- श्रद्देय नागराज जी के साथ संवाद (जनवरी २००७, अमरकंटक)
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
ANNOUNCEMENTS
Monday, January 15, 2018
Sunday, January 14, 2018
The Responsibility of Universities
The universities all over the world, like millstones around our neck, are the culprit for Earth's present suffering condition, and now it is their direct responsibility for saving it as well. Only upon reaching this point will they be able to take Madhyasth Darshan forward. We will then offer the whole curriculum of Madhyasth Darshan to them. It will be the next step of what you have started with it on internet. We will make the Humane Conduct (manviyata poorna acharan) as the reference for "Model of a Man". Human race shall become liberated from crime and sectarian divisions only after getting such education. Human tendency of interfering with Earth cannot stop until they become liberated from their mindset of criminality.
It is these universities where the mindset of criminality has germinated. These universities alone have thrust whole human race into a maniacal pursuit of profit, sex and consumption. This madness has entered into everyone's head and is making them dance to its tune! We need to highlight this. The universities have been promoters of crime, and its result is every human being has become a criminal. Now if the same universities resolve for liberation from crime then we have a proposal for them which is about study of human being, study of existence, and thereby becoming clear about humane conduct and evidencing it in living. I am asking you to present it with such incisiveness that just listening to it once would be enough to penetrate one's heart! "That's absolutely right!" - that's the kind response it should evoke.
If these universities incorporate "consciousness development - value education" along with technical education, then the students will testify their having become evidence or capable of evidencing. The graduate studies shall provision evidencing technical training and the values of human consciousness. I may be saying it to happen at the graduate level today, but in future the children will attain this capability sooner. In this way, the number of years for completing education will reduce in future. The present education framework just keeps on increasing the number of years of education. Understanding of "right" doesn't take long, while the narrative of "wrong" doesn't become complete even after decades. Every proposal of animal consciousness remains under dispute. The narrative of dispute keeps on stretching. The proposal of meaningfulness reaches the point of fulfillment. Fulfillment is a point. Now you need to decide - whether you want to live for fulfillment or keep languishing in disputes and arguments.
- Based on Dialogue with Shree A. Nagraj (January 2007, Amarkantak)
It is these universities where the mindset of criminality has germinated. These universities alone have thrust whole human race into a maniacal pursuit of profit, sex and consumption. This madness has entered into everyone's head and is making them dance to its tune! We need to highlight this. The universities have been promoters of crime, and its result is every human being has become a criminal. Now if the same universities resolve for liberation from crime then we have a proposal for them which is about study of human being, study of existence, and thereby becoming clear about humane conduct and evidencing it in living. I am asking you to present it with such incisiveness that just listening to it once would be enough to penetrate one's heart! "That's absolutely right!" - that's the kind response it should evoke.
If these universities incorporate "consciousness development - value education" along with technical education, then the students will testify their having become evidence or capable of evidencing. The graduate studies shall provision evidencing technical training and the values of human consciousness. I may be saying it to happen at the graduate level today, but in future the children will attain this capability sooner. In this way, the number of years for completing education will reduce in future. The present education framework just keeps on increasing the number of years of education. Understanding of "right" doesn't take long, while the narrative of "wrong" doesn't become complete even after decades. Every proposal of animal consciousness remains under dispute. The narrative of dispute keeps on stretching. The proposal of meaningfulness reaches the point of fulfillment. Fulfillment is a point. Now you need to decide - whether you want to live for fulfillment or keep languishing in disputes and arguments.
- Based on Dialogue with Shree A. Nagraj (January 2007, Amarkantak)
Thursday, January 11, 2018
Tuesday, January 9, 2018
Sunday, January 7, 2018
विज्ञान और ईश्वरवाद का उपकार
ज्यादा पढ़ा, मतलब ज्यादा सुविधा-संग्रह की प्यास
कम पढ़ा, मतलब कम सुविधा-संग्रह की प्यास
ज्यादा पढ़ा, मतलब ज्यादा confusion
कम पढ़ा, मतलब कम confusion
ज्यादा पढ़ा हो या कम पढ़ा हो - दोनों भ्रमित हैं! जागृत होने के लिए दोनों को समान रूप से परिश्रम करना पड़ेगा.
'ज्ञानी' जिनको कहते हैं वे भी भ्रमित हैं
'विज्ञानी' जिनको कहते हैं वे भी भ्रमित हैं
'अज्ञानी' जिनको कहते हैं वे तो भ्रमित हैं ही!
तीनो को समान रूप से जागृति के लिए परिश्रम करने की आवश्यकता है.
इसमें एक बात देखा गया - जो लोग विज्ञान के स्वर में आ गए हैं, उनमे detail में जाने की एक खूबी है. ये लोग तर्क संगत विधि से बात करना सीखे हैं. यह उपकार हुआ.
दूसरे, ईश्वरवाद ने यह सन्देश दिया है कि "संवेदनशीलता जीना नहीं है. जीना क्या है - उसके लिए आपको सोचना ही होगा." इतना वे चेता कर गए हैं. इतना उपकार वे कर गए तभी तो हम आगे का काम कर पाए! नहीं तो कहाँ से करते?
अभी आप में भी जिज्ञासा का शुरुआत यहीं से होगा. संवेदनशीलता जीने की जगह नहीं है - इस बात को स्वीकारे बिना जिज्ञासा जन्मता ही नहीं है.
भौतिकवाद ने तर्क संगत विधि से वस्तु को समझना सिखाया है. दूसरे, भौतिकवादियों से दूर संचार प्रक्रिया मिली है, जो व्यवस्था में उपयोगी है. भौतिकवादियों ने युद्ध सामग्री जो तैयार की, वह व्यवस्था में उपयोगी नहीं है. इस तरह हम निष्कर्ष पर आये - विज्ञान का तकनीकी पक्ष ठीक है, ज्ञान पक्ष ठीक नहीं है. विज्ञान ने अस्थिरता-अनिश्चयता प्रतिपादित किया है, यहाँ हम स्थिरता-निश्चयता प्रतिपादित कर रहे हैं.
मानव समाप्त हो सकता है पर अस्तित्व मिटता नहीं है और जीवन मरता नहीं है. जीवन और अस्तित्व को जोड़ने वाला वस्तु है - रासायनिक क्रियाकलाप. रासायनिक क्रियाकलाप से ही प्राणकोषा, और प्राणकोषा से रचित शरीर रचना का प्रकटन हुआ. ये होने के बाद ही जीवन और शरीर का योग होता है. जब कभी भी किसी धरती पर यह योग होना समाप्त हो जाता है तब वहां रासायनिक क्रियाकलाप लुप्त हो जाता है, भौतिक स्वरूप में वापस हो जाता है. पदार्थावस्था से प्राणावस्था और प्राणावस्था से पुनः पदार्थावस्था के बीच आवर्तनशीलता ही प्राणपद चक्र है.
मानव सुख धर्मी है, इसलिए उसमे अपेक्षा है - सुख-शान्ति से रहने की. मानव मनः स्वस्थता का आशावादी है. सर्वतोमुखी समाधान ही सुख है. सर्वतोमुखी समाधान आता है - सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान से.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Saturday, January 6, 2018
Friday, January 5, 2018
विश्वविद्यालयों का दायित्व
जितने भी विश्वविद्यालय इस धरती की छाती पर कोदो दर रहे हैं - वे यदि स्वीकार पाते हैं कि उन्ही के चलते यह धरती बीमार हुई है और अब इस धरती को बचाने का दायित्व भी उन्ही का है, इस जगह में आने के बाद ही वे मध्यस्थ दर्शन के इस प्रस्ताव को सही से वहन कर सकते हैं. तब हम उनके लिए इस प्रस्ताव का पूरा पाठ्यक्रम प्रस्तुत करेंगे. अभी इन्टरनेट में इसका जो बीज डाले हो, उसका वह अगली कड़ी होगा. इसमें हम मानव के मापदंड (Model of a Man) को मानवीयता पूर्ण आचरण में ध्रुवीकृत करेंगे. ऐसी शिक्षा को प्राप्त करके मानव जाति अपराध-मुक्त होगी और अपने-पराये की दीवारों से मुक्त होगी. मानव के अपराध मुक्त हुए बिना उसका धरती को तंग करने का प्रवृत्ति समाप्त नहीं हो सकता. मानव जाति में अपराध प्रवृत्ति का अंकुरण और पोषण इन्ही विश्वविद्यालयों द्वारा हुआ है. इन्ही विश्वविद्यालयों ने लाभोंमाद, कामोन्माद और भोगोंमाद स्वरूपी भूतों को पूरी मानव जाति पर चढ़ाया है. वही सबकी खोपड़ी में घुसा है और नचा रहा है. इसको हमे उभार कर आगे लाना है. विश्वविद्यालय स्वयं अपराध के प्रवर्तक रहे हैं, फलस्वरूप मानव अपराध में लग गए. अभी वही विश्वविद्यालय यदि अपराध मुक्त होने के लिए संकल्पित हों तो उनके लिए प्रस्ताव है - जिसमे मानव का अध्ययन है और अस्तित्व का अध्ययन है, जिससे मानवीयता पूर्ण आचरण स्पष्ट होना है और जीने में प्रमाणित होना है. इसको इतने पैनेपन से प्रस्तुत करो कि एक बार सुनने पर ही वह भीतर घुस जाए! यह सही है! - स्वीकार हो जाये.
यदि विश्वविद्यालयों में तकनीकी शिक्षा के साथ चेतना विकास - मूल्य शिक्षा का समावेश होता है तो उनके स्नातक उत्सव में विद्यार्थी स्वयं अपने समझे होने का सत्यापन करेंगे, साथ ही सत्यापन करेंगे कि वे प्रमाणित हैं या प्रमाणित होने के योग्य हैं. स्नातक कक्षा में तकनीकी शिक्षा और मानव चेतना सहज मूल्यों को प्रमाणित करने का प्रावधान रहेगा. अभी इसको मैं स्नातक कक्षा में कह रहा हूँ, आगे चल के इससे पहले ही यह योग्यता हासिल हो जायेगी. इस रास्ते में आगे चल के शिक्षा की अवधि घटेगी, जबकि अभी के ढाँचे-खांचे शिक्षा की अवधि को बढाए जा रहे हैं. चेतना विकास होने से सहीपन को समझने में देर नहीं लगती. गलती का ताना-बाना दीर्घकाल तक भी पूरा नहीं होता. जीव चेतना में हर बात विवादित रहती है, विवाद की गलती का पुलिंदा बढ़ता ही जाता है. सार्थकता की बात संतुष्टि तक पहुँचता है, जो एक बिंदु है. अब आपको तय करना है - संतुष्टि के लिए जीना है या गलती/विवाद में जीना है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Thursday, January 4, 2018
Wednesday, January 3, 2018
शिक्षा में इस प्रस्ताव को ले जाने का सही तरीका
प्रश्न: अभी के प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में इस प्रस्ताव को ले जाने का सही तरीका क्या है?
उत्तर: आज के समय व्यवसायिक शिक्षा प्रचलित है, व्यवहारिक शिक्षा नहीं है. व्यवसायिक शिक्षा का मतलब है - व्यापार और नौकरी. अभी के सभी शिक्षित लोग व्यापार और नौकरी के अर्थ में ही हैं. जो अशिक्षित हैं वे भी व्यापार और नौकरी ही करना चाहते हैं. अब यहाँ हम समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने को कह रहे हैं. इस दर्शन को जब भी शिक्षा में प्रस्तुत करें - विकल्प स्वरूप में ही करें. विकल्प नहीं रखते हैं तो गुड-गोबर ही होगा.
प्रश्न: हम सोचते हैं जितने के लिए अभी के लोग राजी हैं उतने को अभी रख देते हैं, आगे चल के पूरी बात बता देंगे! लेकिन आप कहते हैं - पहले विकल्प रखो! पूरी बात को स्पष्ट करो! तो क्या ऐसे देर नहीं हो जायेगी?
उत्तर: विकल्प की स्पष्टता के साथ ही लोकस्वीकृति होगी. स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करने की बात है. अभी आप सोचते हो - विकल्प को स्पष्ट करोगे तो लोकस्वीकृति नहीं होगी! यही अंतर है आप में और मुझ में.
लोगों की मंशा के अनुसार अगर आप इस प्रस्ताव को ले जाना चाहते हो, तब तो इसकी ज़रुरत ही नहीं है. इसको विकल्प स्वीकारते हो तो इसकी ज़रुरत है. यदि इसको विकल्प स्वीकारते नहीं हो तो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी जिसको मूल्य शिक्षा माना है, उसे ही आप भी बताओगे. जबकि हमारे अनुसार वह लफंगाई है. अपनी बात को स्पष्ट रखने की आवश्यकता है या नहीं?
मानव का अध्ययन होना चाहिए और मानवीयता का संरक्षण होना चाहिए. भौतिकवाद और आदर्शवाद से यह हो नहीं पाया. इसके बावजूद यदि हम उसी पृष्ठभूमि में चलेंगे तो वह महान गलती होगी या नहीं?
विकल्प को प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं तो यह गलती है. विकल्प को प्रस्तुत करने के लिए हिम्मत चाहिए. इस प्रस्ताव को सम्मानजनक विधि से संसार में ले जाना होगा.
आदर्शवाद और भौतिकवाद के चलते सम्पूर्ण मानव जाति अपराध में फंस चुका है. इसीलिये इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करते समय पूछना आवश्यक है - "अपराध से छूटना चाहते हैं या नहीं?"
हमारे प्रस्ताव का लक्ष्य क्या है, यह पहले स्पष्ट करना आवश्यक है. फिर वो लक्ष्य सुनने वाले की ज़रुरत है या नहीं? - उससे यह पूछना आवश्यक है. उसके बाद यह पूछना है - इस लक्ष्य के अर्थ में हमारा प्रस्ताव पूरा पड़ता है या नहीं?
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
उत्तर: आज के समय व्यवसायिक शिक्षा प्रचलित है, व्यवहारिक शिक्षा नहीं है. व्यवसायिक शिक्षा का मतलब है - व्यापार और नौकरी. अभी के सभी शिक्षित लोग व्यापार और नौकरी के अर्थ में ही हैं. जो अशिक्षित हैं वे भी व्यापार और नौकरी ही करना चाहते हैं. अब यहाँ हम समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने को कह रहे हैं. इस दर्शन को जब भी शिक्षा में प्रस्तुत करें - विकल्प स्वरूप में ही करें. विकल्प नहीं रखते हैं तो गुड-गोबर ही होगा.
प्रश्न: हम सोचते हैं जितने के लिए अभी के लोग राजी हैं उतने को अभी रख देते हैं, आगे चल के पूरी बात बता देंगे! लेकिन आप कहते हैं - पहले विकल्प रखो! पूरी बात को स्पष्ट करो! तो क्या ऐसे देर नहीं हो जायेगी?
उत्तर: विकल्प की स्पष्टता के साथ ही लोकस्वीकृति होगी. स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करने की बात है. अभी आप सोचते हो - विकल्प को स्पष्ट करोगे तो लोकस्वीकृति नहीं होगी! यही अंतर है आप में और मुझ में.
लोगों की मंशा के अनुसार अगर आप इस प्रस्ताव को ले जाना चाहते हो, तब तो इसकी ज़रुरत ही नहीं है. इसको विकल्प स्वीकारते हो तो इसकी ज़रुरत है. यदि इसको विकल्प स्वीकारते नहीं हो तो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी जिसको मूल्य शिक्षा माना है, उसे ही आप भी बताओगे. जबकि हमारे अनुसार वह लफंगाई है. अपनी बात को स्पष्ट रखने की आवश्यकता है या नहीं?
मानव का अध्ययन होना चाहिए और मानवीयता का संरक्षण होना चाहिए. भौतिकवाद और आदर्शवाद से यह हो नहीं पाया. इसके बावजूद यदि हम उसी पृष्ठभूमि में चलेंगे तो वह महान गलती होगी या नहीं?
विकल्प को प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं तो यह गलती है. विकल्प को प्रस्तुत करने के लिए हिम्मत चाहिए. इस प्रस्ताव को सम्मानजनक विधि से संसार में ले जाना होगा.
आदर्शवाद और भौतिकवाद के चलते सम्पूर्ण मानव जाति अपराध में फंस चुका है. इसीलिये इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करते समय पूछना आवश्यक है - "अपराध से छूटना चाहते हैं या नहीं?"
हमारे प्रस्ताव का लक्ष्य क्या है, यह पहले स्पष्ट करना आवश्यक है. फिर वो लक्ष्य सुनने वाले की ज़रुरत है या नहीं? - उससे यह पूछना आवश्यक है. उसके बाद यह पूछना है - इस लक्ष्य के अर्थ में हमारा प्रस्ताव पूरा पड़ता है या नहीं?
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
Tuesday, January 2, 2018
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