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Thursday, December 19, 2024

पदार्थ की परिभाषा

पदार्थ = पद भेद से अर्थ भेद को प्रकट करने वाली वस्तु

पदार्थावस्था में अनेक प्रजाति के परमाणुओं के रूप में अर्थ को व्यक्त किया.   प्राणावस्था में अनेक प्रजाति की वनस्पतियों के रूप में अर्थ को व्यक्त किया।  जीवावस्था में अनेक वंशों के रूप में अर्थ को व्यक्त किया।  मानव में ज्ञान के आधार पर अर्थ को व्यक्त करना शेष है.

इस तरह पदार्थ की परिभाषा में चारों अवस्थाएं आती हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मार्च २००८, अमरकंटक)

Wednesday, December 18, 2024

पारगामीयता और पारदर्शीयता

प्रश्न: ज्ञान की पारगामीयता और पारदर्शीयता को प्रमाणित करने का क्या अर्थ है?

उत्तर:  सर्वत्र एक सा विद्यमान व्यापक वस्तु को ज्ञान नाम दिया है.  व्यापक वस्तु ही मानव में ज्ञान कहलाता है.  ज्ञान न भौतिक वस्तु है, न रासायनिक वस्तु है, न जीवन वस्तु है.  ज्ञान इन तीनों से मुक्त है.  ज्ञान वस्तु में सीमित नहीं होता है.

ज्ञान होता है, यह हम अनुभव करते ही हैं.  दूसरों में यही वस्तु स्वीकार होने पर पहुँचता है - यह ज्ञान की पारगामीयता का प्रमाण है.

दो इकाइयां परस्पर पहचान पाती हैं - यह पारदर्शीयता है.  व्यापक वस्तु पारदर्शी है, इसी कारण एक दूसरे पर परस्परता में प्रतिबिम्बन रहता है.  मानव को इसका ज्ञान होता है.  

मानव ज्ञान के पारगामी और पारदर्शी होने को प्रतिपादित करता है.  इन दोनों के आधार पर अनुभव होने को प्रतिपादित करता है.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

Tuesday, December 10, 2024

संवाद

 प्रकृति सत्ता मे प्रेरणा पाने योग्य स्थिति मे है.  प्रकृति सत्ता मे स्वयं स्फ़ुर्त विधि से, स्वयं प्रवृत्त विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है.  जैसे कपड़ा पानी में भीगता है वैसे... पानी कपड़े को भिगाता नहीं है, भीगने का गुण कपड़े में ही है, पानी - पानी ही है.  उसी प्रकार व्यापक वस्तु ऊर्जा होने के कारण प्रकृति उसमे ऊर्जा संपन्न रहती है.  इसके फलन में प्रकृति में क्रियाशीलता, विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति का प्रकटन होता है.

इस प्रकार मानव जाति द्वारा जीवन को न पहचानने से, जीव को अल्पज्ञ मानने से, जीव को ईश्वर से पैदा हुआ मानने से, और इन सब मान्यताओं का तालमेल न बैठने से मानव जाति को कोई ज्ञान हाथ लगा नहीं।  अतः मानव संतान में न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने में, सही कार्य व्यव्हार प्रमाणित करने और सत्य बोध कराने में हम सर्वथा असमर्थ रहे.  मानव जाति में ज्ञानी, अज्ञानी और विज्ञानी तीनों शामिल हैं.  ये तीनों असमर्थ रहे.  यह फैसला नहीं होता है तो हम आगे बढ़ेंगे नहीं।  गुड़ गोबर बनाने वाले काम में ही लगे रहेंगे।  गुड़ गोबर किया तो न गुड़ मिलना है न गोबर मिलना है.

जीवन समझ में आने से जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में मानव का अध्ययन सुलभ हो गया.  शरीर रचना का सामान्य ज्ञान मानव को हो चुका है जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके.  जो थोड़ा बचा होगा उसे आगे पूरा किया जा सकता है, उसमे मैं ज्यादा प्रवृत्त नहीं हूँ.  जीवन की दस क्रियाओं को मानव के आचरण में जाँचा जा सकता है.  हर व्यक्ति जाँच सकता है.  हर व्यक्ति के साथ जीवन है.  मैंने जाँचा, मुझको प्रमाण मिला - मुझे संतुष्टि हो गयी.  प्रमाण की परम्परा बनने के लिए इतना पर्याप्त नहीं है.  हर व्यक्ति जांच सके, इसके लिए हम सूचना देते हैं.  इसी लिए सूचना देते है, नहीं तो काहे के लिए सूचना देते?  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, November 17, 2024

तर्क का प्रयोग एक सीमा तक ही है

प्रश्न: संयम काल में जो आपको दिख रहा था वह सत्य है, न कि आपकी कल्पना - इस पर आपकी निश्चितता कैसे बनी?

उत्तर:  आप अनुभव करके देखलो, यह सत्य है कि नहीं!  अनुभव होने पर ही इसको जांचने की परिस्थिति बनती है.  जैसे मैं जांचता हूँ - सहअस्तित्व में जीने में कौनसी समस्या है?  सार्वभौम व्यवस्था में जीने में कौनसी समस्या है?  प्रमाण का प्रभाव यही है.  

अनुभव को लेकर आनाकानी कर रहे हो.  तर्क समय को खा रहा है.  अनुभव के बाद तर्कसंगत होंगे या अनुभव के पहले तर्कसंगत होंगे?  अध्ययन के लिए जो वस्तु है, वह अपने लिए ज़रुरत है या नहीं है?  ज़रुरत है तो उसे अनुभव किया जाए.  सीधा-सीधा लोक-भाषा तो इतना ही है.

इस बात को आदर्शवादियों ने कहा - शब्द से सत्य बोध होने वाला नहीं है.  "प्रवचने न लभ्यते" - यह लिखा है.  किन्तु विद्वता की अंतिम सीमा बताया - वेदों को रटना और बोलना।  यह गलत हो गया.   मेरा प्रश्न वहीं से है.  इसको तूल देने के लिए मुझे मिला - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो गया?  इस आधार पर मैं तुल गया.  तुलने पर जैसा मैं साधना किया वह आपको बताया।  वह रास्ता रखा ही हुआ है.  वह कहाँ ओझिल हुआ?  यदि उस ढंग से सत्य को पाना चाहते हैं तो वह रास्ता तो रखा ही है.  उस तरह नहीं तो अध्ययन विधि से समझ लो!  अध्ययन विधि से समझना ज्यादा लोगों के लिए सुविधाजनक है.  साधना विधि से समझना सभी के बलबूते का नहीं है.  

साधना के फल को अपनाने में आपको तकलीफ क्या है?  आपको यह समझ में आ गया है कि साधना का यह फल सार्वभौम रूप में सबके लिए आवश्यक है.  अब इसको अपने में संजोने के लिए, स्वत्व बनाने के लिए, तर्क का प्रयोग एक सीमा तक ही है.  इसके लिए अध्ययन विधि मैंने प्रस्तुत किया है.  अध्ययन विधि आपको अनुकूल पड़ रहा है या नहीं?  - यह आपको देखना है.  

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)


Sunday, October 13, 2024

आचरण की ही परम्परा होती है.

आचरण की ही परम्परा होती है.  मानव के आचरण के तीन आयाम हैं - मूल्य, चरित्र, नैतिकता।  मानवीयता पूर्ण आचरण के आधार पर संविधान, संविधान के आधार पर शिक्षा, शिक्षा के आधार पर व्यवस्था।  इस तरह मानवीयता पूर्ण आचरण पीढ़ी से पीढ़ी होते रहना व्यवस्था का आधार हुआ.  ऐसे मानवीयता पूर्ण आचरण को पहचानने के लिए मैंने परमाणु में निश्चित आचरण की व्यवस्था को देखा, वनस्पतियों में निश्चित आचरण की व्यवस्था को देखा, जीवों में निश्चित आचरण की व्यवस्था को देखा।  मानवीयता पूर्ण आचरण को करके देखा - वह सही निकला।  तब हल्ला करना शुरू किया।  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Saturday, August 31, 2024

साधु लोगों के बारे में

 प्रश्न:  अभी परम्परा में साधु लोगों के बारे में आपका क्या कहना है?

उत्तर:  साधु लोगों की सेवा करने वाले सभी व्यापारी हैं.  उन्ही के संरक्षण में वे रहते हैं.  जहाँ साधु लोग रहना चाहते हैं, उनके लिए वहां व्यापारी लोग रहने-खाने की व्यवस्था बना देते हैं.  इन स्थानों को विहार कहते हैं.  कुछ संस्थाओं में साधुओं के ये विहार राजा-महाराजाओं के महलों से ज्यादा भव्य हैं!  

मूल में इनकी यह मान्यता है कि संसार "टेढ़ा" है.  "टेढ़ा" मतलब - स्वार्थी, पापी और अज्ञानी है.  आदर्शवाद में संसार को त्याग करने के सन्देश का आधार यहीं से है.  अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिए, स्वार्थी को परमार्थी बनाने के लिए, पापी को तारने के लिए धर्म संस्थाओं के करो-न करो के आदेश हैं.  हर समुदाय में:  जिसके पास कुछ है, उसको स्वार्थी बताया।  जिसके पास कुछ भी नहीं है, या बहुत कम है - उसको अज्ञानी बताया।  साधुओं के अलावा बाकी सबको पापी बताया।

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Sunday, July 14, 2024

आत्मा ब्रह्म से नेष्ठ नहीं है

सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य में न्याय और धर्म दोनों समाहित रहते हैं, इसीलिये सत्य में अनुभूत होने वाली बात आती है.  आत्मा सत्य में अनुभूत होता है, फलस्वरूप जीव-जगत सब समझ में आता है, फलस्वरूप हम प्रमाणित होने योग्य हो जाते हैं.  

आत्मा मध्यस्थ क्रिया है, इसलिए उसमे सत्य स्वीकृत होता ही है.  सत्य के अलावा आत्मा को और कुछ स्वीकृत ही नहीं होता।  

प्रश्न:  आपके कथन "आत्मा ब्रह्म से नेष्ठ नहीं है" से क्या आशय है?

उत्तर: ब्रह्म व्यापक है.  आत्मा अनुभव संपन्न होने पर ज्ञान के अर्थ में व्यापक हो ही जाता है.  

आत्मा मध्यस्थ क्रिया होने से, और सत्ता मध्यस्थ होने से - इनकी साम्यता बन गयी.  इसीलिये आत्मा सत्ता में अनुभव होता है.  अनुभव होने के फलस्वरूप परस्परता में सत्य की संप्रेषणा आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही होता है.  इसीलिये आत्मा प्रकृति का अंश परिगणित होते हुए, परमाणु का मध्यांश होते हुए, क्रिया होते हुए, ब्रह्म से नेष्ठ इसीलिये नहीं है क्योंकि आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही सत्य अभिव्यक्त होता है, सम्प्रेषित होता है, प्रकाशित होता है - फलतः प्रमाणित होता है.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक