प्रश्न: अभी के प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में इस प्रस्ताव को ले जाने का सही तरीका क्या है?
उत्तर: आज के समय व्यवसायिक शिक्षा प्रचलित है, व्यवहारिक शिक्षा नहीं है. व्यवसायिक शिक्षा का मतलब है - व्यापार और नौकरी. अभी के सभी शिक्षित लोग व्यापार और नौकरी के अर्थ में ही हैं. जो अशिक्षित हैं वे भी व्यापार और नौकरी ही करना चाहते हैं. अब यहाँ हम समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने को कह रहे हैं. इस दर्शन को जब भी शिक्षा में प्रस्तुत करें - विकल्प स्वरूप में ही करें. विकल्प नहीं रखते हैं तो गुड-गोबर ही होगा.
प्रश्न: हम सोचते हैं जितने के लिए अभी के लोग राजी हैं उतने को अभी रख देते हैं, आगे चल के पूरी बात बता देंगे! लेकिन आप कहते हैं - पहले विकल्प रखो! पूरी बात को स्पष्ट करो! तो क्या ऐसे देर नहीं हो जायेगी?
उत्तर: विकल्प की स्पष्टता के साथ ही लोकस्वीकृति होगी. स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करने की बात है. अभी आप सोचते हो - विकल्प को स्पष्ट करोगे तो लोकस्वीकृति नहीं होगी! यही अंतर है आप में और मुझ में.
लोगों की मंशा के अनुसार अगर आप इस प्रस्ताव को ले जाना चाहते हो, तब तो इसकी ज़रुरत ही नहीं है. इसको विकल्प स्वीकारते हो तो इसकी ज़रुरत है. यदि इसको विकल्प स्वीकारते नहीं हो तो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी जिसको मूल्य शिक्षा माना है, उसे ही आप भी बताओगे. जबकि हमारे अनुसार वह लफंगाई है. अपनी बात को स्पष्ट रखने की आवश्यकता है या नहीं?
मानव का अध्ययन होना चाहिए और मानवीयता का संरक्षण होना चाहिए. भौतिकवाद और आदर्शवाद से यह हो नहीं पाया. इसके बावजूद यदि हम उसी पृष्ठभूमि में चलेंगे तो वह महान गलती होगी या नहीं?
विकल्प को प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं तो यह गलती है. विकल्प को प्रस्तुत करने के लिए हिम्मत चाहिए. इस प्रस्ताव को सम्मानजनक विधि से संसार में ले जाना होगा.
आदर्शवाद और भौतिकवाद के चलते सम्पूर्ण मानव जाति अपराध में फंस चुका है. इसीलिये इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करते समय पूछना आवश्यक है - "अपराध से छूटना चाहते हैं या नहीं?"
हमारे प्रस्ताव का लक्ष्य क्या है, यह पहले स्पष्ट करना आवश्यक है. फिर वो लक्ष्य सुनने वाले की ज़रुरत है या नहीं? - उससे यह पूछना आवश्यक है. उसके बाद यह पूछना है - इस लक्ष्य के अर्थ में हमारा प्रस्ताव पूरा पड़ता है या नहीं?
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
उत्तर: आज के समय व्यवसायिक शिक्षा प्रचलित है, व्यवहारिक शिक्षा नहीं है. व्यवसायिक शिक्षा का मतलब है - व्यापार और नौकरी. अभी के सभी शिक्षित लोग व्यापार और नौकरी के अर्थ में ही हैं. जो अशिक्षित हैं वे भी व्यापार और नौकरी ही करना चाहते हैं. अब यहाँ हम समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने को कह रहे हैं. इस दर्शन को जब भी शिक्षा में प्रस्तुत करें - विकल्प स्वरूप में ही करें. विकल्प नहीं रखते हैं तो गुड-गोबर ही होगा.
प्रश्न: हम सोचते हैं जितने के लिए अभी के लोग राजी हैं उतने को अभी रख देते हैं, आगे चल के पूरी बात बता देंगे! लेकिन आप कहते हैं - पहले विकल्प रखो! पूरी बात को स्पष्ट करो! तो क्या ऐसे देर नहीं हो जायेगी?
उत्तर: विकल्प की स्पष्टता के साथ ही लोकस्वीकृति होगी. स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करने की बात है. अभी आप सोचते हो - विकल्प को स्पष्ट करोगे तो लोकस्वीकृति नहीं होगी! यही अंतर है आप में और मुझ में.
लोगों की मंशा के अनुसार अगर आप इस प्रस्ताव को ले जाना चाहते हो, तब तो इसकी ज़रुरत ही नहीं है. इसको विकल्प स्वीकारते हो तो इसकी ज़रुरत है. यदि इसको विकल्प स्वीकारते नहीं हो तो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी जिसको मूल्य शिक्षा माना है, उसे ही आप भी बताओगे. जबकि हमारे अनुसार वह लफंगाई है. अपनी बात को स्पष्ट रखने की आवश्यकता है या नहीं?
मानव का अध्ययन होना चाहिए और मानवीयता का संरक्षण होना चाहिए. भौतिकवाद और आदर्शवाद से यह हो नहीं पाया. इसके बावजूद यदि हम उसी पृष्ठभूमि में चलेंगे तो वह महान गलती होगी या नहीं?
विकल्प को प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं तो यह गलती है. विकल्प को प्रस्तुत करने के लिए हिम्मत चाहिए. इस प्रस्ताव को सम्मानजनक विधि से संसार में ले जाना होगा.
आदर्शवाद और भौतिकवाद के चलते सम्पूर्ण मानव जाति अपराध में फंस चुका है. इसीलिये इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करते समय पूछना आवश्यक है - "अपराध से छूटना चाहते हैं या नहीं?"
हमारे प्रस्ताव का लक्ष्य क्या है, यह पहले स्पष्ट करना आवश्यक है. फिर वो लक्ष्य सुनने वाले की ज़रुरत है या नहीं? - उससे यह पूछना आवश्यक है. उसके बाद यह पूछना है - इस लक्ष्य के अर्थ में हमारा प्रस्ताव पूरा पड़ता है या नहीं?
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
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