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Friday, January 5, 2018

विश्वविद्यालयों का दायित्व



जितने भी विश्वविद्यालय इस धरती की छाती पर कोदो दर रहे हैं - वे यदि स्वीकार पाते हैं कि उन्ही के चलते यह धरती बीमार हुई है और अब इस धरती को बचाने का दायित्व भी उन्ही का है, इस जगह में आने के बाद ही वे मध्यस्थ दर्शन के इस प्रस्ताव को सही से वहन कर सकते हैं.  तब हम उनके लिए इस प्रस्ताव का पूरा पाठ्यक्रम प्रस्तुत करेंगे.  अभी इन्टरनेट में इसका जो बीज डाले हो, उसका वह अगली कड़ी होगा.  इसमें हम मानव के मापदंड (Model of a Man) को मानवीयता पूर्ण आचरण में ध्रुवीकृत करेंगे.  ऐसी शिक्षा को प्राप्त करके मानव जाति अपराध-मुक्त होगी और अपने-पराये की दीवारों से मुक्त होगी.  मानव के अपराध मुक्त हुए बिना उसका धरती को तंग करने का प्रवृत्ति समाप्त नहीं हो सकता.  मानव जाति में अपराध प्रवृत्ति का अंकुरण और पोषण इन्ही विश्वविद्यालयों द्वारा हुआ है.  इन्ही विश्वविद्यालयों ने लाभोंमाद, कामोन्माद और भोगोंमाद स्वरूपी भूतों को पूरी मानव जाति पर चढ़ाया है.  वही सबकी खोपड़ी में घुसा है और नचा रहा है.  इसको हमे उभार कर आगे लाना है.  विश्वविद्यालय स्वयं अपराध के प्रवर्तक रहे हैं, फलस्वरूप मानव अपराध में लग गए.  अभी वही विश्वविद्यालय यदि अपराध मुक्त होने के लिए संकल्पित हों तो उनके लिए प्रस्ताव है - जिसमे मानव का अध्ययन है और अस्तित्व का अध्ययन है, जिससे मानवीयता पूर्ण आचरण स्पष्ट होना है और जीने में प्रमाणित होना है.  इसको इतने पैनेपन से प्रस्तुत करो कि एक बार सुनने पर ही वह भीतर घुस जाए!  यह सही है! - स्वीकार हो जाये.

यदि विश्वविद्यालयों में तकनीकी शिक्षा के साथ चेतना विकास - मूल्य शिक्षा का समावेश होता है तो उनके स्नातक उत्सव में विद्यार्थी स्वयं अपने समझे होने का सत्यापन करेंगे, साथ ही सत्यापन करेंगे कि वे प्रमाणित हैं या प्रमाणित होने के योग्य हैं.  स्नातक कक्षा में तकनीकी शिक्षा और मानव चेतना सहज मूल्यों को प्रमाणित करने का प्रावधान रहेगा.  अभी इसको मैं स्नातक कक्षा में कह रहा हूँ, आगे चल के इससे पहले ही यह योग्यता हासिल हो जायेगी.  इस रास्ते में आगे चल के शिक्षा की अवधि घटेगी, जबकि अभी के ढाँचे-खांचे शिक्षा की अवधि को बढाए जा रहे हैं.  चेतना विकास होने से सहीपन को समझने में देर नहीं लगती.  गलती का ताना-बाना दीर्घकाल तक भी पूरा नहीं होता.  जीव चेतना में हर बात विवादित रहती है, विवाद की गलती का पुलिंदा बढ़ता ही जाता है.  सार्थकता की बात संतुष्टि तक पहुँचता है, जो एक बिंदु है.  अब आपको तय करना है - संतुष्टि के लिए जीना है या गलती/विवाद में जीना है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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