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Monday, October 18, 2021

स्वयंस्फूर्त विधि से ही सर्वशुभ का कार्यक्रम चल सकता है.

मानव को विधिवत अर्थोपार्जन भी करना चाहिए और विधिवत अर्थ का सदुपयोग भी करना चाहिए.


आज की स्थिति में विधिवत अर्थोपार्जन का स्वरूप परम्परा में है ही नहीं.  लेकिन आज की स्थिति में आप उचित/अनुचित जैसे भी अर्थोपार्जन किये, उसको सदुपयोग करना आपके अधिकार में है.  आगे चल के विधिवत उपार्जन की बात भी सोचा जाए, किया जाए.  दोनों को एक साथ नहीं कर सकते, इसलिए यह मध्यम मार्ग निकल गया.  प्राप्त अर्थ का दुरूपयोग के स्थान पर आप सदुपयोग कर सकते हैं.  परिवार के जो आपके दायित्व हैं, उनको पूरा करते हुए घायल विहीन विधि से हमे चलना है.  इसमें परिवार में किसी बच्चे, बूढ़े, पत्नी, पति की उपेक्षा की बात कहीं आता ही नहीं है.  सर्वसम्मति से पूरे परिवार की सम्मति से ही गति है.  परिवार की ही सहमति न हो तो गति कहाँ है?  नारी को पीछे छोड़ के जो राजा बनने निकले, वो सब कचड़ा हो गए.  यह काफी सोचने का मुद्दा है.


जाग्रति के कार्यक्रम में कहीं भी घायल हो कर कोई काम नहीं करेगा.  स्वयं स्वीकृत विधि से, स्वयम स्फूर्त विधि से, स्वयं उत्साह विधि से हर व्यक्ति जाग्रति के कार्यक्रम को करेगा.  स्वयंस्फूर्त होने पर किसी से शिकायत करने का कोई आधार ही नहीं है.  मैं भी इसी विधि से चला हूँ, इसीलिये इतना ठोस विधि से मैं बात करता हूँ.  स्वयंस्फूर्त विधि से ही सर्वशुभ का कार्यक्रम चल सकता है.  लदाऊ-फंसाऊ विधि से सर्वशुभ हो ही नहीं सकता.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

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