आहार-पद्दति को लेकर मानव अभी तक अनेक प्रकार के अनाजों को पैदा करने की हैसियत पा चुका है. विज्ञान आने के बाद उस हैसियत में कमी हुई है. हमारे देश में विज्ञान के प्रचलन से पहले लगभग ७००० प्रकार के धान थे. अब ७०० से कम ही होंगे। थोड़े दिन बाद बीज केवल विज्ञानियों की प्रयोगशालाओं में ही रह जाएगा, किसानों के पास एक भी बीज नहीं रहेगा। उसकी तैयारी कर ही लिए हैं. इस तरह विज्ञान क्या मानव के लिए उपकारी हुआ या बर्बादी किया - यह सोचना पड़ेगा। विज्ञान से मानव जाति को कोई मदद नहीं हुआ, ऐसा मेरा कहना नहीं है. दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन सम्बन्धी यंत्र-उपकरणों के साकार होने से मानव जाति को गति के सम्बन्ध में बहुत उपकार हुआ है. तर्क संगत विधि से वार्तालाप करने की जो बहुत सारी खिड़कियाँ विज्ञान ने खोली, यह भी उपकार हुआ. इन दो के अलावा यदि और कोई उपकार हुआ होगा तो विज्ञानियों से चर्चा करके हम पहचानेंगे। लेकिन बाकी दिशाओं में जो क्षति हुई है, उसको अनदेखा नहीं किया जा सकता। उपकार जो हुआ उसका मूल्यांकन होना चाहिए, क्षति जो हुई उसकी समीक्षा भी होनी चाहिए। विज्ञान से बर्बादी भी हुआ ही है. प्रयोगशाला में जो उन्नत बीज बनाने का प्रयास किया, उन बीजों की परंपरा नहीं बन पायी, उल्टे प्राकृतिक रूप में बनी बीज परम्पराएं ध्वस्त हो गयी, जिससे किसान खाली बैठने की जगह में आ गया.
इसका उपाय है कि किसान जागरूक हों और अपने खेती के बीजों को संरक्षित करें। इस उपाय को नहीं अपनाते हैं तो किसान विज्ञानियों पर आश्रित हो जाएगा। बीज उनसे नहीं मिला तो दाना नहीं बो पायेगा।
विज्ञान विधि से मानव अपने आहार का निर्णय नहीं कर पाया कि उसे शाकाहारी होना है या माँसाहारी। विज्ञान ने मानव के आहार को लेकर निर्णय पर पहुँचने में अड़चन पैदा किया। विज्ञान ने शाकाहार और माँसाहार की समानता को प्रतिपादित किया, क्योंकि विज्ञान विधि से माँस का परीक्षण करने पर उसमे भी पुष्टि-तत्वों का पहचान होता है - इसमें दो राय नहीं है. शरीर में पुष्टि तत्व का उपयोग होता है जो मांस में परिणित होता है. वही पुष्टि तत्व वनस्पतियों में भी मिलता है. जो लोग वनस्पतियों का सेवन करते हैं उनके शरीर में भी पुष्टि तत्व बनता है और जो लोग माँस का सेवन करते हैं उनमे भी पुष्टि तत्व बनता है.
शाकाहार और माँसाहार को लेकर मेरा मंतव्य "मानसिकता" से सम्बद्ध है. शाकाहार या माँसाहार के सम्बन्ध में निर्णय इस आधार पर है कि मानव को कैसी मानसिकता का होना है. सम्पूर्ण माँसाहार हिंसा और शोषण की मानसिकता की ओर प्रवृत्त करता है. हिंसा और शोषण मानव परंपरा के लिए अत्यंत हानिप्रद है. यह हानिप्रद है - चाहे परिवार के स्तर पर हो, या समाज के स्तर पर हो, या व्यवस्था के स्तर पर हो, या राष्ट्र के स्तर पर हो, या अंतरराष्ट्र के स्तर पर हो. माँसाहार और शाकाहार में पुष्टि-तत्व की समानता को बता कर विज्ञान ने सिर का दर्द पैदा किया। विज्ञान का ऐसा करने का कारण उसका "मानसिकता" के स्वरूप को न पहचान पाना ही है. विज्ञान चैतन्यता को शरीर से भिन्न वस्तु के रूप में नहीं पहचान पाया, इसलिए ऐसी महानतम गलती कर बैठा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी १९९७)
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