ज्ञान और व्यापक वस्तु एक ही है। जीवन संपृक्त रहने के आधार पर व्यापक वस्तु "ज्ञान" कहलाया। जड़ प्रकृति को व्यापक वस्तु ऊर्जा के रूप में प्राप्त है। ज्ञान जीवन में ही ज्ञात होता है। जीवन ही "ज्ञाता", "दृष्टा" और "कर्ता" स्वरूप में है। मानव, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है, "भोक्ता" है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की प्रतिक्रिया शरीर के साथ है। ज्ञान संपन्न होने पर ही मानव वांछित फल-परिणाम को प्राप्त कर सकता है। भ्रमित रहते तक मानव वांछित फल-परिणाम को प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे - मानव सुख चाहता है, पर भ्रमित रहते तक सुखी रहता नहीं है।
पदार्थ-अवस्था में परिणाम विधि से परंपरा है। प्राण-अवस्था में बीज विधि से परंपरा है। जीव-अवस्था में वंश विधि से परंपरा है। परंपरा किसी अवस्था की आवर्तनशीलता विधि है। यह ज्ञान मानव को होता है। साथ ही मानव को यह भी ज्ञान होता है कि इन अवस्थाओं का क्रियाकलाप ऊर्जा-सम्पन्नता वश है। ज्ञान-अवस्था में संस्कार विधि से परंपरा है। मानव में न्याय, धर्म, सत्य की आवर्तनशीलता है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)
पदार्थ-अवस्था में परिणाम विधि से परंपरा है। प्राण-अवस्था में बीज विधि से परंपरा है। जीव-अवस्था में वंश विधि से परंपरा है। परंपरा किसी अवस्था की आवर्तनशीलता विधि है। यह ज्ञान मानव को होता है। साथ ही मानव को यह भी ज्ञान होता है कि इन अवस्थाओं का क्रियाकलाप ऊर्जा-सम्पन्नता वश है। ज्ञान-अवस्था में संस्कार विधि से परंपरा है। मानव में न्याय, धर्म, सत्य की आवर्तनशीलता है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment