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Friday, November 29, 2019

एक मार्मिक बात

हम जब अपने समझे होने की घोषणा कर देते हैं उसके बाद हम सबके लिए शोध की वस्तु हो जाते हैं.  आप मेरे पास इसीलिये आये हो क्योंकि मैं घोषणा किया हूँ कि सभी समस्याओं का समाधान मेरे पास है.  हर बात का आप परीक्षण करते हो और वो आपको करना भी चाहिए - ऐसा मेरा स्वीकृति है.  इस परीक्षण को करने पर आगे यह आपका स्वत्व हो सकता है, यह मेरी शुभकामना है.  आप यदि सही ढंग से जांचते हो, शोध करते हो तो यह पूरा प्रस्तुति आपका स्वत्व हो सकता है.  इस आधार पर आपका और हमारा एक resonance बना हुआ है - जो संगीत है, अपेक्षा है, सम्भावना है और उत्साह है.  इसमें कहीं भी विश्रंखलता होती है तो उत्साह भंग होता है.  ऐसा भी हमारे बीच कभी-कभी हुआ है.  इसमें मैंने निर्णय लिया कि आपका उत्साह भंग करना मेरा काम नहीं है, आपका उत्साह वर्धन करना मेरा काम है.  आप उसको स्वागत करने योग्य हुए, इस आधार पर हम आगे काम कर रहे हैं.

जब मैंने अपने समझे होने की घोषणा के साथ शुरू किया था तब एक भी व्यक्ति समझने को तैयार नहीं था.  उस समय मेरे अन्तःकरण में उदय हुआ - "आदमी समझता है, मैं समझा नहीं पा रहा हूँ."  इससे अनेक प्रकार से समझाने की विधि आ गयी.  समझ वही है, समझाने के तरीके अनेक हैं - हर तरीके से उसी बिंदु पर मैं ले आता हूँ.  कोई कहीं से भी हो उसको अपनी बात संप्रेषित करना मुझसे बन गया.  उससे बहुत लाभ हुआ.  संसार में किसी को ऐसा न माना जाए कि यह समझ नहीं सकता, यह सुधर नहीं सकता.  कोई हमारे कितने भी विरोध में गया हो, यह मानना कि कल इनको यह समझना ही पड़ेगा.  उसमे अपना कार्यक्रम बना रहता है.  यदि हम मान लेते हैं कि सामने वाला समझ नहीं सकता तो हमारा कार्यक्रम बंद हो जाता है. 

- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

व्यापारिक अस्मिता से दर्शन संप्रेषित नहीं हो सकता.



व्यापारिक भाषा का स्वरूप ही है - "सामने व्यक्ति को निरर्थक बताना और स्वयं को सार्थक बताना."  व्यापार का स्वरूप ही ऐसा है.  व्यापारिकता में "हम ऊपर हैं" - ऐसा बताने का प्रयास रहता है.  हर व्यापारी अपने को ऊपर और बाकियों को नीचे मानता है.  रास्ते पर स्टाल लगाने वाला टटपूंजिया भी मिल के मालिक से अपने को ऊपर मान कर बात करता है.  व्यापारिक अस्मिता की रेखाएं ही ऐसी बनी हैं!  दार्शनिक भाषा का स्वरूप है - "सभी सार्थक हो सकते हैं, सभी सार्थक हैं, सभी सार्थक होना चाहते हैं."  दर्शन जीने से जुड़ा है.  हर व्यक्ति सही जी सकता है, सही जी रहा है, सही जीने का प्रयत्न कर रहा है".  इन तीन खाकों में हर व्यक्ति है.  तभी संसार से मंगल मैत्री हो सकता है.  इस पर हम स्वयं का अच्छे से शोध कर सकते हैं.  व्यापारिक भाषा और दार्शनिक भाषा के आशय में भेद है.  व्यापारिक भाषा का आशय है - लाभ पैदा करना.  दार्शनिक भाषा का आशय है - सर्वशुभ होना.  दोनों में अंतर है!  व्यापारिक भाषा इस दर्शन से जुड़ता नहीं है.  यह पूरा दर्शन सर्वमानव के अनुभव, विचार, व्यव्हार और कार्य से सम्बद्ध है.  व्यव्हार में मानव चेतना के प्रमाण और कार्य में व्यवस्था के प्रमाण के लिए हम जुड़ते हैं.

आपकी भाषा आपकी अस्मिता से जुडी है.  आप जो अभी तक व्यापार का जो अभ्यास किये हो उससे आपकी कुछ अस्मिता बनी ही है.  वह अस्मिता इस दर्शन को संप्रेषित करने में न झलके!  व्यापारिक अस्मिता से दर्शन संप्रेषित नहीं हो सकता.  आपकी सम्प्रेष्णा में अस्मिता या अहंकार का पुट न हो!  अभी जैसे आगे आप इस दर्शन को इन्टरनेट और अंग्रेजी में रखने का सोच रहे हो - उसमे ऐसा कोई भी बात नहीं आना चाहिए कि इसको दूसरा कोई नहीं कर सकता था.  भाषांतरण करने में आप जितना विनम्र विधि से काम करोगे, उतना ज्यादा वह प्रभावशील होगा.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Monday, November 18, 2019

अध्ययन से आचरण की प्रवृत्ति बनती है.


"आचरण ही अपने में पूरी बात है" - ऐसा बता कर सही जीने का मॉडल बनेगा नहीं. 

विगत में (आदर्शवाद में) कहा - "आचरण पहले, विचार बाद में".  उस विधि से वे अनुकरणीय हो नहीं पाए.  जबकि विगत में अच्छे लोग नहीं हुए, ऐसा कहा नहीं जा सकता.

यहाँ मध्यस्थ दर्शन में कह रहे हैं - अध्ययन से आचरण की प्रवृत्ति बनती है.  अध्ययन आचरण के लिए प्रथम सीढ़ी है.  अध्ययन के बिना आचरण को अंतिम बात मान लिया तो वो गड़बड़ हो गया. 

प्रश्न:  आदर्शवादी विधि में आचरण पहले बताने का क्या स्वरूप रहा?

उत्तर:  निषेध बता कर विधि को इंगित करना - यह तरीका रहा.  जैसे - दूसरों को पीड़ा नहीं पहुँचाओ, चोरी मत करो, आदि.  सही आचरण क्या है - उसके लिए अध्ययन कहाँ दिया? वह तो रिक्त पड़ा है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)