ANNOUNCEMENTS



Saturday, November 15, 2014

नित्य वर्तमान

अस्तित्व में सत्ता स्वयं ही मध्यस्थ है क्योंकि सम्पूर्ण प्रकृति सत्ता में सम्पृक्त विधि से ही नित्य वर्तमान है.  इसी विधि से  अस्तित्व सहज पूर्णता सहअस्तित्व रूप में नित्य वर्तमान होना स्पष्ट है.  सत्ता स्थिति पूर्ण होना देखा गया है.  स्थितिपूर्णता का वैभव पारगामीयता और पारदर्शीयता के रूप में दृष्टव्य है. 

सत्तामयता का प्रभाव पारगामीयता और पारदर्शीयता के रूप में व्यक्त है. 

सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अविभाज्य है.  यह अविभाज्यता निरंतर है.  इसीलिये सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति नित्य वर्तमान ही है.  अस्तित्व स्वयं भाग-विभाग नहीं होता है इसीलिये अस्तित्व अखंड-अक्षत होना समझ में आता है.  प्रमुख अनुभव यही है कि सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनंत रूप में दिखाई पड़ती है.  ये सब (प्रकृति की इकाइयां) भाग-विभाग के रूप में ही सत्ता में दिखाई पड़ती हैं.  इसे सटीक इस प्रकार देखा गया है - व्यवस्था का भाग-विभाग होता नहीं।  अस्तित्व ही व्यवस्था का स्वरूप है

सत्ता में होने के कारण हर वस्तु सत्ता में भीगा, डूबा, घिरा दिखाई पड़ता है.  ऐसे दिखने वाली वस्तु में स्वयंस्फूर्त विधि से क्रियाशीलता वर्तमान है.  यह क्रियाशीलता गति, दबाव, प्रभाव के रूप में देखने को मिलता है.  दूसरे विधि से सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति ही स्थिति-गति, परस्परता में दबाव, तरंग पूर्वक आदान-प्रदान सहज विधि से पूरकता, उद्दात्तीकरण, रचना-विरचना के रूप में होना देखने को मिलता है.  और परमाणु में विकास (गठन पूर्णता)  चैतन्य पद में संक्रमण, जीवन पद प्रतिष्ठा होना देखा गया है.   जीवन और रासायनिक-भौतिक पदों के लिए परमाणु ही मूल तत्व होना समझ में आता है.  सत्ता में सम्पृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति में व्यवस्था के मूल तत्व के रूप में परमाणु को देखा जाता है. 

सहअस्तित्व ही अनुभव करने योग्य सम्पूर्ण वस्तु है.  सहअस्तित्व में अनुभव होने की स्थिति में सत्तामयता ही व्यापक होने के कारण अनुभव की वस्तु बनी ही रहती है.  इसी वस्तु में सम्पूर्ण इकाइयाँ दृश्यमान रहते ही हैं. परम सत्य  सहअस्तित्व में जब अनुभूत होते हैं, उसी समय सत्तामयता में अभिभूत होना स्वाभाविक है.  अभिभूत होने का तात्पर्य सत्ता पारगामी, व्यापक, पारदर्शी होना अनुभव में आता है.  अनुभव करने वाला वस्तु जीवन ही होता है.  सत्तामयता पारगामी होने का अनुभव ही प्रधान तथ्य है. 

सत्ता में अनुभव के उपरान्त ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा निरंतर होना देखा गया है.  इसी अनुभव के अनन्तर सह-अस्तित्व सहज सम्पूर्ण दृश्य, जीवन प्रकाश में समझ आता है.  जीवन प्रकाश का प्रयोग अर्थात परावर्तन, अनुभव मूलक विधि से प्रामाणिकता के रूप में बोध, संकल्प क्रिया सहित मानव परंपरा में परावर्तित होता है.  जागृतिपूर्ण जीवन क्रियाकलाप अनुभवमूलक ज्ञान को सदा-सदा के लिए व्यवहार और प्रयोगों में प्रमाणित कर देता है.  यही मानव परंपरा सहज आवश्यकता है. 

- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से 

अनुसन्धान का मूल

(मध्यस्थ दर्शन के) इस अनुसन्धान के मूल में रूढ़ियों के प्रति अविश्वास, कट्टरपंथ के प्रति अविश्वास रहा है.  सार रूप में वेदान्त रूप में "मोक्ष और बंधन" पर जो कुछ भी वांग्मय उपलब्ध है, इस पर हुई शंका।  परिणामतः निदिध्यासन, समाधि, मनोनिरोध, दृष्टाविधि के लिए जो कुछ भी उपदेश हैं उसी के आधार पर प्रयत्न और अभ्यास किया गया.  निर्विचार स्थिति को प्राप्त करने के बाद परंपरा जिसको समाधि, निदिध्यासन, पूर्ण बोध, निर्वाण कुछ भी नाम लिया है, इसी स्थली में मूल शंका का उत्तर नहीं मिल पाया।  परिणामतः इसके विकल्प के लिए तत्पर हुए.  पूर्ववर्ती इशारों के अनुसार 'संयम' का एक ध्वनि थी.  उस ध्वनि को संयम में तत्परता को बनाया गया.  आकाश (शून्य) में संयम किया।  निर्विचार स्थिति में अस्तित्व स्वीकार/बोध सहित सभी ओर आकाश में समायी हुई वस्तु दिखती रही, इसलिए आकाश में संयम करने की तत्परता बनी.  कुछ समय के उपरान्त ही अस्तित्व सह-अस्तित्व के रूप में यथावत देखने को मिला।  अस्तित्व में ही 'जीवन' को देखा गया.  अस्तित्व में अनुभूत हो कर जागृत हुए.  ऐसे अनुभव के पश्चात अस्तित्व सहज विधि से हर व्यक्ति अनुभव योग्य होना देखा गया.  अनुभव करने वाली वस्तु को 'जीवन' रूप में देखा गया.  इसी आधार पर "अनुभवात्मक अध्यात्मवाद" को प्रस्तुत करने में सत्य सहज प्रवृत्ति उद्गमित हुई.  यह मानव सम्मुख प्रस्तुत है. 

- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से

Tuesday, November 11, 2014

इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर

सहअस्तित्व (सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति) समझ में आने पर यह पहचानना सुलभ हो गया कि ज्ञान और इन्द्रियों के संयुक्त स्वरूप की मानव संज्ञा है.  ज्ञान का धारक-वाहक जीवन है.  जीवंत शरीर में इन्द्रिय व्यापार (इन्द्रियों का कार्यकलाप - जैसे देखना, सुनना, चखना, सूंघना, छूना) है.  जीवन शरीर को जीवंत बनाता है, फलस्वरूप इन्द्रिय व्यापार होता है.  

इन्द्रियों से जीवन को कुछ संकेत मिलता है, जिससे जो पहचान जीवन को होता है उसको "इन्द्रियगोचर" कहा.

इन्द्रियों के बिना भी जीवन को ज्ञान विधि से संकेत मिलता है.  उसको "ज्ञानगोचर" कहा.

ज्ञान की प्रसारण विधि जीवन में समाहित है.  इन्द्रियगोचर होने के लिए भी ज्ञान का प्रसारण आवश्यक है.  ज्ञानगोचर होने के लिए तो ज्ञान का प्रसारण आवश्यक है ही.  ज्ञान का प्रसारण जीवन में ही होता है - और किसी चीज (भौतिक-रासायनिक वस्तु) में होता नहीं। 

"ज्ञान सम्पन्नता जीवन में है" - इस बात को स्वीकारा जा सकता है.  ऐसे ज्ञान के कुछ भाग को जीवन इन्द्रियों द्वारा भी पहचानता है. 

मानव ज्ञानावस्था की इकाई है - जो इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर विधि से सम्पूर्ण है.  ज्ञान स्थिति में रहता है, इन्द्रियगोचर विधि से प्रमाणित होता है.  ज्ञान मानव परंपरा में इन्द्रियगोचर विधि से आता है.  इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान प्रकाशित होता है.  हर मानव में जीवन क्रियाशील रहता है.  इन्द्रियों से जो ज्ञान झलकता है, उसके मूल में जाने की व्यवस्था मानव में बनी हुई है.  उसके लिए पहले कल्पनाशीलता का प्रयोग होता है, जिससे ज्ञान वस्तु के रूप में साक्षात्कार होता है.  फलस्वरूप बोध और अनुभव होता है, जिससे प्रमाणित होने की शुरुआत होती है.  यह इसका पूरा स्वरूप है.

ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर के बारे में विगत में भी चर्चा हुई है, पर वे इस निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाये कि मानव ज्ञान और इन्द्रियों का संयुक्त स्वरूप है.  आदर्शवाद ने बताया - "ईश्वर ज्ञान का स्वरूप है."  ईश्वर ज्ञान का स्वरूप है - यह मध्यस्थ दर्शन के परिशीलन से भी निकलता है, किन्तु ज्ञान को पहचानने वाला जीवन ही है.  ईश्वर स्वरूपी ज्ञान का धारक-वाहक जीवन ही है.  आदर्शवाद ने कहा - "ईश्वर सत्य है.  सत्य ही ज्ञान है".   साथ ही ज्ञान को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बताया।  इसके स्थान पर मध्यस्थ दर्शन ने प्रतिपादित किया -  "ईश्वर स्वरूपी सत्य को प्रमाणित करने वाला (व्यक्त करने वाला, सम्प्रेषित करने वाला) मानव ही है, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है".  मध्यस्थ दर्शन के ऐसा प्रतिपादित करने से किसको क्या तकलीफ है? 

चैतन्यता (जीवन) को पहचानना मूल मुद्दा है.  इसी के आधार पर सह-अस्तित्व को पहचानने  की कोशिश है.  इसी के आधार पर मानव को पहचानने की कोशिश है.  इसी के आधार पर चारों अवस्थाओं को पहचानने की कोशिश है.  इसी के आधार पर जीने की कोशिश है. 

जीवन की पहचान न होने के आधार पर हम मान लेते हैं - इन्द्रियों में ज्ञान है.  इन्द्रियों में ज्ञान होना मान कर आगे उसका शोध करते हुए बताया - ज्ञान का स्त्रोत मेधस (brain) है.  पहले ह्रदय को ज्ञान का स्त्रोत बताते थे, बाद में मेधस को बताने लगे.  जबकि सच्चाई यह है कि जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है, न कि मेधस।  जीवन ही ज्ञान संपन्न होता है या भ्रमित रहता है.  भ्रमित रहने का आधार है - जीवन का शरीर को जीवन मान लेना।  मानने वाली वस्तु जीवन ही है और कुछ भी नहीं। 

शरीर में होने वाले इन्द्रिय व्यापार का दृष्टा जीवन ही होता है.  ज्ञान से जो पहचान होता है, या जो ज्ञानगोचर होता है उसका दृष्टा जीवन ही होता है. इन दोनों का दृष्टा होने से जीवन जागृत होता है.  जागृत होने पर ज्ञानमूलक विधि से जीने का अभ्यास होता है.  जिससे मानव लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और जीवन मूल्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) दोनों साथ-साथ प्रमाणित होता है.  इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में मानव लक्ष्य प्रमाणित होता है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)