मानव इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर का संयुक्त स्वरूप है। ज्ञान स्थिति में रहता है, इन्द्रियगोचर विधि से प्रमाण होता है। ज्ञान मानव परंपरा में इन्द्रियगोचर विधि से ही प्रमाणित होता है। इन्द्रियां न हो और ज्ञान एक से दूसरे व्यक्ति को संप्रेषित हो जाए, अभिव्यक्त हो जाए, प्रकाशित हो जाए - ऐसा होता नहीं है। इन्द्रियों के माध्यम से ही ज्ञान प्रकाशित होता है। हर मानव में जीवन क्रियाशील रहता है। इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान जो झलकता है, उसके मूल में जाने की व्यवस्था जीवन में बनी हुई है - कल्पनाशीलता के रूप में। ज्ञान वस्तु के रूप में साक्षात्कार होता है, फलतः बोध और अनुभव होता है और प्रमाणित होने की योग्यता आती है।
चैतन्य इकाई (जीवन) की महिमा इसमें मूल मुद्दा है। इसी के आधार पर जीवन को पहचानने की कोशिश है, सह-अस्तित्व को पहचानने की कोशिश है, मानव को पहचानने की कोशिश है, चारों अवस्थाओं को पहचानने की कोशिश है और इन सबके साथ जीने की कोशिश है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)
चैतन्य इकाई (जीवन) की महिमा इसमें मूल मुद्दा है। इसी के आधार पर जीवन को पहचानने की कोशिश है, सह-अस्तित्व को पहचानने की कोशिश है, मानव को पहचानने की कोशिश है, चारों अवस्थाओं को पहचानने की कोशिश है और इन सबके साथ जीने की कोशिश है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)
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