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Saturday, January 21, 2017

प्रतीक प्राप्ति नहीं है



"सर्व धर्म सम भाव" एक आदर्शवादी भाषा है, उसको पाने की उम्मीद में आज भी कुछ लोग लगे हैं.  आधे लोग भाषा में फंसे हैं, आधे पैसे को लेकर फंसे हैं. 

प्रश्न:  पैसे के बिना काम कैसे चलेगा?

उत्तर: मानलो आपके पास एक खोली भर के नोट हों.  तो भी उससे आप एक कप चाय नहीं बना सकते, एक चींटी तक का पेट उससे नहीं भर सकता।  यदि वस्तु नहीं है तो ये नोट या पैसे किसी काम के नहीं हैं.  नोट केवल कागज़ का पुलिंदा है, जिस पर छापा लगा है.  छापाखाने  में छापा लगा देने भर से कागज़ वस्तु में नहीं बदल जाता। 

वस्तु को कोई आदमी ही पैदा करता है.  वस्तु का मूल्य होता है.  नोट पर कुछ संख्या लिखा रहता है.  आज की स्थिति में मूल्यवान वस्तु के बदले में ऐसे संख्या लिखे कागज़ (नोट) को पाकर उत्पादक अपने को धन्य मानता है.  यह बुद्धूबनाओ अभियान है या नहीं? 

नोट अपने में कोई तृप्ति देने वाला वस्तु नहीं है.  संग्रह करें तब भी नहीं, खर्च करें तब भी नहीं।  नोट का संग्रह कभी तृप्ति-बिंदु तक पहुँचता नहीं है.  नोट खर्च हो जाएँ तो उजड़ गए जैसा लगता है.  नोट से कैसे तृप्ति पाया जाए?  वस्तु से ही तृप्ति मिलती है.  वस्तु से ही हम समृद्ध होते हैं, नोट से हम समृद्ध नहीं होते। 

प्रश्न:  तो हम नोट पैदा करने के लिए भागीदारी करें या वस्तु पैदा करने के लिए भागीदारी करें?

उतर: अभी सर्वोच्च बुद्धिमत्ता वाले सभी लोग नोट पैदा करने में लगे हैं.  सारा नौकरी और व्यापार का प्रपंच नोट पैदा करने के लिए बना है.  कोई वस्तु पैदा कर भी रहा है तो उसका उद्देश्य नोट पैदा करना ही है. 

इसीलिये सूत्र दिया - "प्रतीक प्राप्ति नहीं है, उपमा उपलब्धि नहीं है."

कभी कभी मैं सोचता हूँ परिस्थितियों ने मानव को बिलकुल अंधा कर दिया है.  मुद्रा (पैसे) के चक्कर में उत्पादक को घृणास्पद और उपभोक्ता को पूजास्पद माना जाता है.  उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता - इनके लेन-देन में लाभ-हानि का चक्कर है.  उत्पादक लाभ में है या हानि में?  व्यापारी लाभ में है या हानि में?  उपभोक्ता लाभ में है या हानि में?  इसको देखने पर पता चलता है - व्यापारी ही फायदे में है!  नौकरी क्या है?  व्यापार को घोड़ा बना के सवारी करना नौकरी है.  इस तरह नहले पर दहला लगते लगते हम कहाँ पहुँच गए?  ऐसे में मानव न्याय के पास आ रहा है या न्याय से दूर भाग रहा है.   इस मुद्दे पर सोचने पर लगता है - मानव न्याय से कोसों दूर भाग चुका है. 

यह एक छोटा सा निरीक्षण का स्वरूप है.  थोड़ा सा हम ध्यान दें तो यह सब हमको समझ में आता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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