वस्तु वास्तविकता को व्यक्त करता है। वास्तविकता "होने" और "रहने" के रूप में है। वस्तु "होने" और "रहने" के रूप में पहचान लेना ही साक्षात्कार है। अस्तित्व में कोई ऐसा भाग नहीं है जो "होने-रहने" के स्वरूप में न हो।
प्रत्येक एक अपने ढंग से क्रमिक रूप से जीवन में साक्षात्कार होता है। सत्ता में संपृक्त चारों अवस्थाएं जब पूरा साक्षात्कार हो जाता है तो अनुभव होता है। अनुभव सहअस्तित्व में, से, के लिए है। बोध हो गया हो पर अनुभव न हो - ऐसा हो ही नहीं सकता। बोध अपूर्ण नहीं होता। बोध के बाद अनुभव होता ही है, उसमे कोई समय की बात नहीं है। अध्ययन विधि में सम्पूर्ण सहअस्तित्व साक्षात्कार पूरा होने में जो समय लगना है, वह लगता है।
अनुभवगामी विधि से बोध होने पर यह प्रतीत होता है कि "मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। अनुभव पूर्ण होने पर बुद्धि में जो अनुभव-प्रमाण बोध होता है - उसका नाम है, ऋतंभरा। सत्य को प्रमाणित करने की शक्ति (योग्यता) है ऋतंभरा। अनुभवमूलक विधि से ही ऋतंभरा आता है, उससे पहले आता नहीं है।
प्रमाणित करने के लिए चित्त में चिंतन होता है। उसके बाद चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन और चयन विधि से प्रमाणित होना बन जाता है। चयन मानव परंपरा में ही होता है, चारों अवस्थाओं के साथ ही होता है। सह-अस्तित्व का वैभव ऐसा बना है। प्रमाणित होने के क्रम में संबंधों का निर्वाह है, जिसमे मूल्यों की अभिव्यक्ति है। संबंधों का निर्वाह नहीं हो पाना ही भ्रम है, जीव-चेतना है।
प्रश्न: अध्ययन करने में "अनुभव की रोशनी" और "अनुभव के साक्षी" से क्या आशय है?
उत्तर: अध्ययन करने वाले वाले की आत्मा में अनुभव करने की "क्षमता" रहता ही है - उसी को "अनुभव के साक्षी" कहा है. दूसरे, अध्ययन कराने वाला अपने "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन कराता है। इस तरह - विद्यार्थी "अनुभव के साक्षी" में अध्ययन करता है, और अध्यापक "अनुभव की रोशनी" में अध्ययन कराता हैं। परंपरा विधि से अध्ययन है।
प्रश्न: आप का एक "उपदेश" भी है - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो". अध्ययन के लिए क्या हमें आपको "मानना" होगा?
उत्तर: यही एक उपदेश (उपाय सहित आदेश) है। अध्यापक के जाने हुए को आप मान लेते हो, फिर उस माने हुए को अध्ययन के फल में अनुभवमूलक विधि से आप जान लेते हो। अध्ययन कराने वाले व्यक्ति को स्वीकारे बिना अध्ययन कैसे होगा?
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)
प्रत्येक एक अपने ढंग से क्रमिक रूप से जीवन में साक्षात्कार होता है। सत्ता में संपृक्त चारों अवस्थाएं जब पूरा साक्षात्कार हो जाता है तो अनुभव होता है। अनुभव सहअस्तित्व में, से, के लिए है। बोध हो गया हो पर अनुभव न हो - ऐसा हो ही नहीं सकता। बोध अपूर्ण नहीं होता। बोध के बाद अनुभव होता ही है, उसमे कोई समय की बात नहीं है। अध्ययन विधि में सम्पूर्ण सहअस्तित्व साक्षात्कार पूरा होने में जो समय लगना है, वह लगता है।
अनुभवगामी विधि से बोध होने पर यह प्रतीत होता है कि "मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। अनुभव पूर्ण होने पर बुद्धि में जो अनुभव-प्रमाण बोध होता है - उसका नाम है, ऋतंभरा। सत्य को प्रमाणित करने की शक्ति (योग्यता) है ऋतंभरा। अनुभवमूलक विधि से ही ऋतंभरा आता है, उससे पहले आता नहीं है।
प्रमाणित करने के लिए चित्त में चिंतन होता है। उसके बाद चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन और चयन विधि से प्रमाणित होना बन जाता है। चयन मानव परंपरा में ही होता है, चारों अवस्थाओं के साथ ही होता है। सह-अस्तित्व का वैभव ऐसा बना है। प्रमाणित होने के क्रम में संबंधों का निर्वाह है, जिसमे मूल्यों की अभिव्यक्ति है। संबंधों का निर्वाह नहीं हो पाना ही भ्रम है, जीव-चेतना है।
प्रश्न: अध्ययन करने में "अनुभव की रोशनी" और "अनुभव के साक्षी" से क्या आशय है?
उत्तर: अध्ययन करने वाले वाले की आत्मा में अनुभव करने की "क्षमता" रहता ही है - उसी को "अनुभव के साक्षी" कहा है. दूसरे, अध्ययन कराने वाला अपने "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन कराता है। इस तरह - विद्यार्थी "अनुभव के साक्षी" में अध्ययन करता है, और अध्यापक "अनुभव की रोशनी" में अध्ययन कराता हैं। परंपरा विधि से अध्ययन है।
प्रश्न: आप का एक "उपदेश" भी है - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो". अध्ययन के लिए क्या हमें आपको "मानना" होगा?
उत्तर: यही एक उपदेश (उपाय सहित आदेश) है। अध्यापक के जाने हुए को आप मान लेते हो, फिर उस माने हुए को अध्ययन के फल में अनुभवमूलक विधि से आप जान लेते हो। अध्ययन कराने वाले व्यक्ति को स्वीकारे बिना अध्ययन कैसे होगा?
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)
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