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Saturday, April 18, 2015

ऊर्जा और क्रिया


प्रश्न: ऊर्जा और क्रिया का क्या सम्बन्ध है?

उत्तर: सत्ता साम्य ऊर्जा है, जिसमे सम्पृक्त होने से इकाइयां ऊर्जा-संपन्न हैं. ऊर्जा-संपन्न होने से क्रियाशीलता है. क्रियाशीलता का प्रभाव कार्य-ऊर्जा है. प्रभाव के आधार पर ही फल-परिणाम होता है. प्रभाव से ही सृजन, विसर्जन और विभव क्रियाएँ संपन्न होती हैं.


- श्री ए नागराज की डायरी से (एक पत्र का उत्तर देने के क्रम में - १५-०५-२००७, अमरकंटक)
 

Friday, April 17, 2015

भाव, पूरकता और पहचान

प्रश्न:  "अस्तित्व स्वयं सम्पूर्ण भाव होने के कारण प्रत्येक इकाई में भाव-सम्पन्नता देखने को मिलती है.  मूलतः सहअस्तित्व ही परम भाव होने के कारण अस्तित्व ही परम धर्म हुआ."  यहाँ भाव और सम्पूर्ण भाव से क्या आशय है?

उत्तर:  सूत्र रूप में :- भाव = मौलिकता = स्वभाव

अस्तित्व में व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु होने के कारण उसे "सम्पूर्ण भाव" कहा गया.  व्यापक वस्तु नित्य पारगामी, पारदर्शी भाव संपन्न है.  एक-एक वस्तु चार अवस्थाओं में अपनी अवस्थाओं के अनुसार भाव (स्वभाव) संपन्न है.  पदार्थावस्था में संगठन-विघटन स्वभाव, प्राणावस्था में सारक-मारक स्वभाव, जीवावस्था में क्रूर-अक्रूर स्वभाव, ज्ञानावस्था में धीरता-वीरता-उदारता दया-कृपा-करुणा स्वभाव। 

स्वभाव गति से पूरकता सिद्ध होती है.

प्रश्न: "स्वभाव हर इकाई में मूल्यों के रूप में वर्तता है"
"मूल्य प्रत्येक इकाई में स्थिर होता है"  - यहाँ वर्तने और स्थिरता से क्या आशय है?

उत्तर: वर्तने का मतलब है - वर्तमान रहना।
स्थिरता का मतलब है - निरंतर रहना।

प्रश्न: "अस्तित्व सहअस्तित्व होने के कारण पूरकता और पहचान नित्य सिद्ध होती है."  पूरकता और पहचान से क्या आशय है?

उत्तर: प्रत्येक एक (इकाई) प्रकाशमान है.  प्रकाशित होने का अर्थ है - स्वयं का पहचान प्रस्तुत करना। 

दो परमाणु-अंशों के बीच पहचान होता है तभी परमाणु निश्चित आचरण या व्यवस्था स्वरूप में कार्य करते हुए देखने को मिलता है.  इस तरह परमाणु अंशों में परस्पर पहचान निश्चित आचरण या व्यवस्था के लिए पूरक हुआ. 

इसके उपरान्त, व्यवस्थित परमाणुओं की परस्परता में विकास-क्रम और विकास के रूप में पहचान और पूरकता होना पाया गया.  विकास (गठन-पूर्णता) पहचान और पूरकता के आधार पर ही घटित होना पाया जाता है.

इसी क्रम में मानव अपने मानवत्व के साथ पहचान होने के उपरान्त परस्परता में पूरकता प्रमाणित होना देखा जाता है. 

- श्री ए नागराज की डायरी से (एक पत्र का उत्तर देने के क्रम में - १५-०५-२००७, अमरकंटक)

Wednesday, April 8, 2015

नौकरी की औचित्यता

प्रश्न: स्वावलंबन के लिए नौकरी करना क्या उचित है?

उत्तर: जागृत मानव परंपरा में नौकरी का स्थान शून्य है.  भ्रमित मानव परंपरा में नौकरी के लिए स्वीकृति न्यूनतम श्रम, जिम्मेदारी से अधिकतम दूर रहने, और अधिकतम सुविधा-संग्रह के आधार पर होता आया है.  अभी की स्थिति में जिम्मेदारी से मुक्त सुविधा संपन्न होने की अपेक्षा रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो गयी है.  इसी कारणवश सर्वाधिक समस्याएं देखने को मिल रहा है.

स्वावलम्बन परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिम्मेदारी का वहन है.  परिवार की जिम्मेदारी वहन करने का प्रमाण सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के साथ समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना है.  परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना ही समृद्धि का स्त्रोत है.  इस पर गंभीरता से सोच-विचार करके आचरण करने की आवश्यकता है. 

- श्री ए. नागराज की डायरी से (एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में, १९ जुलाई २००१)

 

Monday, April 6, 2015

देश-काल की सीमा

प्रश्न: आप कहते हैं - "चैतन्य जड़ से बना नहीं है, विकसित हुआ है".   आपने यह भी कहा है - "जड़ परमाणु चैतन्य पद में संक्रमित हो जाता है".   लेकिन आप यह भी कहते हैं - "जड़ और चैतन्य दोनों हमेशा-हमेशा से थे, हमेशा रहेंगे".  इसको समझाइये।

उत्तर: मानव व्यवहार दर्शन में जड़ और चैतन्य की चर्चा करते हुए परमाणु में विकास के नाम से अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है.  उसमें इस बात को स्पष्ट किया है कि विकास-क्रम और विकास मानव को समझ में आता है.  विकसित परमाणु के अर्थ में जीवन क्रियाकलाप प्रमाणित है.   विकासक्रम में भौतिक-रासायनिक क्रियाकलाप प्रमाणित है.  जड़ कब और कैसे चैतन्य होता है? - इस प्रश्न का उत्तर देश और काल की सीमा में आता नहीं है.  हम जो "है" उसका अध्ययन करते हैं.  विकास-क्रम है.  विकास है.  विकास-क्रम और विकास को जोड़ कर देखने से पता लगता है, और हम कह सकते हैं कि जड़ ही चैतन्य हुआ है.  गठन-पूर्णता की यह घटना विकास पूर्वक ही घटित रहना पाया जाता है. 

यह सुनकर विकास को घटित कराने के लिए मानव में प्रवृत्ति होती ही है.  इसके लिए पुनः प्रयोग विधि ही सामने आती है.  प्रयोग विधि देश-काल की सीमा में होती है.  प्रयोग के लिए आपके पास जो साधन हैं, वे यंत्र ही हैं.  जो जिससे बना होता है, वह उससे अधिक होता नहीं है.  मानव जितने भी यंत्र बना पाया है, वे भौतिक संसार से ही बने हैं.  प्राण-संसार के साथ जो प्रयोग हुए हैं, उनका बीज रूप वनस्पति संसार से ही प्राप्त रहना देखा गया है. प्रयोग विधि से विकास (गठनपूर्णता) को सिद्ध नहीं किया जा सकता। 

दूसरे, इस सच्चाई को भी देखा गया है कि अस्तित्व की व्याख्या देश-काल की सीमाओं में हो नहीं पाती।  अस्तित्व की व्याख्या सर्व-देश और सर्व-काल के आधार पर ही है.  देश और काल के आधार पर घटना को पहचानने के क्रम में किसी वस्तु का सच्चाई समझ नहीं आती.  सर्व-देश सर्व-काल के आधार पर सम्पूर्ण वस्तुओं का सच्चाई समझ में आता है.  इस विधि से हम इस निष्कर्ष में आते हैं कि विकास, विकास-क्रम से संक्रमण पूर्वक जुड़ा हुआ है.  यह कब जुड़ा?  यह प्रश्न देश-काल बाधित है.  अतएव इस मुद्दे को अस्तित्व सहज नित्य वर्तमान परक सत्य के रूप में स्वीकारना ठीक होगा। 

- श्री ए नागराज की डायरी से, एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में (१५ मई २००१, अमरकंटक)

चैतन्य पद प्रतिष्ठा

प्रश्न: चैतन्य पद प्रतिष्ठा क्या है?

उत्तर: जड़ प्रकृति परिणामशील है.  हर परिणाम पद अपने में एक यथास्थिति एवं व्यवस्था है.  गठनपूर्ण परमाणु के रूप में परमाणु संक्रमित हुआ रहता है, इसे हम चैतन्य पद कह रहे हैं.  इसके साथ जो प्रतिष्ठा जुडी हुई है वह चैतन्य पद की अक्षुण्णता के अर्थ में है.  एक बार चैतन्य पद में संक्रमित होता है, उसके बाद जड़ पद में वापस लौटता नहीं है.   यह भी स्पष्ट किया है कि चैतन्य परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन से मुक्त रहता है.  जीवन जीने की आशा पूर्वक एक पुन्जाकार कार्य गति पथ को प्रभाव क्षेत्र के रूप में स्थापित करके उस आकार के प्राण कोशाओं से रचित शरीर को स्वयं स्फूर्त संचालित करता है.  जीवन भ्रम वश अपने पुन्जाकार के अनुरूप शरीर को पाकर स्वयं को जीता हुआ मान लेता है, और जब वह शरीर छूट जाता है तो स्वयं को मरा हुआ मान लेता है. 

जीवन का स्वयं को शरीर मान लेना ही भ्रम का स्वरूप है.  मानव परंपरा में शनैः शनैः यह भ्रम आशा बंधन से विचार बंधन, विचार बंधन से इच्छा बंधन होता हुआ आंकलित होता है.  इस भ्रम-बंधन से मुक्ति पाना ही मोक्ष है.  इसीलिये जीवन में, से, के लिए जीवन ज्ञान की आवश्यकता महसूस की गयी.  चैतन्य संसार को अध्ययन गम्य, बोध गम्य कराने के क्रम में चैतन्य पद एवं प्रतिष्ठा को सूत्रित एवं व्याख्यायित किया है. 
 
प्रश्न: परावर्तन और प्रत्यावर्तन को जीवन के सन्दर्भ में समझाएं?

उत्तर: जीवन गति = परावर्तन, जीवन गति के प्रभाव क्षेत्र व्यापी फल-परिणामों को मूल्यांकित करना और स्वीकारना = प्रत्यावर्तन

इसे प्रत्येक व्यक्ति सदा-सदा करता ही रहता है.  इसे आप भी निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं. 

जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव अध्ययन, शोध व अनुसंधान करने में सफल होता आया है.  कुछ भागों में सफल होना अभी शेष है.  जैसे - जीवन गति (या परावर्तन) के संवेदनशीलता सीमा में अनुकूलता-प्रतिकूलता का मूल्यांकन करने में (या प्रत्यावर्तन में) मानव सफल हुआ है, जिसका अध्ययन सुलभ हुआ है, जो आहार-आवास-अलंकार और दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण सम्बन्धी वस्तुओं को प्राप्त कर लेने की सीमा में दृष्टव्य है.  इस तरह मनाकार को साकार करने में जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव सफल हुआ है.

मनः स्वस्थता को परावर्तन-प्रत्यावर्तन पूर्वक प्रमाणित करने में मानव असफल रहा है.  इस रिक्तता को भरने के लिए संज्ञानीयता (सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ) हेतु आवश्यकीय अध्ययन के सन्दर्भ में मध्यस्थ दर्शन प्रस्तुत हुआ है.  इसे प्रत्येक मानव को अध्ययन करना ही होगा। 

- श्री ए नागराज की डायरी से, एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में (२८ अप्रैल २००१, अमरकंटक)