समझने की पूरी ताकत जीवन में है। जीवन शरीर के आकार में हो कर शरीर को जीवंत बनाता है। शरीर रासायनिक-भौतिक रचना है, जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जीवन अमर है, शरीर नश्वर है। जीवन को “समझने” के लिए और “प्रमाणित होने” के लिए शरीर की आवश्यकता है। शरीर के द्वारा ही “करना” होता है. जीवन अपनी इच्छा के अनुसार मनोगति से शरीर को संचालित करता है। जीवन शून्याकर्षण में रहता है. जीवन जीव-शरीर को भी चलाता है, मानव-शरीर को भी चलाता है. जीवन में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। जीव-चेतना में शरीर के साथ तदाकार-तद्रूप हो कर रहता है। मानव-चेतना में ज्ञान के साथ तदाकार-तद्रूप हो कर रहता है।
सह-अस्तित्व में जीवन ज्ञान होता है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान होने के बाद जीवन ज्ञान है। जीवन ज्ञान होने के बाद मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान है।
मानव जीता है और मरता है। सम्पूर्ण जीव जीता है और मरता है। जीने की शुरुआत प्रजनन प्रक्रिया पूर्वक जन्मने से है। प्रजनन-प्रक्रिया और शरीर केवल केवल भौतिक-रासायनिक क्रिया है। मन भौतिक-रासायनिक वस्तु नहीं है। जीवन जीते समय मन के अनुसार शरीर को चलाता है।
शरीर त्याग करते समय जीवन ने जैसी शरीर यात्रा की वैसा ही, उससे सुरूप या उससे कुरूप शरीर को अगली शरीर-यात्रा के लिए स्वीकारता है। शरीर यात्रा में सुखी रहे या दुखी रहे, इसका बुद्धि समीक्षा करता है। सुखी रहे तो सुख पूर्वक शरीर छोड़ता है। दुखी रहे तो दुःख पूर्वक शरीर को छोड़ता है। शरीर छोड़ते समय जो ये स्वीकृति रहती है, दूसरे शरीर को ग्रहण करते तक वही स्वीकृति रहती है। शरीर छोड़ते समय मन, वृत्ति, और चित्त बुद्धि के आकार में हो जाता है। दूसरा शरीर ग्रहण करते समय सारे दुखों को भूल कर सुखी होने के लिए नयी शरीर-यात्रा शुरू करता है। मानव-परंपरा में सुखी होने का प्रावधान न होने से सारी शरीर-यात्रा में जीवन सुख की तलाश में भटकता रहता है। अनेक शरीर-यात्राओं को हम कर चुके हैं। सभी के साथ ऐसा ही है. अब जागृत होने का अवसर है। इच्छा हो तो जागृत हुआ जाए!
“मन भौतिक-रासायनिक वस्तु नहीं है”. फिर मन क्या है? यहाँ से शुरुआत होती है। उसके अध्ययन के लिए प्रस्ताव है। आपके पास प्रस्ताव से सूचना आयी – मन जीवन का अविभाज्य अंग है। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जीवन ही है जो स्वयं को समझ सकता है।
प्रश्न: मैं स्वयं को जीवन होने के रूप में कैसे स्वीकारु?
जीवन आँख से दिखता नहीं है। कोई भी अकेले परमाणु को आँख से देखा नहीं जा सकता। आपको अपने स्वयं के जीवन होने को स्वीकारने में क्या तकलीफ है? हर व्यक्ति, आज पैदा हुआ बच्चा भी अपनी आशा, विचार, इच्छा को व्यक्त करता है। इनको व्यक्त करते समय यह भौतिक-रासायनिक क्रिया जैसा लगता नहीं है। यही है – जीवन वस्तु! इसको स्वीकारना है। हम आशा, विचार, इच्छा पूर्वक ही सभी काम करते हैं। यह दूसरा सिद्धांत है. इसको स्वीकारना है. जीवन में दो और अंग हैं – संकल्प (बुद्धि) और प्रमाण (आत्मा)। संकल्प और प्रमाण क्या हैं? – इसके लिए विषद चर्चा किया है। इन सबके अध्ययन की बात किया है। अध्ययन में शुरुआत किया है – हर शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है, वस्तु को समझना अध्ययन है। उसमे कल्पनाशीलता तदाकार होता है, तद्रूप होता है – फलस्वरूप पुनः प्रमाणित होता है. इतना ही जोड़ना है. इसको अपने में स्वीकारना है, समझना है, और प्रमाणित करने योग्य बनाना है। संकल्प और प्रमाण प्रकट नहीं है, आशा-विचार-इच्छा तो अभी प्रकट ही है। इन दोनों के प्रकट न होने से मनुष्य अभी अधूरा है. जीवन में ये पाँचों स्तरों के होने को मैंने देखा (समझा) है, जिया है, और समझाने के रूप में प्रमाणित करने की कोशिश कर रहे हैं। अब आप लोगों को यह सोचना है – यह बात समझने योग्य है या नहीं, समझाने योग्य है या नहीं, इसकी ज़रूरत है या नहीं। ज़रूरत होगी तो आप प्रयास करेंगे, नहीं तो नहीं करेंगे – ऐसा मेरा स्वीकृति है। जीव-चेतना में रहने से अपराध के अलावा कुछ हो नहीं सकता। अपराध करने से ही धरती मानव के रहने योग्य नहीं रहा. मानव के अपराध करने से ही धरती मानव को नकारने की स्थिति में आ रहा है।
“जीवन जीवन को समझता है” – यह मध्यस्थ-दर्शन के प्रतिपादन से पहले कहीं नहीं है। आदर्शवाद ने कहा – “ब्रह्म ब्रह्म को समझता है”। यह किसी को समझ आया नहीं. इतना सर लोग कूटे हैं इसको ले कर। और भी सर कूटना हैं तो कूट लें! वह प्रमाणित हुआ नहीं।
प्रश्न: स्वप्न, सुषुप्ति, और जागृत स्थितियां क्या हैं?
उत्तर: आशा, विचार, इच्छा जो प्रमाणित नहीं हुआ है, प्रमाणित करना चाह रहे हैं, हमारी कल्पना में जो आ चुका है, जो स्पष्ट नहीं है – वह स्वप्न है. रोग और भ्रम से स्वप्न अधिक होते हैं। स्वप्न में हमको ऐसा दिखता है जैसा हमे शरीर-संवेदनाओं से जागते हुए दिखता है। वह “रहता” कुछ नहीं है किन्तु “दिखता” है, इसी का नाम है – “स्वप्न”। इससे यह पता चलता है – जो हमको “दिखता है” वह पूरा सच नहीं है। सच्चाई को देखने के लिए ज्ञान-गोचर और दृष्टि-गोचर दोनों का प्रयोग आवश्यक है – तभी पूरा दिखता है।
सुषुप्ति में (या निद्रा में) – जीवन का क्रियाकलाप रहता है, पर वह ज्ञान-वाही तंत्र द्वारा प्रकट नहीं होता है। क्रिया-वाही तंत्र को जीवन जीवंत बना कर रखता है। सुषुप्ति में शरीर को जीवन मान करके जीवन शरीर का दृष्टा बना रहता है। भ्रमित-अवस्था में भी ऐसा होता है. सुषुप्ति की स्थिति स्वप्न की स्थिति से भिन्न है। स्वप्न सुषुप्ति और जागृत स्थितियों के बीच की स्थिति है। सुषुप्ति (निद्रा) में समय और शरीर को भुलाए रहता है। सुषुप्ति-काल में शरीर और जीवन क्रियाकलाप रहता ही है, तभी पुनः जागृत होने की बात है। सुषुप्ति शरीर की आवश्यकता है।
अनुभव के बाद स्वप्न नाम की कोई चीज रहता नहीं है। अनुभव के बाद जागते समय शरीर के साथ संसार के लिए अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करने के अर्थ में रहते है। अनुभव के बाद निद्रा में संसार के साथ उपयोगिता से मुक्त रहते हैं। अनुभव के बाद सुषुप्ति में भी जीवन जीवन-क्रिया को स्वीकारते रहता है, चिंतन चलता ही रहता है. संसार के साथ उपकार कैसे किया जाए – इसी बात का चिंतन है।
संवाद का मतलब है – आप अपनी बात मुझे पहुंचाना चाहते हैं, और मैं आपको अपनी बात पहुंचाना चाहता हूँ। इन दोनों में सामरस्यता आये, फिर हम साथ में चलें. सामरस्यता नहीं आने पर साथ में चल नहीं पाते हैं। अध्ययन में संवाद आवश्यक है. आपको मैं अपनी बात बताता हूँ। आप उसको समझने के क्रम में जिज्ञासा और शंका व्यक्त करते हो। शंका को व्यक्त नहीं कर पाते हो तो आपमें वह भारीपन के रूप में रहता है। आपके मान लेने तक संवाद है. आप उसको समझ जाते हो तो वह प्रमाण है।
समझ पूरी होते तक “समझाने” से ज्यादा “समझने” को प्राथमिकता दी जाए। समझने के बाद समझाना स्वाभाविक रूप में बनता ही है। जीवन क्रिया को समझना है. जीवन क्रियाओं के आधार पर जीवन को स्वीकारना है। बोध होने के उपरान्त जीने के संकल्प के साथ जब हम चलते हैं, तो अपने आप से अनुभव-प्रमाण होता ही है। सत्ता में पारगामीयता और अस्तित्व-धर्म से सुख-धर्म तक अनुभव में आता है। अनुभव ही कुंजी है। जिससे “सुखी रहना” और “सुखी करना” दोनों बन जाता है। “ सुखी रहना” का प्रमाण “सुखी करना” है। इसी अर्थ में “जीने दो, जियो” कहा है।
- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)
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