मानव का व्यक्तित्व उसके आहार, विहार और व्यवहार का संयुक्त स्वरूप है. इसमें से आहार और विहार स्वास्थ्य से सम्बंधित है. स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए मानव को अपने आहार को पहचानने की आवश्यकता है. मानव अपने आहार को अभी तक पहचाना या नहीं पहचाना - पहले इसी को सोच लो! इस बारे में हमारा उद्घोष यही है - "मानव अभी तक मानवीय आहार को पहचाना नहीं है." यह कोई आरोप-प्रत्यारोप नहीं है. यह किसी का पक्ष-विपक्ष नहीं है. मानव को मानवीय आहार को पहचानने की आवश्यकता है या नहीं? - इस बारे में आगे विचार करेंगे.
कुत्ते और मानव के आहार को देखें तो पता लगता है, कुत्ता माँसाहार भी करता है और शाकाहार भी करता है, अभी मानव के आहार के साथ भी वैसा ही है. कुत्ते और मानव के विहार को देखें तो पता चलता है, कुत्ता भी संवेदनशीलता की सीमा में विहार करता है और अभी मानव का विहार भी संवेदनशीलता की सीमा में ही है. अब मानव के आहार-विहार और कुत्ते के आहार-विहार में फर्क क्या हुआ? यह तुलनात्मक विश्लेषण मैंने आपके सोचने के लिए प्रस्तुत किया। मानव ने अपनी आहार-विधि को पहचान लिया है माना जाए या नहीं पहचाना है, माना जाए? इसी आहार विधि को मानव व्यापार में लगाता है, जबकि कुत्ता नहीं लगाता। मानव आहार को पैकेट बना कर, डब्बे में बंद करके व्यापार में लगाता है. कुत्ता यह धंधा नहीं करता। यहाँ से कुत्ते और मानव में अंतर शुरू हुआ. उससे पहले अनिश्चित आहार और संवेदनशीलता सीमा में विहार कुत्ते और मानव में एक जैसा है.
अभी तक मानव न मानवीय आहार को पहचान पाया है, न निष्ठा पूर्वक उसको लेकर चलने में समर्थ हो पाया है. अब कितने युगों तक और इंतज़ार करना है, कि शायद आगे भविष्य में पहचान ले? अब धरती बीमार हो गयी है, और इंतज़ार का आपके पास कितना समय है? यह बात जो मैं कह रहा हूँ यदि झूठ है तो इसको न माना जाए. यदि यह सच है तो इस पर सोचा जाए.
मानवीय आहार और मानवीय विहार के स्वरूप को पहचाने बिना मानव का व्यवस्था में जीना बन नहीं पायेगा। आहार-विहार में ही विचलित हो गया तो इसके बाद कौनसा व्यवस्था में जियेगा?
मानव को जीवों से भिन्न मानवीय स्वरूप में जीने का निर्णय लेना है और उसके अनुसार पालन करना है. पालन करना ही निर्णय हुआ का प्रमाण है.
मेरा जो अनुभव और अभ्यास है, उसके अनुसार मैं कह रहा हूँ - मानव की शरीर-रचना शाकाहारी शरीर के रूप में बनी हुई है. मानव की आँतें, दाँत और नाखून शाकाहारी जीव शरीरों के समान हैं. शाकाहारी जीव होठ से पानी पीते हैं, जबकि मांसाहारी जीव जीभ से पानी पीते हैं. इस प्रकार यदि हम निर्णय कर पाते हैं कि मानव शरीर शाकाहारी जीवों के सदृश है तो हम मानवीय आहार पद्दति को पहचान पाते हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (१९९७, आँवरी)
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