सापेक्षता में छोटा-बड़ा बना रहता है - सम्पूर्णता ओझिल हो जाती है। सापेक्षवाद के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन में प्रस्तावित है : -
(१) होना
(२) सम्पूर्णता के साथ होना
(३) पूर्णता के साथ होना
"होने" के स्वरूप में जड़-चैतन्य प्रकृति है। "होना" = अस्तित्व = सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति
"होने" का अध्ययन है। प्रवृत्ति "होने" के अनुसार है। "होने" में "सम्पूर्णता" की प्रवृत्ति है, और "पूर्णता" की प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति इतना ही है।
चारों अवस्थाओं का "सम्पूर्णता" के साथ होना समझ में आता है। प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है। इकाई + वातावरण = सम्पूर्ण। हर वस्तु स्वयं से अपने वातावरण को निष्पन्न करता ही है। जैसे - इस धरती का एक वातावरण है। एक परमाणु का भी एक वातावरण है। सभी वस्तुएं अपने वातावरण को निष्पन्न करती हैं। इसलिए हरेक वस्तु के वातावरण में अनेक वस्तुएं आती हैं।
हर वस्तु अपने वातावरण सहित सम्पूर्णता सहज वैभव होता है। वैभव होने से पूरकता-उपयोगिता सिद्ध होती है।
यह मूल मन्त्र है। यह मूल बात समझ में आने पर छोटे-बड़े या सापेक्षता का कोई मतलब ही नहीं निकलता। जैसे - एक छोटा पत्थर, एक बड़ा पत्थर। छोटे पत्थर की अपनी उपयोगिता है। बड़े पत्थर की अपनी उपयोगिता है। उपयोगिता के आधार पर इनकी पहचान करनी है, या इनके आकार के आधार पर? प्रत्येक रासायनिक-भौतिक वस्तुएं अपनी सम्पूर्णता में काम करते हैं - अपनी उपयोगिता/पूरकता को प्रमाणित करते हैं।
तीसरे - "पूर्णता" के साथ होना। गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता। तीन पूर्णता की स्थितियां बनती हैं। पहले गठन में पूर्णता, फिर क्रिया में पूर्णता, फिर आचरण में पूर्णता। यह जीवन में होना देखा गया।
जड़ प्रकृति के साथ सम्पूर्णता की बात है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) के साथ पूर्णता-त्रय की बात है। जड़ ही विकसित हो कर चैतन्य बना है। यही परमाणु में विकास है। परमाण्विक-स्तर पर पूर्णता की बात है। जीवन स्वरूप में गठन-पूर्णता है, जीवन-जागृति स्वरूप में क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता है। जीवन वंशानुशंगियता को जीवावस्था में प्रमाणित करता है। भौतिक रासायनिक संसार जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर के रूप में है। इस तरह भौतिक-रासायनिक संसार गठन-पूर्णता का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है। मनुष्य में ही गुणात्मक-परिवर्तन पूर्वक क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता को प्रमाणित करने का अवसर है। यह अवसर कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में है। जीवन ही ज्ञान, विवेक, विज्ञान को ज्ञान-अवस्था में प्रमाणित करता है।
सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। एक दूसरे की उपयोगिता-पूरकता साथ में जीने, और साथ-साथ होने के स्वरूप में है। इतना बड़ा यह धरती, धरती पर ही वनस्पति, धरती पर ही जीव-संसार, धरती पर ही मनुष्य। यदि बड़े द्वारा छोटे को खाने वाली बात होती तो इतना सब प्रकटन होना ही नहीं चाहिए था। मनुष्य का ही अकल बिगड़ा है - बाकी सब अपने नियम से काम कर रहे हैं। हर वस्तु में "स्वभाव गति" नाम की चीज होता है। एक परमाणु में भी, मानव में भी। स्वभाव-गति विधि से हम समाधानित रहते हैं। पूर्णता में समाधान समाया रहता है। मनुष्य समाधान स्वरूप में अपनी स्वभाव-गति को प्रमाणित करता है। स्वभाव-गति प्रतिष्ठा हर जड़-चैतन्य वस्तु का स्वत्व है। उसमें से मानव अपनी स्वभाव-गति को पहचानने में पीछे रहा है। स्वभाव-गति को पहचानने पर विज्ञान में जिसको ज्ञान मानते रहे, उसकी निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
(१) होना
(२) सम्पूर्णता के साथ होना
(३) पूर्णता के साथ होना
"होने" के स्वरूप में जड़-चैतन्य प्रकृति है। "होना" = अस्तित्व = सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति
"होने" का अध्ययन है। प्रवृत्ति "होने" के अनुसार है। "होने" में "सम्पूर्णता" की प्रवृत्ति है, और "पूर्णता" की प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति इतना ही है।
चारों अवस्थाओं का "सम्पूर्णता" के साथ होना समझ में आता है। प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है। इकाई + वातावरण = सम्पूर्ण। हर वस्तु स्वयं से अपने वातावरण को निष्पन्न करता ही है। जैसे - इस धरती का एक वातावरण है। एक परमाणु का भी एक वातावरण है। सभी वस्तुएं अपने वातावरण को निष्पन्न करती हैं। इसलिए हरेक वस्तु के वातावरण में अनेक वस्तुएं आती हैं।
हर वस्तु अपने वातावरण सहित सम्पूर्णता सहज वैभव होता है। वैभव होने से पूरकता-उपयोगिता सिद्ध होती है।
यह मूल मन्त्र है। यह मूल बात समझ में आने पर छोटे-बड़े या सापेक्षता का कोई मतलब ही नहीं निकलता। जैसे - एक छोटा पत्थर, एक बड़ा पत्थर। छोटे पत्थर की अपनी उपयोगिता है। बड़े पत्थर की अपनी उपयोगिता है। उपयोगिता के आधार पर इनकी पहचान करनी है, या इनके आकार के आधार पर? प्रत्येक रासायनिक-भौतिक वस्तुएं अपनी सम्पूर्णता में काम करते हैं - अपनी उपयोगिता/पूरकता को प्रमाणित करते हैं।
तीसरे - "पूर्णता" के साथ होना। गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता। तीन पूर्णता की स्थितियां बनती हैं। पहले गठन में पूर्णता, फिर क्रिया में पूर्णता, फिर आचरण में पूर्णता। यह जीवन में होना देखा गया।
जड़ प्रकृति के साथ सम्पूर्णता की बात है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) के साथ पूर्णता-त्रय की बात है। जड़ ही विकसित हो कर चैतन्य बना है। यही परमाणु में विकास है। परमाण्विक-स्तर पर पूर्णता की बात है। जीवन स्वरूप में गठन-पूर्णता है, जीवन-जागृति स्वरूप में क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता है। जीवन वंशानुशंगियता को जीवावस्था में प्रमाणित करता है। भौतिक रासायनिक संसार जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर के रूप में है। इस तरह भौतिक-रासायनिक संसार गठन-पूर्णता का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है। मनुष्य में ही गुणात्मक-परिवर्तन पूर्वक क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता को प्रमाणित करने का अवसर है। यह अवसर कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में है। जीवन ही ज्ञान, विवेक, विज्ञान को ज्ञान-अवस्था में प्रमाणित करता है।
सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। एक दूसरे की उपयोगिता-पूरकता साथ में जीने, और साथ-साथ होने के स्वरूप में है। इतना बड़ा यह धरती, धरती पर ही वनस्पति, धरती पर ही जीव-संसार, धरती पर ही मनुष्य। यदि बड़े द्वारा छोटे को खाने वाली बात होती तो इतना सब प्रकटन होना ही नहीं चाहिए था। मनुष्य का ही अकल बिगड़ा है - बाकी सब अपने नियम से काम कर रहे हैं। हर वस्तु में "स्वभाव गति" नाम की चीज होता है। एक परमाणु में भी, मानव में भी। स्वभाव-गति विधि से हम समाधानित रहते हैं। पूर्णता में समाधान समाया रहता है। मनुष्य समाधान स्वरूप में अपनी स्वभाव-गति को प्रमाणित करता है। स्वभाव-गति प्रतिष्ठा हर जड़-चैतन्य वस्तु का स्वत्व है। उसमें से मानव अपनी स्वभाव-गति को पहचानने में पीछे रहा है। स्वभाव-गति को पहचानने पर विज्ञान में जिसको ज्ञान मानते रहे, उसकी निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)