अभी तक मानव ने क्रमशः रूप, बल, धन और पद के अनुसार पहचान किया है. इस तरह मानव का जीना “भद्दे” से “और भद्दा” होता गया है. मानव में जानने-मानने के आधार पर पहचानने-निर्वाह करने की बात है. इन चारों में से कुछ भी छोड़ कर, आधा काट कर, केवल एक बात को लेकर, क्या हम कुछ भी नेक कर पायेंगे? अभी तक मानव जाति “मानने” के आधार पर चल रहा है. यह उसमे नियति-प्रदत्त कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता पूर्वक हुआ. मानव अभी “जानता” कुछ भी नहीं है – चाहे धर्म-गद्दी में बैठा हो या राज-गद्दी में बैठा हो. जानना-मानना प्राथमिक है. यदि जानना-मानना प्राथमिक हो पाता है, तो उसके लिए क्या करना है – वह बात आती है. जानने-मानने के लिए यह छोटा सा प्रस्ताव है. यदि इससे कोई ठौर मिलता है तो बहुत अच्छा, नहीं तो अनुसंधान कर लेना! मैंने जितना काम किया उसको प्रस्तुत कर दिया. मैं क्यों ऐसा व्यर्थ में दावा करूँ कि इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता! यदि इससे पूरा पड़ता है तो बहुत अच्छा, नहीं तो और शोध कर लेना. इस प्रस्ताव से मानव-चेतना, देव-चेतना और दिव्य-चेतना पूर्वक जीने की संभावना तो स्पष्ट हो गया है. इतना तो मैंने देख लिया है, उसको जी भी लिया है. इससे ज्यादा क्या जीना होता है – वह आप आगे अनुसंधान कर लेना! मेरे ऐसा देख लेने और जी लेने से संसार प्रमाणित हो गया, ऐसा कुछ नहीं है. संसार का प्रमाणित होना अभी दूर ही है. संसार अपने रंग में डूबा ही है!
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)
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