मानव संवाद करता ही है. मानव आपस में संवाद (बातचीत) न करे - ऐसा होता नहीं। मानव आपस में "विचार" को लेकर कुछ बातचीत करते हैं, "प्रमाणित करने" को लेकर कुछ बातचीत करते हैं, और "जीने" को लेकर कुछ बातचीत करते हैं. सारा विचार प्रमाणित होने में, और सारा प्रमाण जीने में समाहित हो जाता है.
प्रश्न: आपका यहाँ "जीने" से क्या आशय है?
उत्तर: कायिक-वाचिक-मानसिक कृत-कारित-अनुमोदित इन ९ भेदों से मानव जीता है. इन ९ विधाओं में जीता हुआ एक मानव दूसरे को पहचान सकता है और स्वयं अपना भी मूल्यांकन कर सकता है. मानसिकता का ही प्रकाशन वाचिक और कायिक स्वरूप में होता है. कायिक, वाचिक और मानसिक ये तीनो अविभाज्य हैं. मानव प्रधान रूप से कभी मानसिक, कभी वाचिक और कभी कायिक होता है. एक प्रधान रूप में रहता है, दो उसके साथ शामिल रहते हैं.
प्रश्न: मानव के जीने में कोई बात "मानसिक" स्वरूप में हो पर "कायिक" या "वाचिक" स्वरूप में न हो - क्या यह हो सकता है?
उत्तर: यह जीव चेतना पर्यन्त होता है. यही दोहरा व्यक्तित्व का आधार है. जीवचेतना में ऐसा सोच विचार हो सकता है, जिसको बताने में शर्म आती हो. फिर उसको छुपाने का प्रयास होता है. मानवचेतना में जो सोचा उसको न बता सकें, ऐसा कोई विचार ही नहीं आता. मानव चेतना में विचारने, बोलने और करने में कोई अवरोध नहीं है. जीव चेतना में अवरोध रहता है.
प्रश्न: जीव चेतना में मानव के जीने में इस अवरोध का कारण कैसे बनता है?
उत्तर: जीव चेतना में मानव जीवों से "अच्छा" जीना चाहता है पर उसकी मानसिकता में "अच्छा" का कोई मॉडल नहीं रहता। जीव चेतना में जीते हुए मानव का विचार और अपेक्षा गुणात्मक रूप में जीवों से भिन्न नहीं है. बोलने में मानव अच्छा ही बोलता है लेकिन मानसिकता में अच्छा रहता नहीं है. यही मजबूरी है. कितना भी आदमी लीपापोती कर ले, जीव चेतना पर्यन्त ये मजबूरी रहेगा ही!
वचन विधा में मानव अव्यवस्था का पक्षधर नहीं है. लेकिन उसकी मानसिकता में व्यवस्था का कोई मॉडल नहीं है. इसी आधार पर ये अवरोध बन गए.
अभी तक परंपरा मानसिकता में सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल देने में असमर्थ रहा. सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल न ईश्वरवादी विधि से मिलता है, न भौतिकवादी विधि से. सहअस्तित्ववादी विधि से सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल आ गया.
प्रश्न: मानसिकता में सार्वभौम व्यवस्था का मॉडल क्या है?
उत्तर: पहला - मानवीयता पूर्ण आचरण। दूसरा - मानवीयता पूर्ण व्यवस्था। तीसरा - मानवीयता पूर्ण शिक्षा। और चौथा - मानवीय आचार संहिता रुपी संविधान
आचरण, व्यवस्था, शिक्षा और संविधान - इन चारों आयामो में एक सूत्रता होने पर मानसिकता इसमें बन सकता है. यही व्यवस्थात्मक मानसिकता या जागृत मानसिकता है. यह शिक्षा विधि से एक से दूसरे व्यक्ति में अंतरित होता है.
प्रश्न: मानसिकता का शिक्षा विधि से कैसे एक से दूसरे व्यक्ति में अंतरण होता है?
उत्तर: इस मानसिकता को लेकर पहले वचन के स्तर पर (अध्यापक और विद्यार्थी) एकात्म होते हैं. फिर वचन के अर्थ में जाते हैं (तो पुनः एकात्म होते हैं), और यह मानसिकता फिर से prove हो जाता है. फिर उसको व्यवहार में लाने जाते हैं (और पुनः एकात्म होते हैं) तो यह मानसिकता एक बार और prove हो जाता है. ऐसा हो जाने पर मानसिकता आचरण में आ जाता है. इस ढंग से अनुभव तक पहुँचने की व्यवस्था बनी हुई है.
पहले हमको मानसिकता में तैयार होना होगा। मानसिकता में तैयार होते हैं तो वाचिक और कायिक उसके अनुसार चलता ही है. इसी लिए मैं कहता हूँ - "विचारम प्रथमो धर्मः आचरण तदनंतरम" (विचार पहले, आचरण उसके बाद में!) यह विगत में जो कहे "आचरण प्रथमो धर्मः विचारम तदन्तरम" (आचरण पहले, विचार उसके बाद में!) से बिल्कुल उल्टा हो गया. दूसरे विगत में कहा था - "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या", जबकि यहाँ कह रहे हैं - "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत". इन दोनों मुद्दों पर परंपरा में "परिवर्तन" का सारा सूत्र टिका है. यह बात यदि हाथ लगती है तो परंपरा में "अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था" की सूत्र-व्याख्या होगी, जिससे अपराध-मुक्ति और अपने-पराये से मुक्ति होगी।
मानवीयता पूर्ण आचरण, शिक्षा, व्यवस्था और संविधान की ज़रुरत है या नहीं? इसके लिए अपने को अर्पण-समर्पण करना है या नहीं? - यह आपके लिए सोचने का मुद्दा है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७)