवन में दस क्रियाएं हैं. जीवन में दस क्रियाएं हैं. जीव संसार में इसमें से केवल एक भाग व्यक्त होता है - मन में आशा. जीव संसार जीने की आशा को चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) के रूप में व्यक्त करता है. हर जीव का चार विषयों को व्यक्त करने का तरीका अपने वंश के अनुसार अलग-अलग हो गया. गाय का तरीका अलग है, बाघ का तरीका अलग है, हाथी का तरीका अलग है. मानव का जब प्रकटन हुआ तो उसने अपनी कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता के आधार पर जीवों का अनुकरण किया और चार विषयों से ही शुरू किया। अनुकरण करने की प्रवृत्ति अभी भी बच्चों में दिखाई देती है. आज मानव अपने इतिहास में वहाँ पहुँच चुका है, जहाँ वह अध्ययन पूर्वक जीवन को समझ सकता है.
प्रश्न: जीवन में ऐसा क्या है जिससे जीवन जीवन का ज्ञान कर लेता है? जीवन को अध्ययन करने का विधि जीवन में कैसे समाया है?
उत्तर: जीवन में "दृष्टा विधि" और "अनुभव विधि" निहित है. शरीर और भौतिक-रासायनिक संसार का दृष्टा "मन" है. मन का दृष्टा "वृत्ति" है. विचार के अनुसार चयन हुआ या नहीं - इसका मूल्याँकन वृत्ति करता है. वृत्ति का दृष्टा "चित्त" है. इच्छा के अनुरूप विश्लेषण हुआ या नहीं हुआ - इसका मूल्याँकन चित्त करता है. चित्त का दृष्टा "बुद्धि" है. अनुभव प्रमाण संकल्प के अनुरूप इच्छाएं (चित्रण) हुई या नहीं - यह मूल्याँकन बुद्धि करता है. बुद्धि का दृष्टा "आत्मा" है. अनुभव के अनुरूप बुद्धि में बोध पहुँचा या नहीं - इसका दृष्टा आत्मा है. यह "दृष्टा विधि" है.
मन वृत्ति में अनुभूत होता है - अर्थात मन वृत्ति के अनुसार चलता है. वृत्ति चित्त के अनुसार चलता है - अर्थात चित्त का प्रेरणा वृत्ति स्वीकारता है. बुद्धि आत्मा में अनुभूत होता है. आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होता है.
दृष्टा विधि और अनुभव विधि जीवन में ही बनी है, और कहीं नहीं। जबकि आदर्शवाद ने कहा है - "ईश्वर दृष्टा, कर्ता और भोक्ता है." यहाँ सह-अस्तित्ववाद में कह रहे हैं - "ईश्वर में जड़-चैतन्य प्रकृति प्रेरणा पाया है." ईश्वर प्रेरक है - यह भी कहना बनता नहीं है. ईश्वर कर्ता-पद में होता ही नहीं।
क्रमशः
श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक है, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक है और सत्य वक्ता है. इसकी गवाही में हम हर मानव संतान को अपने अभिभावकों का आज्ञा-पालन और अनुसरण करता देख सकते है. इसकी आपूर्ति के लिए अभिभावकों में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने की अर्हता होनी चाहिए। अभिभावकों में यह अर्हता न होने से बच्चे अनाथ हो जाते हैं. अभी यह मानते हैं, अभिभावक न होने पर बच्चे "अनाथ" हैं, जबकि यहाँ कह रहे हैं - अभिभावकों में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने की अर्हता न होने से बच्चे "अनाथ" होते हैं. न्याय प्रदायी क्षमता यदि हर व्यक्ति में पहुँचता है तो हम उग्रवाद, नक्सलवाद आदि अराजकता से मुक्त होंगे।
बच्चों को ऐसे "अनाथ" बनाने का कार्यक्रम अभी पहले अभिभावकों की गोद में होता है, फिर शिक्षण संस्थाओं में होता है. अभी अभिभावकों और शिक्षण संस्थाओं में ऐसी अर्हता नहीं है कि मानव संतान में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करे. धर्मगद्दी, राज्यगद्दी और शिक्षागद्दी को टटोलें तो उनमें यह अर्हता नहीं है. यदि शिक्षा में अभी तक न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने का स्त्रोत नहीं है तो हमने अब तक मानवीयता का शिक्षा कहाँ से दिया? अभी तक शिक्षा ने सिवाय अपराध प्रवृत्ति को पैदा करने के क्या किया?
न्याय के बारे में मैंने सूचना दिया है - संबंधों का पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन और उभय तृप्ति।
संबंधों में मानव रहता ही है. गर्भ में रहता है तो भी सम्बन्ध है. गोद में रहता है तो भी सम्बन्ध है. उसके बाद दरवाजे पर आता है तो भी सम्बन्ध है. सड़क पर जाता है तो भी सम्बन्ध है. हर स्थान पर सम्बन्ध के बिना मानव नहीं है. हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचानना। जैसे धरती पर पैर रखें तो धरती के प्रयोजन की पहचान। माँ की गोद में बैठे हुए माँ के प्रयोजन की पहचान होना। पिता के संरक्षण में पिता के प्रयोजन की पहचान होना। भाई के प्रयोजन को पहचानना। बहन के प्रयोजन को पहचानना। बंधुओं के प्रयोजन को पहचानना। उसके बाद जीव संसार, वनस्पति संसार और पदार्थ संसार के प्रयोजन को पहचानना। इस प्रकार चारों अवस्थाओं के प्रयोजनों को पहचानना और उसके अनुसार संबंधों का निर्वाह - यह न्याय है. इस प्रकार से जीने योग्य मानव संतान को तैयार करना जरूरी है या नहीं?
इसके लिए अभिभावकों को योग्य बनाने की योजना को "लोक शिक्षा योजना" नाम दिया। इसके लिए जो केंद्र हैं (जैसे - अभ्युदय संस्थान) वहाँ इस बात को समझाने और समझे हुए को जीने में लाने के लिए अभ्यास करने का प्रावधान है. जीने में ही समझे होने का प्रमाण मिलता है. जीने से पहले समझ रहे हैं, यही प्रमाण है. चारों अवस्थाओं के प्रयोजनों को समझना और उनके साथ संबंधों का निर्वाह होना। संबंधों के निर्वाह में मूल्य होते ही हैं. मूल्य निर्वाह होने पर मानव संबंधों में उभय तृप्ति और मनुष्येत्तर संबंधों में संतुलन प्रमाणित होता है. न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित होने के लिए मानव संतान का अपनी पिछली पीढी के प्रति अनुग्रह भाव होना चाहिए।
ऐसी शिक्षा के लिए "समझदारी" एक मात्र स्त्रोत है. समझदारी है - सहअस्तित्व रूपी परम सत्य का ज्ञान। सहअस्तित्व रूपी परम सत्य समझ में आने पर सहअस्तित्व में जीने की इच्छा उदय होती है. ज्ञान सूत्र रूप में रहता है. सूत्रों की व्याख्या होने से विवेचना होती है कि ऐसे जीने में मेरा शुभ है और सर्वशुभ भी है, जो "विवेक" है. यह कर्म-अभ्यास और व्यवहार-अभ्यास स्वरूप में "विज्ञान" है. यदि हम विज्ञान को इस प्रकार पहचानते हैं तो अभी जो विज्ञान के नाम पर है - उसकी समीक्षा हो जाती है. प्रचलित विज्ञान का जो ज्ञान भाग है - वह ठीक नहीं है, नियति विरोधी है. नियति-सम्मत विज्ञान के नियमो को कर्म-दर्शन में लिखा है. दसवीं कक्षा तक सभी उन नियमो का अध्ययन कराया जाए ताकि बारहवीं कक्षा तक सभी तकनीकी नियम पूरे हो जाएँ। बारहवीं कक्षा के बाद बच्चों को कर्माभ्यास में जोड़ा जाए. हरेक विद्यार्थी को २० से २५ प्रकार की आजीविका विधियों से अवगत और अभ्यास कराया जाए. चारों अवस्थाओं के साथ अपने सम्बन्ध को समझते हुए जीने में न्याय को प्रमाणित करने की क्षमता को स्थापित किया जाए. उसके बाद कहाँ चिंता है?
इस बुनियादी काम में कुछ लोगों के ज्यादा योगदान की आवश्यकता होगी, यह सच है. जिनमें वह पुण्यशीलता है वे स्वयंस्फूर्त इसको करेंगे। उसी विधि से यह सब काम चल रहा है. मेरे हिसाब से सभी मानव पुण्यशील हैं, किसी को पापशील मैं मानता ही नहीं। जब जागृति की ओर मानव कदम रखता है तो श्राप, ताप और पाप तीनो समाप्त हो जाते हैं. जबकि आदर्शवाद में बताया गया है कि इन तीनों से मानव त्रस्त रहता है. इससे मुक्ति पाने के लिए महापुरुषों का शरण, ईश्वर का शरण और ज्ञान का शरण ही उपाय है. इसको वहाँ तरण-तारण कहा गया है. जबकि आदर्शवादी विधि से ये तीनों रहस्य में हैं. रहस्यमय होने के कारण ही इनका परंपरा बना नहीं। जबकि सहअस्तित्ववादी विधि में बताया - ज्ञान रहस्य नहीं है, नित्य वर्तमान है. ज्ञान को अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित किया जाता है. श्रवण/सूचना विधि से ज्ञान का अनुमान होता है और अनुभव मूलक विधि से इसका प्रमाण होता है. "नियम", "नियंत्रण", "संतुलन", "न्याय", "धर्म" और "सत्य" सूत्रों का अध्ययन होना, फिर इनके अनुरूप जीने के लिए प्रवृत्त होना, फिर परिवार में समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना हर समझदार व्यक्ति का दायित्व है.
अध्ययन-क्रम में न्याय-धर्म-सत्य का प्रिय-हित-लाभ की तुलना में अधिक श्रेष्ठ होना स्वीकार हो जाता है. इस प्रकार तुलन में स्वीकार होने पर अस्तित्व सहज न्याय-धर्म-सत्य चित्त में साक्षात्कार हो जाता है. इस जगह का नाम है - अध्ययन। जब तक यह साक्षात्कार नहीं होता तब तक हम अध्ययन के क्रम में ही हैं. साक्षात्कार होने पर उसका बोध उसी क्षण होता ही है. उसका अनुभव होता है. फलस्वरूप समाधान-समृद्धि स्वरूप में जीने का प्रमाण मानव परंपरा में प्रवाहित होता है. समाधान-समृद्धि संपन्न परिवार-जन सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर सकते हैं. यदि यह डिजाईन आपको अधिक श्रेष्ठ स्वीकार होता है तो परिवर्तन निश्चित है. यदि इस डिजाईन से मानव जाति का उद्धार होने का मार्ग समझ आता है तो इसके लिए हमें स्वयं को समर्पित करना चाहिए।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
अध्ययन विधि से जागृत होना सबके वश का है. दूसरा विधि साधना-संयम है, जिसको करना सबके वश का नहीं है. सबके वश की जो बात न हो वह "विशेष" होगा ही. विशेष छाती का पीपल होगा ही!
स्वयं प्रमाणित स्वरूप में जिए बिना अध्ययन कराने जाएंगे तो आपकी बात को कोई मानने वाला नहीं है. विद्यार्थी को वही संतुष्ट कर पायेगा को अनुभव मूलक विधि से जीता हो और अध्ययन कराता हो.
व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य वस्तु को क्रिया करता हुआ, एक दूसरे के साथ उपयोगिता-पूरकता विधि से रहता हुआ मैंने अनुभव किया। व्यवस्था के रूप में भी मानव-परस्परता में पूरकता-उपयोगिता तय हो जाता है. इस तरह सह-अस्तित्व मानव परस्परता में समाधान स्वरूप में प्रमाणित होता है. समाधान पूर्वक मानव धरती पर सदा-सदा जी सकते हैं. मानव समस्या-ग्रस्त रहते तक धरती को परेशान करेगा ही.
नियति का मानव को यही सन्देश है - "सुधर जाओ, नहीं तो मिट जाओ!" तीसरा कोई रास्ता नहीं है.
सही तरीके से हम जो कुछ भी करते हैं, उसका प्रभाव विशाल होता है. भ्रम पूर्वक हम कुछ भी करें, उसका प्रभाव संकीर्ण होता है.
भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. प्रलोभन है तो भय है ही. भय है तो प्रलोभन है ही. भयभीत मानव आश्वासन का प्रलोभन चाहने लगता है. प्रलोभन में डूबा मानव भय से पीड़ित होने लगता है. यह भय और प्रलोभनवादी कार्यक्रम आदमी करता क्यों है? सुख-शान्ति पूर्वक जीने के लिए.
एक व्यक्ति के प्रयोग से यह धरती नहीं सुधरेगी, इसमें पूरी मानव जाति को भागीदारी करनी पड़ेगी। इसका क्रम निम्न प्रकार से रहेगा:
पहले, अपराध प्रवृत्ति से मुक्ति
दूसरे, अपराध कार्यों से मुक्ति
उसके बाद तीसरे, प्रदूषण को कम करने के लिए ऊर्जा-संतुलन के प्रयास। अपराधिक विधि से ऊर्जा प्राप्त करने के तरीकों को बंद करना और वैकल्पिक विधि से ऊर्जा प्राप्त करने के तरीकों को स्थापित करना। यदि यह हो पाता है तो अनुभव मूलक विधि से जीने का प्रयोजन सिद्ध होगा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
मैंने जो साधना, समाधि, संयम पूर्वक अध्ययन किया, उसमें सर्वप्रथम सह-अस्तित्व को देखा (मतलब समझा)। सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूप में मैंने सह-अस्तित्व को पहचाना। सहअस्तित्व स्वरूप में जड़-चैतन्य प्रकृति को जो देखा - यही "परम सत्य" है, "नित्य वर्तमान" यही है. उससे यह स्पष्ट हो गया कि जगत शाश्वत है - इसमें कुछ पैदा नहीं होता है, न कुछ मरता है. जगत में 'परिवर्तन' होता है और 'परिणाम' होता है - यह पता चल गया. (जड़-जगत में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमें गठनशील परमाणुओं के रूप में परिणाम की अवधियां हैं. चैतन्य जगत में केवल गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमे गठनपूर्ण परमाणु के रूप में 'परिणाम का अमरत्व' है.) जड़-जगत में रचना-विरचना होती है, नाश कुछ नहीं होता। (चैतन्य-प्रकृति में नाश भी नहीं होता और रचना-विरचना भी नहीं होती)
प्रश्न: सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति किस प्रकार से चार अवस्थाओं को प्रकट करती है?
उत्तर: सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है. सहअस्तित्व के चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट होने के लिए प्रकृति में तीन प्रकार की क्रियाएं हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया। इन तीनों क्रियाओं का एक दूसरे से जोड़-जुगाड़ से चार अवस्थाएं बनते हैं. यदि इनके आपस में जुड़ने से कुछ रह गया तो चार अवस्थाएं प्रकट नहीं होता। इस प्रकटन को "करने वाला" कोई नहीं है। यह प्रकटन स्वयंस्फूर्त होता है, किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण नहीं होता।
प्रश्न: चार अवस्थाओं के प्रकटन में सत्ता का क्या रोल है?
उत्तर: सत्ता या परमात्मा का "करने वाले" के रूप में कोई रोल नहीं है. सत्ता जड़-चैतन्य प्रकृति में प्रेरणा स्वरूप में प्राप्त है. परमात्मा में भीगे रहने से जड़ प्रकृति में क्रिया करने के लिए प्रेरणा है. यह प्रेरणा न कभी बढ़ता है न घटता है.
प्रश्न: प्रकृति की क्रियाशीलता से सत्ता (व्यापक वस्तु) पर क्या प्रभाव पड़ता है या सत्ता में क्या अंतर आता है?
उत्तर: प्रकृति की क्रियाशीलता से व्यापक वस्तु में कोई क्षति (घटना-बढ़ना) होता ही नहीं है. व्यापक वस्तु में भीगे होने से प्रकृति को क्रिया की प्रेरणा सदा मिलता रहता है. अभी मिला, बाद में नहीं मिला - ऐसा कुछ होता नहीं है. यह प्रेरणा हर छोटे से छोटे वस्तु से लेकर बड़े से बड़े वस्तु तक समान स्वरूप में है. परमाणु अंश में भी क्रियाशीलता देखी जाती है.
प्रश्न: इस प्रकटन क्रम में क्या कोई व्यतिरेक हो सकता है?
उत्तर: सहअस्तित्व के प्राकृतिक स्वरूप में कोई भी प्रकटन होने के बाद उसकी "परंपरा" है. इसमें व्यतिरेक केवल भ्रमित-मानव की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है. भ्रमित मानव को छोड़ कर विखंडन प्रवृत्ति किसी में नहीं है. भ्रमित मानव यदि परमाणु अंश का भी टुकड़ा कर दे, तो भी हरेक टुकड़ा घूर्णन गति करता रहता है, और एक दूसरे से जुड़के वे टुकड़े पुनः परमाणु अंश हो जाते हैं. परमाणु अंश का स्वरूप सभी प्रजातियों के परमाणुओं में समान है. समानता की शुरुआत परमाणु अंश से है.
प्रश्न: पदार्थावस्था के परमाणु अंश से शुरू करते हुए ज्ञान-अवस्था के मानव तक के प्रकटन क्रम को समझाइये?
उत्तर: अनेक संख्यात्मक परमाणु अंशों के योग से अनेक प्रजातियों के परमाणु हुए. ऐसे भौतिक परमाणु जितने प्रजाति के होने हैं, वे सब होने के बाद भौतिक संसार तृप्त हो जाता है. इस तृप्ति के फलस्वरूप उन परमाणुओं में यौगिक क्रिया करने की प्रवृत्ति बन जाती है. स्वयंस्फूर्त विधि से यौगिक होते हैं. यौगिक के प्रकटन में सम्पूर्ण प्रजातियों के परमाणु (भूखे और अजीर्ण) पूरक हो जाते हैं, सहायक हो जाते हैं. सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता का यह पहला घाट है.
यौगिक विधि में सर्वप्रथम जल का प्रकटन हुआ. यौगिक विधि द्वारा ही धरती पर प्राणावस्था का प्रकटन हुआ. प्राणावस्था में जितना प्रजाति का भी झाड़, पौधा, औषधि, वनस्पति सब कुछ होना था, उतना होने के बाद जब प्राणावस्था तृप्त हो गयी तब जीवावस्था के शरीरों की शुरुआत हुई. जीवावस्था में भुनगी-कीड़ा से चलकर पक्षियों तक, पक्षियों से चल के पशुओं तक जलचर, थलचर, नभचर जीवों का प्रकटन हुआ, जिसमें अंडज और पिण्डज दोनों विधियों से शरीर रचना का होना स्पष्ट हुआ. जीवावस्था में अनेक प्रकार के जीवों का प्रकटन हुआ जो उनकी आहार पद्दति के अनुसार दो वर्गों में - शाकाहारी और मांसाहारी हुए. इनमे शाकाहारी जीवों में मांसाहारी जीवों की अपेक्षा प्रजनन क्रिया अधिक होना देखा गया. शाकाहारी जीव संसार के संख्या में संतुलन के अर्थ में माँसाहारी जीवों का प्रकटन हुआ - यह मुझे समझ में आया. जीवावस्था के सभी वंश परंपराएं स्थापित होने के बाद मानव शरीर रचना प्रकट हुई. मानव शरीर रचना पहले किसी जीव शरीर में ही तैयार हुआ, उसके बाद मानव शरीर परंपरा शुरू हुई, हर प्रकटन में ऐसा ही है - अगला स्वरूप का भ्रूण पिछले में तैयार होता है, और अगला स्वरूप पिछले से भिन्न हो जाता है. जैसे - ४ पत्ती वाले पौधे से ५० पत्ती वाले पौधे का प्रकटन हो जाता है. प्राणकोशाओं के प्राणसूत्रों में निहित रचना विधि में परिवर्तन होने के आधार पर यह होता है. यह प्रकटन उत्सव, खुशहाली, प्रसन्नता, संतुलन, और नियंत्रण के आधार पर होता है. मानव के प्रकटन से पहले धरती पर सघन वन, पर्याप्त जल, औषधि और सम्पूर्ण प्रकार के जीव संसार तैयार हो चुका था. इन्ही के बीच मानव पला. इस तरह सहअस्तित्व सहज प्रकटन विधि से घोर प्रयास और घोर प्रक्रिया पूर्वक मानव का धरती पर प्रकटन हुआ.
प्रश्न: तो मानव में परेशानी कैसे और कब से शुरू हुई?
उत्तर: मानव में परेशानी शुरू हुई भ्रम से! भ्रम कहाँ से आया? - जीवचेतना से. मानव शरीर रचना में यह विशेषता आयी कि जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को प्रकाशित कर सके. मानव के प्रकटन से पहले जीव संसार प्रकट हो चुका था, इसलिए मानव ने अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए जीवों का अनुकरण किया, पहले जीवों के जैसा जीने का प्रयत्न किया फिर जीवों से अच्छा जीने का प्रयत्न किया। इसके लिए जीवचेतना का ही प्रयोग किया।
मानव ने अपने प्रकटन के साथ ही (भ्रम वश) प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ना शुरू किया। पहले कृषि के लिए वन का संहार करना शुरू किया। फिर विज्ञान आने के बाद खनिज का शोषण शुरू कर दिया। वन और खनिज के संतुलन से ही ऋतु संतुलन है. ऋतु संतुलन के बिना मानव सुखी नहीं हो सकता। मानव शरीर के लिए आवश्यक आहार पैदा नहीं हो सकता। यह जो मैं बता रहा हूँ इसके महत्त्व को कैसे उजागर करोगे, सोचना! यह वृथा नहीं जाना चाहिए!
मानव ने अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए मनाकार को साकार करने का काम आवश्यकता से अधिक कर दिया, जबकि मनःस्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा. मनाकार को साकार करने में अतिवाद किया है यह धरती के बीमार होने से गवाहित हो गया है. धरती के बीमार होने पर अब हम पुनर्विचार कर रहे हैं - ऐसा कैसे हो गया? इसका उत्तर यही निकलता है - मानव के जीव चेतना में जीने से ऐसा हुआ.
प्रश्न: आपके अनुसंधान के मूल में जो जिज्ञासा थी - "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हुआ?" - उसका क्या उत्तर मिला?
उत्तर: असत्य पैदा नहीं हुआ है. अस्तित्व में कुछ भी असत्य नहीं है. सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व में असत्य का कोई स्थान ही नहीं है. इसका मतलब, शास्त्रों में जो 'ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या' लिखा है - यह गलत हो गया. इसकी जगह होना चाहिए - "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत'. इस तरह वेद विचार से मिली मूल स्वीकृति ही बदल गयी.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)