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Saturday, December 13, 2025

अवधारणा‑बोध


1. अवधारणा = जाननामाननापहचानना (यही बोध का प्रारूप है)

“जान लिया, मान लिया तथा पहचान चुके हैं। यही अवधारणा है।” Page 22, समाधानात्मक भौतिकवाद

2. अवधारणा = सद्विवेक; सत्यबोध के रूप में अवधारणा

अवधारणा ही सद्विवेक है । सद्विवेक स्वयं में सत्यता की विवेचना है जो स्पष्ट है । मूलतः यही सर्वशुभ एवं मांगल्य है ।

अनुभव की अवधारणा सत्य बोध के रूप में; अवधारणा (सम्यक-बोध) ही सत्य-संकल्प है । यही परावर्तित होकर शुभकर्म, उपासना तथा आचरण में फलित रूप में प्रत्यक्ष है । इसी का परावर्तित मूल्य ही धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा और करूणा के रूप में प्रत्यक्ष है ।” Page 46, मानव कर्म दर्शन

3. अनुभवगामी अवधारणा = संस्कार; यही बोध का आधार है

बुद्धि में प्राप्त अनुभवगामी अवधारणाएं (संस्कार) क्रम से विचार व क्रिया में अभिव्यक्ति होती है और क्रिया से प्राप्त विचार पुन: अनुमान सहित अवधारणा (संस्कार) में स्थित होते हैं ।” Page 116, मानव व्यवहार दर्शन

4. अवधारणा = समाधान;

संबंध का स्वीकृति अथवा अवधारणा अपने स्वरूप में समाधान और उसकी निरंतरता ही है. यह विज्ञान और विवेक सम्मत तर्क विधि से बोध होता है।”Page 110, व्यवहारवादी समाजशास्त्र

5. अवधारणा = सत्यबोध का ही रूप

अवधारणा सत्यबोध के रूप में।” Page 46, मानव कर्म दर्शन

6. अवधारणा = हृदयंगम बोध

हृदयंगम होने का तात्पर्य बोध अवधारणा के रूप में जीवन आश्वस्त होने से है।”Page 87, समाधानात्मक भौतिकवाद

7. अध्ययन विधि में बुद्धि में ‘पुष्टि बोध’ = अवधारणा

अध्ययन विधि से सहअस्तित्व रूपी सत्य सहज मन में पुष्टि मनन (स्वीकारने के रूप में), वृत्ति में पुष्टि तुलन (गुणात्मक विधि से), चित्त में पुष्टि साक्षात्कार, बुद्धि में पुष्टि बोध संज्ञा है ।”Page 64, मानव व्यवहार दर्शन

8. अवधारणा = अनुगमन/अनुशीलन की प्रवृत्ति; जागृति का आधार

अवधारणा ही अनुगमन तथा अनुशीलन के लिये प्रवृत्ति है, जो शिष्टता के रूप में प्रकट होती है. जागृति के लिये अवधारणा अनिवार्य है।” Page 45, मानव कर्म दर्शन

9. अवधारणा कैसे?

विश्राम योग्य अवधारणा मात्र न्यायपूर्ण व्यवहार से, धर्मपूर्ण विचार से तथा सत्य में अनुभूति सहित सम्भव होता है ।”Page 48, मानव व्यवहार दर्शन

11. अनुभवसहज बोध = अवधारणा = हृदयंगम

चैतन्य प्रकृति में आदान-प्रदान होने वाली, पहचानने और निर्वाह करने की संयुक्त संप्रेषणा की स्वीकृति ही बोध के नाम से जानी जाती हैं। इसी को हृदयंगम कहा जाता है और ऐसा बोध ही अवधारणा है।”Page 51, समाधानात्मक भौतिकवाद

12. अवधारणा में तृप्ति बिन्दु प्राप्त होना = अनुभव

जाननामाननापहचानना की संयुक्त प्रक्रिया में जब तृप्तिबिन्दु प्राप्त होता है, वही अनुभव है Page 118, अनुभवात्मक अध्यात्मवाद

Wednesday, March 19, 2025

श्राप, ताप, और पाप से मुक्ति

मनुष्य जब जागृति की ओर उन्मुख होता है, तो वह श्राप, ताप, और पाप तीनो से मुक्त हो जाता है।  जागृति की ओर उन्मुख होना = मानव लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व) की ओर कदम बढ़ाना।  हमारा पूर्वाभ्यास या आदतें ही ताप है.  ताप मतलब जल जाना.  हमारे पूर्वाभ्यास से ही हम तप्त हैं.  पाप वह है जो हम अव्यवस्था की ओर किये रहते हैं.  अपराध करने के लिए जितने भी कामनाएं हैं - वे श्राप हैं.  कितने लोग इस तरह श्राप, ताप, पाप से ग्रस्त हैं - आप ही गिन लो!  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित 

Sunday, January 5, 2025

प्रतिफल, पारितोष, पुरस्कार

अभी कुकर्मों के लिए पारितोष और पुरस्कार दिया जाता है.  मानव चेतना विधि से उपकार का पुरस्कार और पारितोष होता है.  उपकार का प्रतिफल नहीं होता.  प्रतिफल श्रम नियोजन का ही होता है.

ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्बन्धी बातों का कामना या सम्मान ही किया जा सकता है.  कामना के साथ हम जो खुशहाली से देते हैं - वह पारितोष है.  सम्मान योग्य कार्य होने पर हम जो देते हैं - वह पुरस्कार है.  जैसे बच्चों को शुभकामना के साथ जो देते हैं - वह पारितोष है.  फिर जब प्रमाण होने पर उसका सम्मान किया - तो वह पुरस्कार है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)


Thursday, December 19, 2024

पदार्थ की परिभाषा

पदार्थ = पद भेद से अर्थ भेद को प्रकट करने वाली वस्तु

पदार्थावस्था में अनेक प्रजाति के परमाणुओं के रूप में अर्थ को व्यक्त किया.   प्राणावस्था में अनेक प्रजाति की वनस्पतियों के रूप में अर्थ को व्यक्त किया।  जीवावस्था में अनेक वंशों के रूप में अर्थ को व्यक्त किया।  मानव में ज्ञान के आधार पर अर्थ को व्यक्त करना शेष है.

इस तरह पदार्थ की परिभाषा में चारों अवस्थाएं आती हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मार्च २००८, अमरकंटक)

Wednesday, December 18, 2024

पारगामीयता और पारदर्शीयता

प्रश्न: ज्ञान की पारगामीयता और पारदर्शीयता को प्रमाणित करने का क्या अर्थ है?

उत्तर:  सर्वत्र एक सा विद्यमान व्यापक वस्तु को ज्ञान नाम दिया है.  व्यापक वस्तु ही मानव में ज्ञान कहलाता है.  ज्ञान न भौतिक वस्तु है, न रासायनिक वस्तु है, न जीवन वस्तु है.  ज्ञान इन तीनों से मुक्त है.  ज्ञान वस्तु में सीमित नहीं होता है.

ज्ञान होता है, यह हम अनुभव करते ही हैं.  दूसरों में यही वस्तु स्वीकार होने पर पहुँचता है - यह ज्ञान की पारगामीयता का प्रमाण है.

दो इकाइयां परस्पर पहचान पाती हैं - यह पारदर्शीयता है.  व्यापक वस्तु पारदर्शी है, इसी कारण एक दूसरे पर परस्परता में प्रतिबिम्बन रहता है.  मानव को इसका ज्ञान होता है.  

मानव ज्ञान के पारगामी और पारदर्शी होने को प्रतिपादित करता है.  इन दोनों के आधार पर अनुभव होने को प्रतिपादित करता है.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

Tuesday, December 10, 2024

संवाद

 प्रकृति सत्ता मे प्रेरणा पाने योग्य स्थिति मे है.  प्रकृति सत्ता मे स्वयं स्फ़ुर्त विधि से, स्वयं प्रवृत्त विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है.  जैसे कपड़ा पानी में भीगता है वैसे... पानी कपड़े को भिगाता नहीं है, भीगने का गुण कपड़े में ही है, पानी - पानी ही है.  उसी प्रकार व्यापक वस्तु ऊर्जा होने के कारण प्रकृति उसमे ऊर्जा संपन्न रहती है.  इसके फलन में प्रकृति में क्रियाशीलता, विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति का प्रकटन होता है.

इस प्रकार मानव जाति द्वारा जीवन को न पहचानने से, जीव को अल्पज्ञ मानने से, जीव को ईश्वर से पैदा हुआ मानने से, और इन सब मान्यताओं का तालमेल न बैठने से मानव जाति को कोई ज्ञान हाथ लगा नहीं।  अतः मानव संतान में न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने में, सही कार्य व्यव्हार प्रमाणित करने और सत्य बोध कराने में हम सर्वथा असमर्थ रहे.  मानव जाति में ज्ञानी, अज्ञानी और विज्ञानी तीनों शामिल हैं.  ये तीनों असमर्थ रहे.  यह फैसला नहीं होता है तो हम आगे बढ़ेंगे नहीं।  गुड़ गोबर बनाने वाले काम में ही लगे रहेंगे।  गुड़ गोबर किया तो न गुड़ मिलना है न गोबर मिलना है.

जीवन समझ में आने से जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में मानव का अध्ययन सुलभ हो गया.  शरीर रचना का सामान्य ज्ञान मानव को हो चुका है जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके.  जो थोड़ा बचा होगा उसे आगे पूरा किया जा सकता है, उसमे मैं ज्यादा प्रवृत्त नहीं हूँ.  जीवन की दस क्रियाओं को मानव के आचरण में जाँचा जा सकता है.  हर व्यक्ति जाँच सकता है.  हर व्यक्ति के साथ जीवन है.  मैंने जाँचा, मुझको प्रमाण मिला - मुझे संतुष्टि हो गयी.  प्रमाण की परम्परा बनने के लिए इतना पर्याप्त नहीं है.  हर व्यक्ति जांच सके, इसके लिए हम सूचना देते हैं.  इसी लिए सूचना देते है, नहीं तो काहे के लिए सूचना देते?  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, November 17, 2024

तर्क का प्रयोग एक सीमा तक ही है

प्रश्न: संयम काल में जो आपको दिख रहा था वह सत्य है, न कि आपकी कल्पना - इस पर आपकी निश्चितता कैसे बनी?

उत्तर:  आप अनुभव करके देखलो, यह सत्य है कि नहीं!  अनुभव होने पर ही इसको जांचने की परिस्थिति बनती है.  जैसे मैं जांचता हूँ - सहअस्तित्व में जीने में कौनसी समस्या है?  सार्वभौम व्यवस्था में जीने में कौनसी समस्या है?  प्रमाण का प्रभाव यही है.  

अनुभव को लेकर आनाकानी कर रहे हो.  तर्क समय को खा रहा है.  अनुभव के बाद तर्कसंगत होंगे या अनुभव के पहले तर्कसंगत होंगे?  अध्ययन के लिए जो वस्तु है, वह अपने लिए ज़रुरत है या नहीं है?  ज़रुरत है तो उसे अनुभव किया जाए.  सीधा-सीधा लोक-भाषा तो इतना ही है.

इस बात को आदर्शवादियों ने कहा - शब्द से सत्य बोध होने वाला नहीं है.  "प्रवचने न लभ्यते" - यह लिखा है.  किन्तु विद्वता की अंतिम सीमा बताया - वेदों को रटना और बोलना।  यह गलत हो गया.   मेरा प्रश्न वहीं से है.  इसको तूल देने के लिए मुझे मिला - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो गया?  इस आधार पर मैं तुल गया.  तुलने पर जैसा मैं साधना किया वह आपको बताया।  वह रास्ता रखा ही हुआ है.  वह कहाँ ओझिल हुआ?  यदि उस ढंग से सत्य को पाना चाहते हैं तो वह रास्ता तो रखा ही है.  उस तरह नहीं तो अध्ययन विधि से समझ लो!  अध्ययन विधि से समझना ज्यादा लोगों के लिए सुविधाजनक है.  साधना विधि से समझना सभी के बलबूते का नहीं है.  

साधना के फल को अपनाने में आपको तकलीफ क्या है?  आपको यह समझ में आ गया है कि साधना का यह फल सार्वभौम रूप में सबके लिए आवश्यक है.  अब इसको अपने में संजोने के लिए, स्वत्व बनाने के लिए, तर्क का प्रयोग एक सीमा तक ही है.  इसके लिए अध्ययन विधि मैंने प्रस्तुत किया है.  अध्ययन विधि आपको अनुकूल पड़ रहा है या नहीं?  - यह आपको देखना है.  

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)