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Friday, May 6, 2011

अनुसंधान, अध्ययन, प्रमाण



अध्ययन करने वाला तुलन, साक्षात्कार और बोध विधि से देखता (समझता) है। अध्ययन कराने वाला अनुभव मूलक विधि से प्रस्तुत होता है। अनुभव की रोशनी में ही सब देखा (समझा) जा सकता है। अनुभव की रोशनी अध्यापन करने वाले के पास रहता है। कल्पनाशीलता जब अनुभव को स्वीकारती है तब वह तदाकार हो जाती है। अध्ययन की प्रक्रिया तो यही है।

सह-अस्तित्व विधि से समझदारी अस्तित्व में है। उसको समझना है, अनुभव करना है, प्रमाणित करना है - इतना ही बात है।

शब्द से अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचानने के लिए मन को लगाना पड़ता है। शब्द से इंगित अस्तित्व में वस्तु को स्वीकारना होता है, तब तदाकार होने की बात आती है। यदि शब्द से कोई वस्तु अस्तित्व में इंगित नहीं होती तो वह शब्द सार्थक नहीं है। वस्तु को स्वीकारते नहीं हैं तो तदाकार नहीं हो पाते। तदाकार होने पर तद्रूप होते ही हैं। उसके लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है - वह परमार्थ ही है।

तदाकार होना ही अध्ययन है। तद्रूप होना ही अनुभव है। तद्रूप होने पर प्रमाण होता ही है, उसके लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। प्रमाण तो व्यक्त होता ही है. जैसे – आप जो पूछते हो, उसका उत्तर मेरे पास रहता ही है। अनुभव-मूलक विधि से व्यक्त होने वाला अध्ययन कराएगा। अनुभव की रोशनी में ही अध्ययन करने वाले का विश्वास होता है। विश्वास के आधार पर ही वस्तु का बोध होता है। वस्तु का बोध होने पर तदाकार हुआ।


प्रश्न:- जीवन-विद्या परिचय-शिविर में सुने प्रस्तावों पर अपनी कल्पनाशीलता को लगाना अनुभव तक पहुँचने के लिए पर्याप्त है, या वांग्मय का अध्ययन करना भी आवश्यक है?

उत्तर: - अध्ययन करना आवश्यक है। अध्ययन पूर्वक ही अनुभव होता है।

प्रश्न:- तो क्या अध्ययन करने के लिए क्या पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है?

उत्तर: - नहीं। समझने की अर्हता सबके पास है, कल्पनाशीलता के आधार पर – चाहे पढ़े-लिखे हों, या न हों। समझाने वाला पढ़े-लिखे को भी समझा सकता है, बिना पढ़े-लिखे को भी समझा सकता है। जो पढ़ा-लिखा नहीं है, वह सुन तो सकता ही है। पढ़ना भी सुनना ही है – उससे अधिक नहीं है। सुनने-पढ़ने के आधार पर हम तर्क करते हैं। तर्क संतुष्ट होने के बाद समझने की इच्छा होती है। समझने के बाद व्यवहार में प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं।

कितने भी तरीके से हम सोचें, लक्ष्य समझदारी का व्यवहार में प्रमाणित होना ही है। इस लक्ष्य को छोड़ कर हम केवल बातों में अपनी बहादुरी को बता सकते हैं। बातों में बहादुरी बताने से मानव तरा नहीं। बातों में बहादुरी दिखाने की वेद-मूर्ती परंपरा से मैं स्वयं निकला था। वेद-मूर्तियों से ज्यादा बोलने वाला संसार में कोई नहीं है। लेकिन उससे कोई प्रयोजन निकला नहीं।

प्रश्न:- जब तक हम अध्ययन के इस वातावरण में रहते हैं, तब तक हमारा मन लगा रहता है. जब यहाँ से दूर जाते हैं – तो ऐसा लगता है जैसे उल्टा ही गियर लग गया हो! ऐसा क्यों है, इसके निदान के लिए क्या करें?
उत्तर: - सुनना और पढ़ना समझना नहीं है। जब तक हमारा ध्यान सुनने और पढ़ने में ज्यादा रहता है, “समझने” में कम रहता है – तब तक ऐसा होता है। सुनने और पढ़ने के साथ-साथ “समझने” का भी प्रयास किया जाए। समझ में आने पर वह भूलता नहीं है, फिर उस समझ को जीना ही होता है। समझने से पहले मानव जीव-चेतना में ही जीता है।


प्रश्न:- अभी तक जो “धर्म-संस्थापक” के नाम से महापुरुष हुए – जैसे बुद्ध, महावीर, यीशु, पैगम्बर मुहम्मद – वे मानव थे, देव-मानव थे, दिव्य-मानव थे, या भ्रमित थे?
उत्तर: - “धर्म-स्थापना” की कल्पना है। धर्म कहाँ “स्थापित” हुआ? धर्म स्थापित हुआ होता तो संसार को बिगाड़ते कैसे? अपनी कल्पनाशीलता की बदौलत “धर्म” शब्द को हम पाए जरूर हैं – लेकिन “धर्म” शब्द के अर्थ में हम जीते नहीं हैं।

प्रश्न:- आपको जो दर्शन हुआ, वह भूतकाल में इस धरती पर किसी को हुआ या नहीं?

उत्तर: - मैं यह नहीं कह सकता। यदि हुआ भी हो तो उसका प्रमाण तो वर्तमान में नहीं है। “ मुझसे पहले किसी को अनुभव नहीं हुआ” – यह कहने का अधिकार मेरे पास नहीं है। परम्परा में प्रमाण नहीं हुआ – यह मैं कह सकता हूँ। प्रमाण के लिए ही मैंने अनुसंधान किया, प्रमाणित होने के लिए ही हम काम कर रहे हैं।

प्रश्न:- आपको जो दर्शन हुआ, वह भविष्य में किसी को होगा या नहीं?

उत्तर: - अध्ययन करने वाले सभी को यह अस्तित्व-दर्शन होगा। अध्ययन किये बिना किसी को अस्तित्व-दर्शन नहीं होगा।

प्रश्न: शरीर छोड़ने के बाद जीवन की भ्रम और जागृति को लेकर क्या स्थिति होती है?

उत्तर: - जीते समय जीवन जितना भ्रमित रहता है, उतना ही भ्रमित शरीर छोड़ने के बाद भी रहता है। जीते समय जीवन जितना जागृत रहता है, उतना ही जागृत शरीर छोड़ने के बाद भी रहता है। जीवन शरीर छोड़ते समय शरीर-यात्रा का समीक्षा करता है, इसमें जो भी वह गलती स्वीकारता है उसको भूल कर अगली शरीर-यात्रा शुरू करता है। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जीना जागृति है। जीव-चेतना में जीना भ्रम है। जीव-चेतना में न्याय पूर्वक जीना बनता नहीं है।

प्रश्न: एक जागृत-जीवन को अपनी अगली शरीर-यात्रा में क्या फिर अनुसंधान या अध्ययन करने की आवश्यकता है?
उत्तर: - जागृत-जीवन द्वारा भी शरीर छोड़ने के बाद दुबारा शरीर लेने पर समझना तो फिर से पड़ेगा ही। ऐसे जीवन द्वारा परंपरा में यदि जागृति होगा तो परंपरा से जल्दी समझना होगा, परपरा में जागृति नहीं होगा तो पुनः अनुसंधान करना होगा।

हर जीवन जागृति के लिए तृषित है। परंपरा से यदि जागृति नहीं मिलती है तो जो लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद मिलता है – उसी में जीना होता है। उससे जीवन को संतुष्टि होता नहीं है। जीवन-संतुष्टि का प्रावधान मानव-परंपरा में हो, उसके लिए मैंने यह प्रस्ताव मानव-जाति के सम्मुख रखा है।

समझना या अनुभव करना हर व्यक्ति के वश का है। परंपरा में समझदारी का प्रावधान न होने के कारण मानव भ्रम में रहने के लिए विवश है।

प्रश्न: एक बार मानव द्वारा अनुभव-संपन्न होने के बाद उसका दूसरी शरीर-यात्रा में फिर से अनुसंधान करना क्यों आवश्यक है?
उत्तर: - शरीर के साथ तदाकार हुए बिना संवेदनाएं व्यक्त होते नहीं हैं। दूसरी शरीर-यात्रा शुरू करने पर कल्पनाशीलता शरीर के साथ ही तदाकार होगी। ऐसे में जीवन द्वारा ज्ञान को स्वीकारने के लिए अनुसंधान या अध्ययन की आवश्यकता रहेगी ही।

अनुसन्धान तब आवश्यक है जब परंपरा में जागृति का प्रमाण पहुँचता नहीं है। परंपरा में जागृति का प्रमाण नहीं है तो अनुसंधान के अलावा और क्या रास्ता है? जैसे - मेरे द्वारा किये गए अनुसंधान की यदि परंपरा नहीं बनती है या इसको परंपरा में स्थापित करने के लिए मानव तैयार नहीं होते हैं, और मैं यदि इसी धरती पर मानव को मदद करना चाहूंगा, तो मैं अगली शरीर-यात्रा में पुनः अनुसंधान करूँगा ही। ऐसे में अनुभव स्वयं (जीवन) में बना रहेगा, पर उस अनुभव को कल्पनाशीलता द्वारा प्रकट करने के लिए अनुसंधान करना ही होगा। समाधि-संयम पूर्वक ही अनुसंधान होगा।

परंपरा में कमी होती है तभी अनुसंधान करने की बात होती है। जिस परंपरा में मैं जन्मा उसमें मुझे कमी लगी, उससे मैं पीड़ित हुआ, फलस्वरूप तीव्र-इच्छा से मैंने समाधान को चाहा, तभी मैंने अनुसंधान किया।

यदि परंपरा में जागृति का प्रमाण पहुँचता है तो हमको दुबारा अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में पुनः शरीर-यात्रा करते समय में जो परंपरा से प्रमाण मिलता है उसको अध्ययन और अभ्यास करने की आवश्यकता है।

प्रश्न:- आपने जो यह अनुसंधान किया उसको करने से पहले आप क्या पहले से अनुभव-संपन्न “थे” या “नहीं थे”?
उत्तर: - इस अनुसंधान को करने से पहले मैं अनुभव-संपन्न “था” या “नहीं था”, उसका कोई प्रमाण नहीं है। जिस परिवार-परंपरा में मैं पैदा हुआ उसमे भी किसी ने प्रमाण प्रस्तुत किया नहीं। इसी लिए मैं अपने प्रयास को “अनुसंधान” कहता हूँ। प्रमाण-विहीन कोई बात मैं कर नहीं सकता।

प्रश्न: इसका मतलब क्या यह है – परंपरा यदि जागृत न हो तो चाहे उसमे अनुभव-संपन्न व्यक्ति हो या न हो, पुनः अनुसंधान करने की आवश्यकता होगी?
उत्तर: - हाँ। व्यक्ति कोई जागृत हुआ या नहीं हुआ – इसको तब तक कहा नहीं जा सकता जब तक परंपरा में प्रमाण न हो। अनुसंधान करना एक हिम्मत की बात है। हर कोई व्यक्ति अनुसंधान करेगा नहीं। अध्ययन सभी के लिए एक सुलभ मार्ग है। इसी आधार पर अब हम ईमानदारी के साथ बात कर सकते हैं। इस आधार के बिना ईमानदारी के साथ बात करने का कोई तरीका ही नहीं बनता।

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, बांदा)

4 comments:

VISHVAS said...
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Gopal Bairwa said...
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Rakesh Gupta said...
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Rakesh Gupta said...
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