"मानवीयता पूर्ण जीवन में सम्पूर्ण भोग अवरीयता के रूप में, दिव्य मानवीयता में नगण्यता के रूप में और अमानवीय जीवन में अतिप्रधान रूप में ज्ञातव्य हैं. यही अमानवीय जीवन में अपव्यय का प्रधान कारण है. व्यवहारिक शिष्टता एवं मूल्यों की उपेक्षा पूर्वक किया गया भोग ही 'अपव्यय' तथा उसमें भोग प्रवृत्ति ही 'प्रमत्तता' है. इसी भोग प्रवृत्ति वश मानव अपारिवारिकता तथा असामाजिकता की ओर उन्मुख है. फलस्वरूप द्रोह, विद्रोह, शोषण है. मानवीय जीवन के लिए भोग प्रवृत्ति से मुक्त होना प्रथम सीढ़ी है." - श्री ए नागराज
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Sunday, January 31, 2016
Thursday, January 28, 2016
आशा, कामना, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति
"मानव शुभ आशा से संपन्न है ही, यही अभ्यास पूर्वक क्रम से कामना, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति सुलभ होता है.
शुभकामना का उदय मानवीयता में ही प्रत्यक्ष होता है, यही प्रेमानुभूति के लिए सर्वोत्तम साधना है.
शुभकामना क्रम से इच्छा में, इच्छा तीव्र-इच्छा में, एवं संकल्प में तथा भासाभास, प्रतीति एवं अवधारणा में स्थापित होता है. फलतः प्रेममयता का अनुभव होता है.
प्रेममयता ही व्यवहार में मंगलमयता एवं अनन्यता को प्रकट करती है, जो अखंड समाज का आधार है. "
- श्री ए नागराज
शुभकामना का उदय मानवीयता में ही प्रत्यक्ष होता है, यही प्रेमानुभूति के लिए सर्वोत्तम साधना है.
शुभकामना क्रम से इच्छा में, इच्छा तीव्र-इच्छा में, एवं संकल्प में तथा भासाभास, प्रतीति एवं अवधारणा में स्थापित होता है. फलतः प्रेममयता का अनुभव होता है.
प्रेममयता ही व्यवहार में मंगलमयता एवं अनन्यता को प्रकट करती है, जो अखंड समाज का आधार है. "
- श्री ए नागराज
Monday, January 4, 2016
मानवीय आहार (भाग-२)
आहार-पद्दति को लेकर मानव अभी तक अनेक प्रकार के अनाजों को पैदा करने की हैसियत पा चुका है. विज्ञान आने के बाद उस हैसियत में कमी हुई है. हमारे देश में विज्ञान के प्रचलन से पहले लगभग ७००० प्रकार के धान थे. अब ७०० से कम ही होंगे। थोड़े दिन बाद बीज केवल विज्ञानियों की प्रयोगशालाओं में ही रह जाएगा, किसानों के पास एक भी बीज नहीं रहेगा। उसकी तैयारी कर ही लिए हैं. इस तरह विज्ञान क्या मानव के लिए उपकारी हुआ या बर्बादी किया - यह सोचना पड़ेगा। विज्ञान से मानव जाति को कोई मदद नहीं हुआ, ऐसा मेरा कहना नहीं है. दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन सम्बन्धी यंत्र-उपकरणों के साकार होने से मानव जाति को गति के सम्बन्ध में बहुत उपकार हुआ है. तर्क संगत विधि से वार्तालाप करने की जो बहुत सारी खिड़कियाँ विज्ञान ने खोली, यह भी उपकार हुआ. इन दो के अलावा यदि और कोई उपकार हुआ होगा तो विज्ञानियों से चर्चा करके हम पहचानेंगे। लेकिन बाकी दिशाओं में जो क्षति हुई है, उसको अनदेखा नहीं किया जा सकता। उपकार जो हुआ उसका मूल्यांकन होना चाहिए, क्षति जो हुई उसकी समीक्षा भी होनी चाहिए। विज्ञान से बर्बादी भी हुआ ही है. प्रयोगशाला में जो उन्नत बीज बनाने का प्रयास किया, उन बीजों की परंपरा नहीं बन पायी, उल्टे प्राकृतिक रूप में बनी बीज परम्पराएं ध्वस्त हो गयी, जिससे किसान खाली बैठने की जगह में आ गया.
इसका उपाय है कि किसान जागरूक हों और अपने खेती के बीजों को संरक्षित करें। इस उपाय को नहीं अपनाते हैं तो किसान विज्ञानियों पर आश्रित हो जाएगा। बीज उनसे नहीं मिला तो दाना नहीं बो पायेगा।
विज्ञान विधि से मानव अपने आहार का निर्णय नहीं कर पाया कि उसे शाकाहारी होना है या माँसाहारी। विज्ञान ने मानव के आहार को लेकर निर्णय पर पहुँचने में अड़चन पैदा किया। विज्ञान ने शाकाहार और माँसाहार की समानता को प्रतिपादित किया, क्योंकि विज्ञान विधि से माँस का परीक्षण करने पर उसमे भी पुष्टि-तत्वों का पहचान होता है - इसमें दो राय नहीं है. शरीर में पुष्टि तत्व का उपयोग होता है जो मांस में परिणित होता है. वही पुष्टि तत्व वनस्पतियों में भी मिलता है. जो लोग वनस्पतियों का सेवन करते हैं उनके शरीर में भी पुष्टि तत्व बनता है और जो लोग माँस का सेवन करते हैं उनमे भी पुष्टि तत्व बनता है.
शाकाहार और माँसाहार को लेकर मेरा मंतव्य "मानसिकता" से सम्बद्ध है. शाकाहार या माँसाहार के सम्बन्ध में निर्णय इस आधार पर है कि मानव को कैसी मानसिकता का होना है. सम्पूर्ण माँसाहार हिंसा और शोषण की मानसिकता की ओर प्रवृत्त करता है. हिंसा और शोषण मानव परंपरा के लिए अत्यंत हानिप्रद है. यह हानिप्रद है - चाहे परिवार के स्तर पर हो, या समाज के स्तर पर हो, या व्यवस्था के स्तर पर हो, या राष्ट्र के स्तर पर हो, या अंतरराष्ट्र के स्तर पर हो. माँसाहार और शाकाहार में पुष्टि-तत्व की समानता को बता कर विज्ञान ने सिर का दर्द पैदा किया। विज्ञान का ऐसा करने का कारण उसका "मानसिकता" के स्वरूप को न पहचान पाना ही है. विज्ञान चैतन्यता को शरीर से भिन्न वस्तु के रूप में नहीं पहचान पाया, इसलिए ऐसी महानतम गलती कर बैठा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी १९९७)
Friday, January 1, 2016
मानवीय आहार (भाग-१)
मानव का व्यक्तित्व उसके आहार, विहार और व्यवहार का संयुक्त स्वरूप है. इसमें से आहार और विहार स्वास्थ्य से सम्बंधित है. स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए मानव को अपने आहार को पहचानने की आवश्यकता है. मानव अपने आहार को अभी तक पहचाना या नहीं पहचाना - पहले इसी को सोच लो! इस बारे में हमारा उद्घोष यही है - "मानव अभी तक मानवीय आहार को पहचाना नहीं है." यह कोई आरोप-प्रत्यारोप नहीं है. यह किसी का पक्ष-विपक्ष नहीं है. मानव को मानवीय आहार को पहचानने की आवश्यकता है या नहीं? - इस बारे में आगे विचार करेंगे.
कुत्ते और मानव के आहार को देखें तो पता लगता है, कुत्ता माँसाहार भी करता है और शाकाहार भी करता है, अभी मानव के आहार के साथ भी वैसा ही है. कुत्ते और मानव के विहार को देखें तो पता चलता है, कुत्ता भी संवेदनशीलता की सीमा में विहार करता है और अभी मानव का विहार भी संवेदनशीलता की सीमा में ही है. अब मानव के आहार-विहार और कुत्ते के आहार-विहार में फर्क क्या हुआ? यह तुलनात्मक विश्लेषण मैंने आपके सोचने के लिए प्रस्तुत किया। मानव ने अपनी आहार-विधि को पहचान लिया है माना जाए या नहीं पहचाना है, माना जाए? इसी आहार विधि को मानव व्यापार में लगाता है, जबकि कुत्ता नहीं लगाता। मानव आहार को पैकेट बना कर, डब्बे में बंद करके व्यापार में लगाता है. कुत्ता यह धंधा नहीं करता। यहाँ से कुत्ते और मानव में अंतर शुरू हुआ. उससे पहले अनिश्चित आहार और संवेदनशीलता सीमा में विहार कुत्ते और मानव में एक जैसा है.
अभी तक मानव न मानवीय आहार को पहचान पाया है, न निष्ठा पूर्वक उसको लेकर चलने में समर्थ हो पाया है. अब कितने युगों तक और इंतज़ार करना है, कि शायद आगे भविष्य में पहचान ले? अब धरती बीमार हो गयी है, और इंतज़ार का आपके पास कितना समय है? यह बात जो मैं कह रहा हूँ यदि झूठ है तो इसको न माना जाए. यदि यह सच है तो इस पर सोचा जाए.
मानवीय आहार और मानवीय विहार के स्वरूप को पहचाने बिना मानव का व्यवस्था में जीना बन नहीं पायेगा। आहार-विहार में ही विचलित हो गया तो इसके बाद कौनसा व्यवस्था में जियेगा?
मानव को जीवों से भिन्न मानवीय स्वरूप में जीने का निर्णय लेना है और उसके अनुसार पालन करना है. पालन करना ही निर्णय हुआ का प्रमाण है.
मेरा जो अनुभव और अभ्यास है, उसके अनुसार मैं कह रहा हूँ - मानव की शरीर-रचना शाकाहारी शरीर के रूप में बनी हुई है. मानव की आँतें, दाँत और नाखून शाकाहारी जीव शरीरों के समान हैं. शाकाहारी जीव होठ से पानी पीते हैं, जबकि मांसाहारी जीव जीभ से पानी पीते हैं. इस प्रकार यदि हम निर्णय कर पाते हैं कि मानव शरीर शाकाहारी जीवों के सदृश है तो हम मानवीय आहार पद्दति को पहचान पाते हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (१९९७, आँवरी)
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