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Thursday, February 24, 2011

मध्यस्थ दर्शन के मूल तत्व - भाग २

प्रश्न: “यथार्थ” क्या है?

जैसा जिसका अर्थ है – वह यथार्थ है। चारों अवस्थाओं का अर्थ अलग-अलग है।

प्रश्न: “भ्रमित-मानव कर्म करते समय स्वतंत्र, और फल भोगते समय परतंत्र है तथा जागृत मानव कर्म करते समय, और फल भोगते समय स्वतंत्र है” – इससे क्या आशय है?

जागृत-मानव को अपने कर्म के फल का पता है, इसलिए वह स्वतंत्र है। भ्रमित मानव को कर्म-फल का पता नहीं है, पर कर्म कर देता है। अभी जैसे भ्रमित-मानव कर्म करने के लिए स्वतंत्र था, जिसके फल में धरती बीमार हुई। इन कर्मो को करते समय उसको अपने कर्मो के फल का पता नहीं था। “ धरती को बीमार करना है” – यह लक्ष्य बना कर भी उसने उन कर्मो को नहीं किया। यह भ्रमित-मानव के फल भोगने में परतंत्र होने का मिसाल है।

प्रश्न: “मानवत्व सहित व्यवस्था” क्या मानव के अकेले में है, या अन्य मानवों (परिवार, समाज) के साथ है?

व्यवस्था एक से अधिक के साथ ही है। एक परमाणु में भी एक से अधिक परमाणु-अंश हैं। एक रचना की व्यवस्था भी एक से अधिक अणुओं से है। एक अकेला अणु कोई रचना नहीं है। अस्तित्व का पूरा ढांचा ही सह-अस्तित्व है। मानवत्व सहित व्यवस्था भी परिवार, परिवार-समूह, ग्राम, ग्राम-समूह से लेकर अखंड-समाज तक है।

प्रश्न: “अनुगमन” से क्या आशय है?

अनुभव की ओर गमन (जाना)। अनुगमन का क्रम है – स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण, कारण से महाकारण। यही अनुक्रम है। शरीर स्थूल है। जीवन सूक्ष्म है। बुद्धि और आत्मा कारण है। व्यापक-वस्तु महाकारण है।

प्रश्न: “अनुभव” और “अनुभूति” में क्या अंतर है?

अनुभव दृष्टा पद है। अनुभव को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभूतियाँ हैं। प्रमाणित करने के क्रम में अनेक आयामों में हम अनुभूतियाँ करते ही हैं। अनुभूति अनुभव-मूलक होने वाली क्रिया है।

अनुभव एक है – जो सह-अस्तित्व में ही होता है। अनुभव “सह-अस्तित्व का प्रतिरूप” होता है। अनुभूतियाँ अनेक हैं – जो अनुभव को जीने में प्रमाणित करने के क्रम में हैं। अनुभूतियों के मूल में अनुभव है। अनुभव स्थिति रूप में है. अनुभूतियाँ गति रूप में हें।

- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

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