ANNOUNCEMENTS



Monday, February 28, 2011

बुद्धि का प्रयोग

जीवन देखता है। जीवन बुद्धि पूर्वक ही देखता है। बुद्धि यदि शामिल नहीं है तो जीवन द्वारा देखना बनता ही नहीं है। भ्रमित स्थिति में बुद्धि भ्रमित-चित्रणों को स्वीकारता नहीं है – बुद्धि की इस स्थिति का नाम ही ‘अहंकार’ है। बुद्धि केवल शाश्वत वस्तु को ही स्वीकारता है। अध्ययन पूर्वक अर्थ कल्पना में आता है, जिससे जीवन सह-अस्तित्व में तदाकार होता है – जिसको बुद्धि स्वीकारता है। फलस्वरूप अनुभव होता है। अनुभव पूर्वक प्रमाणित हो जाते हैं। दो टूक बात तो यही है।

प्रक्रिया के बाद ही कोई फल-परिणाम होता है। बिना प्रक्रिया के कोई फल-परिणाम होता नहीं है। सोच-विचार प्रक्रिया के द्वारा ही “निश्चयन” होता है। बिना सोच-विचार के कैसे निश्चयन होगा? अध्ययन प्रक्रिया के फल-स्वरूप ही अनुभव होता है।

शरीर को छोड़ देने के बाद भी जीवन बुद्धि पूर्वक देखता है, सुनता है। किन्तु शरीर छोड़ी हुई स्थिति में अर्थ को स्वीकारने का अधिकार नहीं होता है। प्रमाण के साथ ही स्वीकृति होती है। अर्थात मानव-परंपरा में जीते हुए ही जीवन में सच्चाई के लिए स्वीकृतियां बनती हैं।

सभी मानवों में जीवन समान बल और समान शक्ति के साथ है। उसका प्रयोग कैसे भी कर लो! यहाँ हमारी एक ज़ोरदार पैरवी है कि जीवन का न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक प्रयोग किया जाए। उसमे सब सहमत होते हैं। इस सहमति के आधार पर हमने मध्यस्थ-दर्शन के इस प्रस्ताव को रखा है।

- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

Saturday, February 26, 2011

जिज्ञासा और समाधान

प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन में अध्यायों का जो क्रम है, उस क्रम का निर्धारण आपने कैसे किया?

उत्तर: जिस क्रम में मैंने अनुभव किया था, उस क्रम में प्रस्तुत किया है।

प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन के पहले अध्याय में - “मैं नित्य, सत्य, शुद्ध एवं बुद्ध परमात्मा रुपी व्यापक सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति को अनुभव पूर्वक स्मरण करते हुए मानव व्यवहार दर्शन का विश्लेषण करता हूँ।” - इसमें “मैं” संज्ञा से कौन इंगित है.

उत्तर: इसको लिखने वाला। लिखने वाला मानव है। तात्विक रूप में “मैं” आत्मा है. व्यव्हार रूप में “मैं” शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव है। “ मैं” यह एक मानव-संतान के रूप में लिखा हूँ – न कि केवल जीवन के रूप में। अनुभव मूलक विधि से अनुभव का व्यवस्था के अर्थ में चिंतन-चित्रण करते हुए यह प्रस्तुत है। अनुभव मूलक विधि से चित्रण जो करते हैं, उसका स्मरण रहता है।

इस एक वाक्य में पूरे मानव व्यव्हार दर्शन का सार है। सह-अस्तित्व में कोई दबाव या परेशानी नहीं है – इसलिए सह-अस्तित्व सुखप्रद है. सारी समस्याएं मानव की अहमता वश कल्पित विधि से हैं। सह-अस्तित्व में समस्या का अत्याभाव है, समाधान की सम्पूर्णता है – सुखप्रद नहीं होगा तो क्या होगा? सह-अस्तित्व को भुलावा दिए बिना, स्वयम को धोखा दिए बिना मानव समस्या पैदा ही नहीं कर सकता। समाधान सह-अस्तित्व विधि से ही आता है। दूसरी किसी विधि से समाधान आने वाला नहीं है. स्वयं का अध्ययन नहीं हो पाना ही स्वयम के साथ धोखा है।

मानव को व्यापक-वस्तु चेतना के रूप में प्राप्त है। चेतना के बिना मानव है ही नहीं. मानव शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में है। मानव-संज्ञा जब तक है तब तक चेतना को प्रकट करता ही रहता है। चेतना के चार स्तर हैं – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। इसमें से जीव-चेतना में मानव जी चुका है, समस्या को पैदा कर चुका है। यह प्रस्ताव मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जीने के लिए है। जीने की आशा के रूप में जीव-चेतना है। अनुभव-मूलक विचार के रूप में मानव-चेतना है। अनुभव-मूलक बोध के रूप में देव-चेतना है। अनुभव-मूलक प्रमाण के रूप में दिव्य-चेतना है।

- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

Friday, February 25, 2011

संवाद

प्रश्न: “चेतना विकास – मूल्य शिक्षा” से क्या आशय है?

उत्तर: “चेतना विकास” को छोड़ करके “मूल्य शिक्षा” होता नहीं है। इसीलिये “चेतना विकास – मूल्य शिक्षा” एक साथ कहा। आज की स्थिति में लोग मूल्य-शिक्षा का स्वागत करते हैं। “ चेतना-विकास” के नाम से ठिठरते हैं। मानवजाति काफी कृपण हो चुका है - अपने सुविधा-संग्रह के विरोध में कुछ सुनना ही नहीं चाहता, चाहे धरती रहे या न रहे! लाभोन्माद, कामोन्माद, और भोगोन्माद के चलते आदमी के पास कुछ और सोचने की जगह ही नहीं रह गया। इसमें से कुछ बंटे-छंटे लोग इस प्रस्ताव को समझने में लग रहे हैं – जो इन उन्मादों से बचना चाह रहे हैं, या बचे हुए हैं।

प्रश्न: प्रकृति में “सामरस्यता” का क्या स्वरूप है?

उत्तर: प्रकृति की चार अवस्थाएं प्रगट हैं। हर अवस्था की हर इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म अविभाज्य हैं। सामरस्यता = एक जाति के होना। हर अवस्था में सामरस्यता का अपना स्वरूप है। पदार्थ-अवस्था रूप-प्रधान अभिव्यक्ति है। अर्थात पदार्थ-अवस्था में रूप के आधार पर सामरस्यता (एक जाति का होना) है। प्राण-अवस्था गुण-प्रधान अभिव्यक्ति है। प्राण-अवस्था में गुण के आधार पर सामरस्यता है। जीव-अवस्था स्वभाव-प्रधान अभिव्यक्ति है। जीव-अवस्था में स्वभाव के आधार पर सामरस्यता है। ज्ञान-अवस्था धर्म-प्रधान अभिव्यक्ति है। ज्ञान-अवस्था में धर्म के आधार पर सामरस्यता है। मानव में जाति (सामरस्यता) की पहचान उसके सुख-धर्म के आधार पर ही है। मानव में धर्म-सामरस्यता को पा लेना ही उसका परम उद्देश्य है।

सह-अस्तित्व यदि अनुभव में आता है तो आशा, विचार, इच्छा, संकल्प में सामरस्यता हो जाती है। स्वयम में जब यह एक-सूत्रता होती है, तो सर्वस्व में एकसूत्रता को स्वीकार सकते हैं। स्वयं में एक-सूत्रता नहीं होगा तो सर्वस्व में एकसूत्रता को कैसे स्वीकारेगा?

प्रश्न: “हृदयंगम होना” से क्या आशय है?

उत्तर: क्रियान्वयन करने के योग्य हो जाना। मन में आ गया, शरीर तैयार हो गया – इसका मतलब है, हृदयंगम होना।

प्रश्न: आपकी प्रस्तुति में विगत के प्रति “कृतज्ञता” किस रूप में है?

उत्तर: आदर्शवाद ने भाषा दिया – उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता है। भौतिकवाद ने दूर-संचार दिया – उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता है। विगत की सार बात को लेना है, और उसकी कमियों को पूरा करना है। आदर्शवाद में रहस्य और भौतिकवाद में संघर्ष से हमारी सहमति नहीं है। आदर्शवाद में “रहस्य” से मुक्ति के लिए समाधान प्रस्तुत है। भौतिकवाद में “सुविधा-संग्रह” (जिसके लिए संघर्ष होता है) से मुक्ति के लिए समृद्धि प्रस्तावित है।

मध्यस्थ-दर्शन की प्रस्तुति मानव की “कल्पना” से नहीं है। सारी मानव-जाति की आज तक की सोच का सार निकाल लो – फिर भी यह उससे निकलेगा नहीं।

प्रश्न: सह-अस्तित्व विधि से केन्द्रीयकरण होता है या विकेन्द्रीयकरण होता है?

सह-अस्तित्व स्वयं में विकेन्द्रीयकृत है। सत्ता कोई अधिकार अपने पास में नहीं रखा है – अधिकार चारों अवस्थाओं में विकेन्द्रीयकृत है। मध्यस्थ-दर्शन में कहा है – “हर जीवन ज्ञाता है। सह-अस्तित्व ज्ञेय है। सह-अस्तिव दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही ज्ञान है।” हर जीवन ज्ञाता और दृष्टा है। हर मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में कर्ता और भोक्ता है। यह विकेन्द्रीकरण हुआ या नहीं?

मध्यस्थ-दर्शन के प्रतिपादन को पहले पाँच सूत्रों (सह-अस्तित्व, विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति) में लिखा, फिर उसको दर्शन, वाद, शास्त्र के रूप व्याख्या करने गए तो ३५०० पृष्ठ हो गए। इसको और हज़ारों लाखों पृष्ठों तक व्याख्या किया जा सकता है। लेकिन उसको रोक दिया। इस आशय से कि - इसको समझा हुआ व्यक्ति इसको आगे समझायेगा। किताब या लिखा हुआ केवल सूचना है। यह भी विकेन्द्रीयकरण की एक मिसाल है।

आदर्शवाद में ईश्वर के एकाधिकार की बात की गयी है। आदर्शवाद में कहा – “ब्रह्म ही ज्ञाता, ज्ञान, और ज्ञेय है”। यह केंद्रीयकृत हुआ कि नहीं? भौतिकवादी विधि से व्यापार में सुविधा-संग्रह का केंद्रीयकरण है या नहीं? भौतिकवादी विधि और आदर्शवादी विधि से केन्द्रीयकरण ही होता है। भौतिकवादी विधि से और आदर्शवादी विधि से मानव का सार्वभौम लक्ष्य नहीं निकलता है। मध्यस्थ-दर्शन से मानव का “सार्वभौम लक्ष्य” निकलता है – समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व। इन लक्ष्यों को प्रमाणित करने से केन्द्रीयकरण होगा या विकेन्द्रीयकरण होगा – सोचिये!

- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

Thursday, February 24, 2011

मध्यस्थ दर्शन के मूल तत्व - भाग २

प्रश्न: “यथार्थ” क्या है?

जैसा जिसका अर्थ है – वह यथार्थ है। चारों अवस्थाओं का अर्थ अलग-अलग है।

प्रश्न: “भ्रमित-मानव कर्म करते समय स्वतंत्र, और फल भोगते समय परतंत्र है तथा जागृत मानव कर्म करते समय, और फल भोगते समय स्वतंत्र है” – इससे क्या आशय है?

जागृत-मानव को अपने कर्म के फल का पता है, इसलिए वह स्वतंत्र है। भ्रमित मानव को कर्म-फल का पता नहीं है, पर कर्म कर देता है। अभी जैसे भ्रमित-मानव कर्म करने के लिए स्वतंत्र था, जिसके फल में धरती बीमार हुई। इन कर्मो को करते समय उसको अपने कर्मो के फल का पता नहीं था। “ धरती को बीमार करना है” – यह लक्ष्य बना कर भी उसने उन कर्मो को नहीं किया। यह भ्रमित-मानव के फल भोगने में परतंत्र होने का मिसाल है।

प्रश्न: “मानवत्व सहित व्यवस्था” क्या मानव के अकेले में है, या अन्य मानवों (परिवार, समाज) के साथ है?

व्यवस्था एक से अधिक के साथ ही है। एक परमाणु में भी एक से अधिक परमाणु-अंश हैं। एक रचना की व्यवस्था भी एक से अधिक अणुओं से है। एक अकेला अणु कोई रचना नहीं है। अस्तित्व का पूरा ढांचा ही सह-अस्तित्व है। मानवत्व सहित व्यवस्था भी परिवार, परिवार-समूह, ग्राम, ग्राम-समूह से लेकर अखंड-समाज तक है।

प्रश्न: “अनुगमन” से क्या आशय है?

अनुभव की ओर गमन (जाना)। अनुगमन का क्रम है – स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण, कारण से महाकारण। यही अनुक्रम है। शरीर स्थूल है। जीवन सूक्ष्म है। बुद्धि और आत्मा कारण है। व्यापक-वस्तु महाकारण है।

प्रश्न: “अनुभव” और “अनुभूति” में क्या अंतर है?

अनुभव दृष्टा पद है। अनुभव को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभूतियाँ हैं। प्रमाणित करने के क्रम में अनेक आयामों में हम अनुभूतियाँ करते ही हैं। अनुभूति अनुभव-मूलक होने वाली क्रिया है।

अनुभव एक है – जो सह-अस्तित्व में ही होता है। अनुभव “सह-अस्तित्व का प्रतिरूप” होता है। अनुभूतियाँ अनेक हैं – जो अनुभव को जीने में प्रमाणित करने के क्रम में हैं। अनुभूतियों के मूल में अनुभव है। अनुभव स्थिति रूप में है. अनुभूतियाँ गति रूप में हें।

- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

Tuesday, February 22, 2011

मध्यस्थ दर्शन के मूल तत्व - भाग १

प्रश्न: “मूल तत्व” से क्या आशय है?

“तत्व” से आशय है – सत्य। “ मूल तत्व” का मतलब है – मूल में सत्य क्या है, कैसा है? मानव जाति सदा से सत्यान्वेषी है। व्यापक वस्तु में समस्त जड़-चैतन्य वस्तुएं संपृक्त हैं, और रूप-गुण-स्वभाव-धर्म संपन्न हैं, जिससे प्रत्येक एक त्व-सहित व्यवस्था है, समग्र व्यवस्था में भागीदार है – यह ज्ञान मानव के अनुभव में आता है। यह ज्ञान अनुभव में आने से – विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति स्पष्ट हो जाता है। फिर अनुभव-मूलक विधि से उसको व्यक्त करने के लिए चित्रण होता है।

प्रश्न: “संपृक्तता” से क्या आशय है?

संपृक्त रहना = डूबा हुआ, भीगा हुआ, घिरा हुआ होना। घिरा हुआ होने से वस्तु का कार्य-क्षेत्र निश्चित होता है, हर वस्तु किसी निश्चित लम्बाई-चौड़ाई-ऊंचाई में ही कार्य करता है – यही ‘नियंत्रण’ है। भीगा हुआ होने से ऊर्जा-सम्पन्नता है। जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता कहलाता है। चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता कहलाता है।

व्यापक वस्तु में सभी जड़-चैतन्य वस्तुएं समाहित हैं। प्रकृति का निवास-स्थली व्यापक-वस्तु है। व्यापक वस्तु हर स्थान पर है. जहां प्रकृति की इकाई नहीं है - वहाँ भी, और जहां प्रकृति की इकाइयां हैं - वहाँ भी। इकाई और व्यापक दोनों साथ-साथ हैं। एक-एक वस्तु के बिना व्यापक की पहचान नहीं है। व्यापक वस्तु के बिना एक-एक वस्तु में ऊर्जा-सम्पन्नता (जड़-प्रकृति में), ज्ञान-सम्पन्नता (चैतन्य-प्रकृति में) नहीं है। इकाइयों के व्यापक-वस्तु में ‘भीगे रहने’ के आधार पर यह है।

व्यापक वस्तु की ‘पारदर्शीयता’ (आर-पार दिखना) सामान्य रूप से समझ आती है। इसकी ‘व्यापकता’ (सर्वत्र एक सा होना) भी सामान्य रूप से समझ आती है। मूलतः व्यापक वस्तु की ‘पारगामीयता’ को समझना है। व्यापक-वस्तु ही ज्ञान है – यह अनुभव में आता है।

प्रश्न: वस्तु के “धर्म” से क्या आशय है?

वस्तु का “त्व-सहित व्यवस्था होना और समग्र व्यवस्था में भागीदार होना” उसके ‘धर्म’ से सम्बंधित है। जैसे – मानव का सुख-धर्म उसके ‘त्व-सहित व्यवस्था होने’ या ‘तृप्त होने’ से सम्बंधित है। इस तरह तृप्त होने का प्रयोजन है - मानव समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करे। प्रत्येक वस्तु का धर्म उसके स्वभाव, गुण, और रूप के साथ व्यक्त है। इस तरह वस्तु को हम उसके रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के साथ पूरा पहचानते हैं।

मानव-परंपरा में ही ज्ञान-अवस्था का प्रकटन है। अकेले जीवन (शरीर के बिना) ज्ञान-अवस्था की व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर पाता है। मानव सुख-धर्मी है. सुख के लिए समाधान आवश्यक है। समाधान समझदारी के बिना आता नहीं है।

पदार्थ-अवस्था में अस्तित्व-धर्म कोई मात्रा नहीं है। प्राण-अवस्था में पुष्टि-धर्म कोई मात्रा नहीं है। जीव-अवस्था में आशा-धर्म कोई मात्रा नहीं है। मानव में सुख-धर्म कोई मात्रा नहीं है। “ होने” की स्वीकृति मात्रा नहीं है। “ होने वाली वस्तु” एक मात्रा है। जड़ वस्तु में जो ऊर्जा है, वह कोई ‘मात्रा’ नहीं है। जड़-वस्तु के व्यापक में भीगे होने का परिणाम है – जड़-वस्तु का ऊर्जा-संपन्न होना, क्रियाशील होना। निरपेक्ष-शक्ति (व्यापक) प्राप्त है, इसीलिये क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता वश सापेक्ष-शक्तियां (ताप, ध्वनि, विद्युत) पैदा होती हैं। क्रियाशीलता न हो तो कोई सापेक्ष-शक्तियां पैदा नहीं हों। मानव में जो ज्ञान है, वह कोई मात्रा नहीं है। ज्ञान व्यापक वस्तु है. मानव के व्यापक में भीगे होने का परिणाम है – मानव का ज्ञान-संपन्न होना। अनुभव संपन्न होने पर ज्ञान ही व्यापक होने का गवाही मानव देता है। “ ज्ञान व्यापक है” – यह गवाही के साथ यह कहना बनता है, “सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप के रूप में मानव का प्रगटन किया।” सम्पूर्ण व्यवस्था सह-अस्तित्व में ही है, इसलिए मानव को सह-अस्तित्व में व्यवस्था को प्रमाणित करना है।

प्रश्न: उदघोष – “जीने दो, और जियो” - से क्या आशय है?

व्यवस्था में सबको जीने देना और स्वयं व्यवस्था में जीना। व्यवस्था में सबको जीने दिए बिना स्वयं व्यवस्था में जी भी नहीं सकते। व्यवस्था के स्वरूप को समझे बिना व्यवस्था में जीने देना और व्यवस्था में स्वयं जीना बनता ही नहीं है। इसलिए व्यवस्था के स्वरूप को समझना मानव के लिए बहुत आवश्यक है। मानव ज्ञान-अवस्था की इकाई है. मानव को जिस ज्ञान से जीने की आवश्यकता है उसको उसे पहचानने की आवश्यकता है। जीव-चेतना में जीते तक “जीने देना” बनता नहीं है। मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना के ज्ञान में पारंगत होने के बाद “जीने देना” स्वाभाविक होता है। जीने दिए बिना जीना बनता ही नहीं है। कभी विरक्ति, कभी भय पीड़ित करता ही रहता है।

प्रश्न: उपदेश “माने हुए को जान लो, जाने हुए को मान लो” में जानना-मानना से क्या आशय है?

जानना अनुभव है. मानना संकल्प है। जानना पूरा ही होता है. जीने में प्रमाणित होने के लिए “मानना” या संकल्प है। सार्वभौम व्यवस्था में तदाकार-तद्रूप होने पर जानना-मानना हुआ। सार्वभौम-व्यवस्था ही प्रयोजन है। इसके लिए अपनी कल्पनाशीलता को लगाना ही पड़ता है। सम्पूर्ण व्यवस्था में तदाकार-तद्रूप होने के बाद, हर सम्बन्ध को व्यवस्था के अर्थ में पहचानने के बाद मानव स्व-तंत्र हो जाता है।

अध्ययन अस्तित्व की यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता को “जानने” की विधि है। “जानने” के बाद “मानना” होता ही है। अध्ययन विधि में “मानने” से शुरू करते हैं। “ मानने” के बाद “जानना” आवश्यक हो जाता है। “ मानने” से यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता का भास-आभास होता है। फिर उसको अनुभव करने के लिए प्राथमिकता यदि बन जाता है तो प्रतीति होता ही है। प्रतीति होता है तो अनुभूति होता ही है। प्रतीति के बाद अनुभूति के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है, वह अपने-आप से होता है। प्रतीति तक पुरुषार्थ है, अर्थात श्रम पूर्वक प्रयास है, तर्क का कुछ दूरी तक प्रयोग है। अनुभूति परमार्थ है. फल-स्वरूप मानव परमार्थ विधि से सोचना, कार्य करना शुरू कर देता है।

“मानने” पर “जानना” बनता है। “ नहीं मानने” पर “जानना” बनता नहीं है। जीने में प्रमाण को “माने” बिना जानना बनता नहीं है। “ नहीं मानना” भी एक व्याधा है – जिसको आप परीक्षण कर सकते हैं। आपके पास “मानने” वाला गुण है। उस गुण के प्रयोग से आप एक खाके के बाद दूसरा खाका को समझ सकते हो। “ मानने” के बाद “जानने” की बारी आती है। मानने की बात जिज्ञासा के साथ आगे के projection में रखना होता है, तभी जानने वाली बात पूरा हो पाती है। तभी व्यक्ति से व्यक्ति का प्रतिरूप होना बन जाता है। “ सह-अस्तित्व का प्रतिरूप” हो गया तो सारा संकट समाप्त हो गया।

अनुभव के पहले प्रमाण नहीं है, अनुभव के पहले कल्पनाशीलता की सीमा में ही है। अनुभव-योग्य वस्तु ही अनुभव होता है। अनुभव-योग्य नहीं हुए, तभी अनुभव नहीं हुआ। अनुभव करने की क्षमता, बोध करने की क्षमता, चिंतन करने की क्षमता जीवन में बनी हुई है। इनको हमे “बनाना” नहीं है. अनुभव करने के योग्य होने के लिए, बोध करने योग्य होने के लिए, चितन करने योग्य होने के लिए अध्ययन है। यह वैसा ही है, जैसे बैटरी को चार्ज करते हैं तभी बैटरी काम करता है।

सत्ता की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता, इसीलिये सत्ता को “स्थिति-पूर्ण” कहा है। प्रकृति में स्थिति के साथ गति है, इसीलिये प्रकृति को “स्थिति-शील” कहा है। प्रकृति में पूर्णता के अर्थ में प्रगटन-क्रम है। पूर्णता के चरण हैं – गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता।

मानव जब तक जागृति-क्रम में है तब तक भ्रमित है। मानव जागृति-क्रम में होने से कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया है। इसमें से कर्म-स्वतंत्रता को प्रमाणित किया है। किन्तु कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु मिला नहीं है। मनः स्वस्थता कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु है। मानव का ‘होना’ नियति-विधि से है। मानव का ‘रहना’ जागृति-विधि से है।

मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और जीवन-लक्ष्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) को कोई नकार नहीं पाता है। यही इस प्रस्ताव की “अचूक” बात है.

प्रश्न: समझ का “सत्यापन” करने से क्या आशय है?

व्यापक में भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया और इनका सह-अस्तित्व – कुल समझने की वस्तु इतना ही है। मूल रूप में सह-अस्तित्व को समझना है। सह-अस्तित्व में ही जीवन को समझना है। सह-अस्तित्व में ही मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना है। “ इसको मैं समझा हूँ, और इसको मैं जीता हूँ” – यह सत्यापन कर दिया. इससे ज्यादा क्या सत्यापन करना है?

प्रश्न: आप जो कहते हैं – “मध्यस्थ-दर्शन मानव-जाति के पुण्य से उदय हुआ है”, इससे क्या आशय है?

यह एक आश्चर्य की बात तो है, जो मानव के इतिहास में नहीं था – वह कैसे आ गया? जो मानव की कल्पना में नहीं था – वह कैसे आ गया? जो मानव की परंपरा में नहीं था – वह कैसे आ गया? “यह अनुसन्धान मानव के पुण्य से सफल हुआ है” – यह मैं घोषणा किया हूँ। सह-अस्तित्व मानव को धरती पर रहना-जीना देना चाहता है, इसलिए यह सफल हुआ है। तर्क से तो यही कहना बनता है। आत्मीयता से यही कहना बनता है – यह मानव-पुण्य से उदय हुआ है। सह-अस्तित्व नित्य-उदयशील है, इसीलिए यह उदय हुआ है। एक सिद्धांत है – “जो था नहीं, वह होता नहीं है।” सह-अस्तित्व में था, इसलिए यह इस धरती पर उदय हो गया. बच्चे जब पैदा होते हैं, तब कोई भाषा नहीं जानते हैं। धीरे-धीरे भाषा को उद्घाटित करते हैं. कैसे? क्योंकि अस्तित्व में था, इसलिए उनमे आ गया। नहीं होता तो कहाँ से आ जाता?


प्रश्न: अध्ययन विधि से जो अनुभव-गामी बोध होता है, और अनुभव-मूलक विधि से जो अनुभव-मूलक बोध होता है – इनमे क्या अंतर है?

अध्ययन विधि से जो अनुभव-गामी बोध होता है, उसका अनुभव होता ही है। जिसके फल-स्वरूप अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण-बोध होता है। यही दोनों में अंतर है. अध्ययन विधि में सूचना से हम शुरू करते हैं, तदाकार होते हैं, तदाकार होने पर तद्रूप में पहुंचे बिना बुद्धि को तृप्ति नहीं होती। अतः बुद्धि में प्रमाणित होने के संकल्प के साथ अनुभव में पहुँच जाते हैं। अनुभव मूलक विधि से बुद्धि में जो प्रमाण-बोध होता है, उसी के आधार पर हम पूरा कार्यक्रम शुरू करते हैं। मानव भ्रमित रहते हुए भी चित्रण कर सकता है, अनुभव मूलक विधि से भी चित्रण कर सकता है। अनुभव मूलक विधि में अनुभव मूल में रहता है, इसीलिये वह चित्रण प्रमाणित होता है। भ्रमित रहते तक चित्रण प्रमाणित होता नहीं है।

- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

Thursday, February 17, 2011

प्रत्यक्ष और प्रमाण

प्रमाण का स्वरूप है - अनुभव प्रमाण, व्यवहार प्रमाण, प्रयोग प्रमाण

अनुभव में यदि सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान होता है तो अनुभव-प्रमाण है – अन्यथा कोई अनुभव-प्रमाण नहीं है।

व्यव्हार में न्याय होता है तो व्यव्हार-प्रमाण है – अन्यथा कोई व्यव्हार-प्रमाण नहीं है।

प्रयोग में यदि उत्पादन यदि पूरा होता है तो प्रयोग-प्रमाण है – अन्यथा कोई प्रयोग-प्रमाण नहीं है।

प्रश्न: “प्रत्यक्ष” क्या है?

उत्तर: सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति प्रत्यक्ष है। इसको प्रत्यक्ष नहीं मानेंगे तो किसको प्रत्यक्ष मानेंगे? “सत्ता में जड़-चैतन्य प्रकृति प्रत्यक्ष है” – इस बात को प्रमाणित करने वाला मानव ही है, और कोई इसको प्रमाणित नहीं करेगा।

प्रश्न: “प्रमाण” क्या है?

उत्तर: जो परंपरा में आता है, वही प्रमाण होगा। जो परंपरा में नहीं आता है, वह प्रमाण कहाँ हुआ? प्रमाण की ही परंपरा होगी।

मानव जीव-जानवरों जैसे चार विषयों को पहचानने से ही शुरुआत किया। फिर पाँच संवेदनाओं को पहचानने तक पहुँच गया। संवेदनाओं को पहचानने के आधार पर ही विज्ञान ने यंत्र को प्रमाण मान लिया है। मानव जितना अच्छा देख सकता है, उससे ज्यादा अच्छा यंत्र देख सकता है – इसलिए यंत्र प्रमाण है। मानव जितना याद रख सकता है, उससे ज्यादा अच्छा यंत्र याद रख सकता है – इसलिए यंत्र प्रमाण है। मानव जितना जोर से चिल्ला पाता है, उससे ज्यादा जोर से यंत्र चिल्ला सकता है – इसलिए यंत्र प्रमाण है। सभी यंत्र संवेदनाओं की परिकल्पनाओं को विस्तार देने के अर्थ में ही बने हैं। विज्ञान ने यंत्र को प्रामाणिक माना, मानव को प्रामाणिक नहीं माना। इस तरह विज्ञान ने मानव के अध्ययन को छोड़ दिया। जबकि यंत्रवत कोई मानव जीता नहीं है।

प्रश्न: विज्ञान में जैसे निरीक्षण-परीक्षण-सर्वेक्षण करते हैं, और मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन में जैसे निरीक्षण-परीक्षण-सर्वेक्षण करते हैं – उनमे क्या अंतर है?

उत्तर: विज्ञान में निरीक्षण-परीक्षण-सर्वेक्षण केवल “करने” के लिए है। यहाँ निरीक्षण-परीक्षण-सर्वेक्षण “समझने” के लिए है, “जीने” के लिए है। जीवन में जो समझ आता है, वही जीने में प्रमाणित होता है। इसकी ज़रूरत है या नहीं?

हर मानव समझना चाहता है, और समझदारी की पराकाष्ठा तक पहुंचना चाहता है। यह आधार है – इस प्रस्ताव के प्रमाणित होने के लिए।

प्रश्न: “अनुभव ही प्रत्यक्ष” से क्या आशय है?

उत्तर: पदार्थ-अवस्था में "रूप" प्रत्यक्ष है। प्राण-अवस्था में "गुण" प्रत्यक्ष है। जीव-अवस्था में "स्व-भाव" प्रत्यक्ष है। ज्ञान-अवस्था के मानव में समझ ("अनुभव") ही प्रत्यक्ष है। मानव में जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष होने से ही मानव की पहचान हुई, नहीं तो मानव की पहचान कहाँ हुआ? मैं क्या ज्ञान से संपन्न हूँ, यह आपको समझ में आता है तो आप मुझे पहचाने। वह समझदारी जब आप का स्वत्व बनता है तो आप अन्य के लिए प्रत्यक्ष हुए। इस तरह ज्ञान एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अंतरित होता है। अभी तक (आदर्शवादी या भौतिकवादी विचार में) ज्ञान समझ में न आने से, “ज्ञान एक व्यक्ति से दूसरे में अंतरित हो सकता है” – यह माना ही नहीं! जबकि यहाँ हम कह रहे हैं – तदाकार-तद्रूप विधि से ज्ञान एक से दूसरे में अंतरित होता है। तदाकार-तद्रूप होने के लिए हर व्यक्ति के पास कल्पनाशीलता है।

ज्ञान का प्रत्यक्ष होना = मानव द्वारा अपने कार्य-व्यव्हार में प्रमाणित होना। कार्य-व्यव्हार में प्रमाणित होना = समाधान-समृद्धि स्वरूप में जीना। “ मैं समझा हूँ” - इसको जांचने का आधार मेरे अपने कार्य-व्यव्हार में ही है।

जीवन का प्रत्यक्ष होना ज्ञान के प्रत्यक्ष होने से ही है. दूसरी कोई विधि से जीवन प्रत्यक्ष होता नहीं है। ज्ञान-विधि से (कार्य-व्यव्हार में प्रमाणित होने से, समाधान-समृद्धि स्वरूप में जीने से) जीवन के होने-रहने का प्रमाण मिलता है।

प्रमाण को लेकर यहाँ जो कहा जा रहा है – वह रहस्य मूलक आदर्शवाद और अनिश्चयता मूलक भौतिकवाद (विज्ञान) से बिलकुल भिन्न बात है। इसको कैसे संसार के सम्मुख प्रस्तुत करना है – उसमे ऊल-जलूल कुछ नहीं चलता है, perfection ही चलता है. विज्ञान-संसार को यदि यह बात रमती है तो उसका काया-कल्प होगा।

प्रश्न: आपने संयम में यह सब देखा/समझा – इसका क्या “प्रमाण” है?

उत्तर: मेरा अपने जैसा दूसरे को बना देना ही इसका प्रमाण है। मेरा प्रत्यक्ष होना ही इसका प्रमाण है। मेरा समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही इसका प्रमाण है। ये तीनो मौलिक बातें हैं। इसकी ज़रूरत है या नहीं – इसको पहले तय करो! जरूरत नहीं है - तो इससे दूर ही रहो। जरूरत है - तो इसको समझो! मेरे अकेले के मेहनत करने से सबका काम चल जाएगा – ऐसा नहीं है। सबको नाक रगड़ना ही पड़ेगा। नहीं तो आपका “नाक” ही अडेगा! “नाक अड़ने” से आशय है – अहंकार। अहंकार से ही अटके हैं।

आदर्शवाद ने भी अहंकार को लेकर बहुत कुछ कहा है। उसमे सत्य उनको कुछ भासा होगा – तभी उन्होंने ऐसा कहा है। वे प्रमाणित नहीं हो पाए, रहस्य में फंस गए – वह दूसरी बात है।

मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव की शुरुआत ही यहाँ से है – “मैं समझ गया हूँ, मेरी समझ दूसरे में अंतरित हो सकती है”। किसको समझाओगे? जो समझना चाहते हैं, उनको समझायेंगे। ऐसे शुरुआत हुआ। दूसरा लहर शुरू हुआ – शिक्षकों को समझायेंगे। तीसरा लहर शुरू हुआ – अभिभावकों को समझायेंगे। शिक्षक समझ कर स्वयं बच्चों और अभिभावकों को समझायेंगे – ऐसा मैं मान कर चल रहा हूँ।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित

Wednesday, February 16, 2011

जीवन और शरीर

समझने की पूरी ताकत जीवन में है। जीवन शरीर के आकार में हो कर शरीर को जीवंत बनाता है। शरीर रासायनिक-भौतिक रचना है, जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जीवन अमर है, शरीर नश्वर है। जीवन को “समझने” के लिए और “प्रमाणित होने” के लिए शरीर की आवश्यकता है। शरीर के द्वारा ही “करना” होता है. जीवन अपनी इच्छा के अनुसार मनोगति से शरीर को संचालित करता है। जीवन शून्याकर्षण में रहता है. जीवन जीव-शरीर को भी चलाता है, मानव-शरीर को भी चलाता है. जीवन में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। जीव-चेतना में शरीर के साथ तदाकार-तद्रूप हो कर रहता है। मानव-चेतना में ज्ञान के साथ तदाकार-तद्रूप हो कर रहता है।

सह-अस्तित्व में जीवन ज्ञान होता है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान होने के बाद जीवन ज्ञान है। जीवन ज्ञान होने के बाद मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान है।

मानव जीता है और मरता है। सम्पूर्ण जीव जीता है और मरता है। जीने की शुरुआत प्रजनन प्रक्रिया पूर्वक जन्मने से है। प्रजनन-प्रक्रिया और शरीर केवल केवल भौतिक-रासायनिक क्रिया है। मन भौतिक-रासायनिक वस्तु नहीं है। जीवन जीते समय मन के अनुसार शरीर को चलाता है।

शरीर त्याग करते समय जीवन ने जैसी शरीर यात्रा की वैसा ही, उससे सुरूप या उससे कुरूप शरीर को अगली शरीर-यात्रा के लिए स्वीकारता है। शरीर यात्रा में सुखी रहे या दुखी रहे, इसका बुद्धि समीक्षा करता है। सुखी रहे तो सुख पूर्वक शरीर छोड़ता है। दुखी रहे तो दुःख पूर्वक शरीर को छोड़ता है। शरीर छोड़ते समय जो ये स्वीकृति रहती है, दूसरे शरीर को ग्रहण करते तक वही स्वीकृति रहती है। शरीर छोड़ते समय मन, वृत्ति, और चित्त बुद्धि के आकार में हो जाता है। दूसरा शरीर ग्रहण करते समय सारे दुखों को भूल कर सुखी होने के लिए नयी शरीर-यात्रा शुरू करता है। मानव-परंपरा में सुखी होने का प्रावधान न होने से सारी शरीर-यात्रा में जीवन सुख की तलाश में भटकता रहता है। अनेक शरीर-यात्राओं को हम कर चुके हैं। सभी के साथ ऐसा ही है. अब जागृत होने का अवसर है। इच्छा हो तो जागृत हुआ जाए!

“मन भौतिक-रासायनिक वस्तु नहीं है”. फिर मन क्या है? यहाँ से शुरुआत होती है। उसके अध्ययन के लिए प्रस्ताव है। आपके पास प्रस्ताव से सूचना आयी – मन जीवन का अविभाज्य अंग है। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जीवन ही है जो स्वयं को समझ सकता है।

प्रश्न: मैं स्वयं को जीवन होने के रूप में कैसे स्वीकारु?

जीवन आँख से दिखता नहीं है। कोई भी अकेले परमाणु को आँख से देखा नहीं जा सकता। आपको अपने स्वयं के जीवन होने को स्वीकारने में क्या तकलीफ है? हर व्यक्ति, आज पैदा हुआ बच्चा भी अपनी आशा, विचार, इच्छा को व्यक्त करता है। इनको व्यक्त करते समय यह भौतिक-रासायनिक क्रिया जैसा लगता नहीं है। यही है – जीवन वस्तु! इसको स्वीकारना है। हम आशा, विचार, इच्छा पूर्वक ही सभी काम करते हैं। यह दूसरा सिद्धांत है. इसको स्वीकारना है. जीवन में दो और अंग हैं – संकल्प (बुद्धि) और प्रमाण (आत्मा)। संकल्प और प्रमाण क्या हैं? – इसके लिए विषद चर्चा किया है। इन सबके अध्ययन की बात किया है। अध्ययन में शुरुआत किया है – हर शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है, वस्तु को समझना अध्ययन है। उसमे कल्पनाशीलता तदाकार होता है, तद्रूप होता है – फलस्वरूप पुनः प्रमाणित होता है. इतना ही जोड़ना है. इसको अपने में स्वीकारना है, समझना है, और प्रमाणित करने योग्य बनाना है। संकल्प और प्रमाण प्रकट नहीं है, आशा-विचार-इच्छा तो अभी प्रकट ही है। इन दोनों के प्रकट न होने से मनुष्य अभी अधूरा है. जीवन में ये पाँचों स्तरों के होने को मैंने देखा (समझा) है, जिया है, और समझाने के रूप में प्रमाणित करने की कोशिश कर रहे हैं। अब आप लोगों को यह सोचना है – यह बात समझने योग्य है या नहीं, समझाने योग्य है या नहीं, इसकी ज़रूरत है या नहीं। ज़रूरत होगी तो आप प्रयास करेंगे, नहीं तो नहीं करेंगे – ऐसा मेरा स्वीकृति है। जीव-चेतना में रहने से अपराध के अलावा कुछ हो नहीं सकता। अपराध करने से ही धरती मानव के रहने योग्य नहीं रहा. मानव के अपराध करने से ही धरती मानव को नकारने की स्थिति में आ रहा है।

“जीवन जीवन को समझता है” – यह मध्यस्थ-दर्शन के प्रतिपादन से पहले कहीं नहीं है। आदर्शवाद ने कहा – “ब्रह्म ब्रह्म को समझता है”। यह किसी को समझ आया नहीं. इतना सर लोग कूटे हैं इसको ले कर। और भी सर कूटना हैं तो कूट लें! वह प्रमाणित हुआ नहीं।

प्रश्न: स्वप्न, सुषुप्ति, और जागृत स्थितियां क्या हैं?

उत्तर: आशा, विचार, इच्छा जो प्रमाणित नहीं हुआ है, प्रमाणित करना चाह रहे हैं, हमारी कल्पना में जो आ चुका है, जो स्पष्ट नहीं है – वह स्वप्न है. रोग और भ्रम से स्वप्न अधिक होते हैं। स्वप्न में हमको ऐसा दिखता है जैसा हमे शरीर-संवेदनाओं से जागते हुए दिखता है। वह “रहता” कुछ नहीं है किन्तु “दिखता” है, इसी का नाम है – “स्वप्न”। इससे यह पता चलता है – जो हमको “दिखता है” वह पूरा सच नहीं है। सच्चाई को देखने के लिए ज्ञान-गोचर और दृष्टि-गोचर दोनों का प्रयोग आवश्यक है – तभी पूरा दिखता है।

सुषुप्ति में (या निद्रा में) – जीवन का क्रियाकलाप रहता है, पर वह ज्ञान-वाही तंत्र द्वारा प्रकट नहीं होता है। क्रिया-वाही तंत्र को जीवन जीवंत बना कर रखता है। सुषुप्ति में शरीर को जीवन मान करके जीवन शरीर का दृष्टा बना रहता है। भ्रमित-अवस्था में भी ऐसा होता है. सुषुप्ति की स्थिति स्वप्न की स्थिति से भिन्न है। स्वप्न सुषुप्ति और जागृत स्थितियों के बीच की स्थिति है। सुषुप्ति (निद्रा) में समय और शरीर को भुलाए रहता है। सुषुप्ति-काल में शरीर और जीवन क्रियाकलाप रहता ही है, तभी पुनः जागृत होने की बात है। सुषुप्ति शरीर की आवश्यकता है।

अनुभव के बाद स्वप्न नाम की कोई चीज रहता नहीं है। अनुभव के बाद जागते समय शरीर के साथ संसार के लिए अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करने के अर्थ में रहते है। अनुभव के बाद निद्रा में संसार के साथ उपयोगिता से मुक्त रहते हैं। अनुभव के बाद सुषुप्ति में भी जीवन जीवन-क्रिया को स्वीकारते रहता है, चिंतन चलता ही रहता है. संसार के साथ उपकार कैसे किया जाए – इसी बात का चिंतन है।


संवाद का मतलब है – आप अपनी बात मुझे पहुंचाना चाहते हैं, और मैं आपको अपनी बात पहुंचाना चाहता हूँ। इन दोनों में सामरस्यता आये, फिर हम साथ में चलें. सामरस्यता नहीं आने पर साथ में चल नहीं पाते हैं। अध्ययन में संवाद आवश्यक है. आपको मैं अपनी बात बताता हूँ। आप उसको समझने के क्रम में जिज्ञासा और शंका व्यक्त करते हो। शंका को व्यक्त नहीं कर पाते हो तो आपमें वह भारीपन के रूप में रहता है। आपके मान लेने तक संवाद है. आप उसको समझ जाते हो तो वह प्रमाण है।

समझ पूरी होते तक “समझाने” से ज्यादा “समझने” को प्राथमिकता दी जाए। समझने के बाद समझाना स्वाभाविक रूप में बनता ही है। जीवन क्रिया को समझना है. जीवन क्रियाओं के आधार पर जीवन को स्वीकारना है। बोध होने के उपरान्त जीने के संकल्प के साथ जब हम चलते हैं, तो अपने आप से अनुभव-प्रमाण होता ही है। सत्ता में पारगामीयता और अस्तित्व-धर्म से सुख-धर्म तक अनुभव में आता है। अनुभव ही कुंजी है। जिससे “सुखी रहना” और “सुखी करना” दोनों बन जाता है। “ सुखी रहना” का प्रमाण “सुखी करना” है। इसी अर्थ में “जीने दो, जियो” कहा है।

- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)