प्रश्न: “मूल तत्व” से क्या आशय है?
“तत्व” से आशय है – सत्य। “ मूल तत्व” का मतलब है – मूल में सत्य क्या है, कैसा है? मानव जाति सदा से सत्यान्वेषी है। व्यापक वस्तु में समस्त जड़-चैतन्य वस्तुएं संपृक्त हैं, और रूप-गुण-स्वभाव-धर्म संपन्न हैं, जिससे प्रत्येक एक त्व-सहित व्यवस्था है, समग्र व्यवस्था में भागीदार है – यह ज्ञान मानव के अनुभव में आता है। यह ज्ञान अनुभव में आने से – विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति स्पष्ट हो जाता है। फिर अनुभव-मूलक विधि से उसको व्यक्त करने के लिए चित्रण होता है।
प्रश्न: “संपृक्तता” से क्या आशय है?
संपृक्त रहना = डूबा हुआ, भीगा हुआ, घिरा हुआ होना। घिरा हुआ होने से वस्तु का कार्य-क्षेत्र निश्चित होता है, हर वस्तु किसी निश्चित लम्बाई-चौड़ाई-ऊंचाई में ही कार्य करता है – यही ‘नियंत्रण’ है। भीगा हुआ होने से ऊर्जा-सम्पन्नता है। जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता कहलाता है। चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता कहलाता है।
व्यापक वस्तु में सभी जड़-चैतन्य वस्तुएं समाहित हैं। प्रकृति का निवास-स्थली व्यापक-वस्तु है। व्यापक वस्तु हर स्थान पर है. जहां प्रकृति की इकाई नहीं है - वहाँ भी, और जहां प्रकृति की इकाइयां हैं - वहाँ भी। इकाई और व्यापक दोनों साथ-साथ हैं। एक-एक वस्तु के बिना व्यापक की पहचान नहीं है। व्यापक वस्तु के बिना एक-एक वस्तु में ऊर्जा-सम्पन्नता (जड़-प्रकृति में), ज्ञान-सम्पन्नता (चैतन्य-प्रकृति में) नहीं है। इकाइयों के व्यापक-वस्तु में ‘भीगे रहने’ के आधार पर यह है।
व्यापक वस्तु की ‘पारदर्शीयता’ (आर-पार दिखना) सामान्य रूप से समझ आती है। इसकी ‘व्यापकता’ (सर्वत्र एक सा होना) भी सामान्य रूप से समझ आती है। मूलतः व्यापक वस्तु की ‘पारगामीयता’ को समझना है। व्यापक-वस्तु ही ज्ञान है – यह अनुभव में आता है।
प्रश्न: वस्तु के “धर्म” से क्या आशय है?
वस्तु का “त्व-सहित व्यवस्था होना और समग्र व्यवस्था में भागीदार होना” उसके ‘धर्म’ से सम्बंधित है। जैसे – मानव का सुख-धर्म उसके ‘त्व-सहित व्यवस्था होने’ या ‘तृप्त होने’ से सम्बंधित है। इस तरह तृप्त होने का प्रयोजन है - मानव समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करे। प्रत्येक वस्तु का धर्म उसके स्वभाव, गुण, और रूप के साथ व्यक्त है। इस तरह वस्तु को हम उसके रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के साथ पूरा पहचानते हैं।
मानव-परंपरा में ही ज्ञान-अवस्था का प्रकटन है। अकेले जीवन (शरीर के बिना) ज्ञान-अवस्था की व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर पाता है। मानव सुख-धर्मी है. सुख के लिए समाधान आवश्यक है। समाधान समझदारी के बिना आता नहीं है।
पदार्थ-अवस्था में अस्तित्व-धर्म कोई मात्रा नहीं है। प्राण-अवस्था में पुष्टि-धर्म कोई मात्रा नहीं है। जीव-अवस्था में आशा-धर्म कोई मात्रा नहीं है। मानव में सुख-धर्म कोई मात्रा नहीं है। “ होने” की स्वीकृति मात्रा नहीं है। “ होने वाली वस्तु” एक मात्रा है। जड़ वस्तु में जो ऊर्जा है, वह कोई ‘मात्रा’ नहीं है। जड़-वस्तु के व्यापक में भीगे होने का परिणाम है – जड़-वस्तु का ऊर्जा-संपन्न होना, क्रियाशील होना। निरपेक्ष-शक्ति (व्यापक) प्राप्त है, इसीलिये क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता वश सापेक्ष-शक्तियां (ताप, ध्वनि, विद्युत) पैदा होती हैं। क्रियाशीलता न हो तो कोई सापेक्ष-शक्तियां पैदा नहीं हों। मानव में जो ज्ञान है, वह कोई मात्रा नहीं है। ज्ञान व्यापक वस्तु है. मानव के व्यापक में भीगे होने का परिणाम है – मानव का ज्ञान-संपन्न होना। अनुभव संपन्न होने पर ज्ञान ही व्यापक होने का गवाही मानव देता है। “ ज्ञान व्यापक है” – यह गवाही के साथ यह कहना बनता है, “सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप के रूप में मानव का प्रगटन किया।” सम्पूर्ण व्यवस्था सह-अस्तित्व में ही है, इसलिए मानव को सह-अस्तित्व में व्यवस्था को प्रमाणित करना है।
प्रश्न: उदघोष – “जीने दो, और जियो” - से क्या आशय है?
व्यवस्था में सबको जीने देना और स्वयं व्यवस्था में जीना। व्यवस्था में सबको जीने दिए बिना स्वयं व्यवस्था में जी भी नहीं सकते। व्यवस्था के स्वरूप को समझे बिना व्यवस्था में जीने देना और व्यवस्था में स्वयं जीना बनता ही नहीं है। इसलिए व्यवस्था के स्वरूप को समझना मानव के लिए बहुत आवश्यक है। मानव ज्ञान-अवस्था की इकाई है. मानव को जिस ज्ञान से जीने की आवश्यकता है उसको उसे पहचानने की आवश्यकता है। जीव-चेतना में जीते तक “जीने देना” बनता नहीं है। मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना के ज्ञान में पारंगत होने के बाद “जीने देना” स्वाभाविक होता है। जीने दिए बिना जीना बनता ही नहीं है। कभी विरक्ति, कभी भय पीड़ित करता ही रहता है।
प्रश्न: उपदेश “माने हुए को जान लो, जाने हुए को मान लो” में जानना-मानना से क्या आशय है?
जानना अनुभव है. मानना संकल्प है। जानना पूरा ही होता है. जीने में प्रमाणित होने के लिए “मानना” या संकल्प है। सार्वभौम व्यवस्था में तदाकार-तद्रूप होने पर जानना-मानना हुआ। सार्वभौम-व्यवस्था ही प्रयोजन है। इसके लिए अपनी कल्पनाशीलता को लगाना ही पड़ता है। सम्पूर्ण व्यवस्था में तदाकार-तद्रूप होने के बाद, हर सम्बन्ध को व्यवस्था के अर्थ में पहचानने के बाद मानव स्व-तंत्र हो जाता है।
अध्ययन अस्तित्व की यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता को “जानने” की विधि है। “जानने” के बाद “मानना” होता ही है। अध्ययन विधि में “मानने” से शुरू करते हैं। “ मानने” के बाद “जानना” आवश्यक हो जाता है। “ मानने” से यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता का भास-आभास होता है। फिर उसको अनुभव करने के लिए प्राथमिकता यदि बन जाता है तो प्रतीति होता ही है। प्रतीति होता है तो अनुभूति होता ही है। प्रतीति के बाद अनुभूति के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है, वह अपने-आप से होता है। प्रतीति तक पुरुषार्थ है, अर्थात श्रम पूर्वक प्रयास है, तर्क का कुछ दूरी तक प्रयोग है। अनुभूति परमार्थ है. फल-स्वरूप मानव परमार्थ विधि से सोचना, कार्य करना शुरू कर देता है।
“मानने” पर “जानना” बनता है। “ नहीं मानने” पर “जानना” बनता नहीं है। जीने में प्रमाण को “माने” बिना जानना बनता नहीं है। “ नहीं मानना” भी एक व्याधा है – जिसको आप परीक्षण कर सकते हैं। आपके पास “मानने” वाला गुण है। उस गुण के प्रयोग से आप एक खाके के बाद दूसरा खाका को समझ सकते हो। “ मानने” के बाद “जानने” की बारी आती है। मानने की बात जिज्ञासा के साथ आगे के projection में रखना होता है, तभी जानने वाली बात पूरा हो पाती है। तभी व्यक्ति से व्यक्ति का प्रतिरूप होना बन जाता है। “ सह-अस्तित्व का प्रतिरूप” हो गया तो सारा संकट समाप्त हो गया।
अनुभव के पहले प्रमाण नहीं है, अनुभव के पहले कल्पनाशीलता की सीमा में ही है। अनुभव-योग्य वस्तु ही अनुभव होता है। अनुभव-योग्य नहीं हुए, तभी अनुभव नहीं हुआ। अनुभव करने की क्षमता, बोध करने की क्षमता, चिंतन करने की क्षमता जीवन में बनी हुई है। इनको हमे “बनाना” नहीं है. अनुभव करने के योग्य होने के लिए, बोध करने योग्य होने के लिए, चितन करने योग्य होने के लिए अध्ययन है। यह वैसा ही है, जैसे बैटरी को चार्ज करते हैं तभी बैटरी काम करता है।
सत्ता की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता, इसीलिये सत्ता को “स्थिति-पूर्ण” कहा है। प्रकृति में स्थिति के साथ गति है, इसीलिये प्रकृति को “स्थिति-शील” कहा है। प्रकृति में पूर्णता के अर्थ में प्रगटन-क्रम है। पूर्णता के चरण हैं – गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता।
मानव जब तक जागृति-क्रम में है तब तक भ्रमित है। मानव जागृति-क्रम में होने से कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया है। इसमें से कर्म-स्वतंत्रता को प्रमाणित किया है। किन्तु कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु मिला नहीं है। मनः स्वस्थता कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु है। मानव का ‘होना’ नियति-विधि से है। मानव का ‘रहना’ जागृति-विधि से है।
मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और जीवन-लक्ष्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) को कोई नकार नहीं पाता है। यही इस प्रस्ताव की “अचूक” बात है.
प्रश्न: समझ का “सत्यापन” करने से क्या आशय है?
व्यापक में भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया और इनका सह-अस्तित्व – कुल समझने की वस्तु इतना ही है। मूल रूप में सह-अस्तित्व को समझना है। सह-अस्तित्व में ही जीवन को समझना है। सह-अस्तित्व में ही मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना है। “ इसको मैं समझा हूँ, और इसको मैं जीता हूँ” – यह सत्यापन कर दिया. इससे ज्यादा क्या सत्यापन करना है?
प्रश्न: आप जो कहते हैं – “मध्यस्थ-दर्शन मानव-जाति के पुण्य से उदय हुआ है”, इससे क्या आशय है?
यह एक आश्चर्य की बात तो है, जो मानव के इतिहास में नहीं था – वह कैसे आ गया? जो मानव की कल्पना में नहीं था – वह कैसे आ गया? जो मानव की परंपरा में नहीं था – वह कैसे आ गया? “यह अनुसन्धान मानव के पुण्य से सफल हुआ है” – यह मैं घोषणा किया हूँ। सह-अस्तित्व मानव को धरती पर रहना-जीना देना चाहता है, इसलिए यह सफल हुआ है। तर्क से तो यही कहना बनता है। आत्मीयता से यही कहना बनता है – यह मानव-पुण्य से उदय हुआ है। सह-अस्तित्व नित्य-उदयशील है, इसीलिए यह उदय हुआ है। एक सिद्धांत है – “जो था नहीं, वह होता नहीं है।” सह-अस्तित्व में था, इसलिए यह इस धरती पर उदय हो गया. बच्चे जब पैदा होते हैं, तब कोई भाषा नहीं जानते हैं। धीरे-धीरे भाषा को उद्घाटित करते हैं. कैसे? क्योंकि अस्तित्व में था, इसलिए उनमे आ गया। नहीं होता तो कहाँ से आ जाता?
प्रश्न: अध्ययन विधि से जो अनुभव-गामी बोध होता है, और अनुभव-मूलक विधि से जो अनुभव-मूलक बोध होता है – इनमे क्या अंतर है?
अध्ययन विधि से जो अनुभव-गामी बोध होता है, उसका अनुभव होता ही है। जिसके फल-स्वरूप अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण-बोध होता है। यही दोनों में अंतर है. अध्ययन विधि में सूचना से हम शुरू करते हैं, तदाकार होते हैं, तदाकार होने पर तद्रूप में पहुंचे बिना बुद्धि को तृप्ति नहीं होती। अतः बुद्धि में प्रमाणित होने के संकल्प के साथ अनुभव में पहुँच जाते हैं। अनुभव मूलक विधि से बुद्धि में जो प्रमाण-बोध होता है, उसी के आधार पर हम पूरा कार्यक्रम शुरू करते हैं। मानव भ्रमित रहते हुए भी चित्रण कर सकता है, अनुभव मूलक विधि से भी चित्रण कर सकता है। अनुभव मूलक विधि में अनुभव मूल में रहता है, इसीलिये वह चित्रण प्रमाणित होता है। भ्रमित रहते तक चित्रण प्रमाणित होता नहीं है।
- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)
2 comments:
Hi Rakesh,
Could you please explain the following.
"तदाकार होने पर तद्रूप में पहुंचे बिना बुद्धि को तृप्ति नहीं होती. अतः बुद्धि में प्रमाणित होने के संकल्प के साथ अनुभव में पहुँच जाते हैं."
The word तदाकार and तद्रूप have been used extensively in MD literature but I dont have complete clarity about these.
In the previous blog you mentioned the following.
"Imagination alone expands and gets attuned to the intended meaning. This is how communication happens between two human-beings."
Does this have something to do with तदाकार and तद्रूप ? Could you please explain ?
Regards,
Gopal.
'tad' means that (existence). 'tadakar' means - 'being attuned to that'. 'tadroop' means - 'living with this attunement'.
Until we are living with this attunement - jeevan is not fulfilled.
This attunement happens gradually through paying attention through use of imagination (kalpanasheelta) about the realities in existence - like a blurred vision becoming clear. Living in illusion is like living with blurred vision. The one who is awakened (teacher) is with clear vision. He guides the student, what he can see. Student has the need to see clearly, that is the reason he pays attention - and gradually the whole picture emerges for him. This is not just a flight of imagination which is baseless. This is a guided and inspired imagination with strong basis of the realities in existence. There may be some aspects which the student may not be able to see in his current status of blurred vision, but with pursuance he starts seeing more than before, and the process culminates in becoming fully attuned.
It is not enough for imagination to get attuned. Unless one lives with this attunement, buddhi is not satisfied, and sense of void is not fulfilled. So upon understanding existence, its realization (becoming tadroop) becomes imminent. This leads to enlightenment (anubhav).
The words 'tadakar' and 'tadroop' are actually taken by baba from bhakti-upasana tradition. These words have been redefined here. In bhakti-upasana tradition tadakar-tadroop is for the deity (devi-devta). In bhakti-upasana there is a lot of stress on 'jap', 'mantra' etc. In adhyayan-vidhi which baba ji developed - he connected tadakar and tadroop to existence, and the purpose of words is not to memorize and reiterate, but to understand the meaning.
Hope this helps...
regards,
Rakesh...
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