मैंने इस प्रस्ताव को "सर्वमानव" के लिये प्रस्तुत किया है। इस प्रस्ताव के बारे में "सर्वमानव" के आधार पर बात हो सकती है, न कि किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष के आधार पर। आपसे "सर्वमानव" के आधार पर बात करना नहीं बन रहा है, यही परेशानी है।
जब यह प्रस्ताव अनुसंधानित हुआ तो मानव जाति इसके प्रति "अज्ञात" था, इस प्रस्ताव की परंपरा नहीं था, "सर्वमानव" के लिए इसकी परंपरा हो, इसलिए प्रस्तुत कर दिया। सर्वमानव को क्या चाहिए? सर्वमानव को "सुख" चाहिए - यह पहचाना। सुख समाधान के बिना होता नहीं है। समाधान अनुभव के बिना होता नहीं है। अनुभव सहअस्तित्व में ही होता है।
अध्ययन के लिए सहमत होना और अध्ययन होना दो अलग-अलग बातें हैं। अध्ययन होने पर स्वत्व होता है।
इस प्रस्ताव को मानव जाति द्वारा परंपरा स्वरूप में अपनाने की पूर्वभूमि बन चुकी है। मानव जाति सूली पर चढ़ चुका है। इस धरती पर से विदा होने की स्थिति में आ चुका है। मानव जाति की तैयारी है, तभी इसको प्रस्तुत किया है। आपको समझ में आता है तो आप इसको जी कर प्रेरणा दे सकते हैं। बिना समझे हम भाषाई प्रेरक होंगे, अनुभव करके हम जीते जागते प्रेरक होंगे। दोनों में फर्क है या नहीं?
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अनुभव शिविर, अमरकंटक - जनवरी, २०१३)
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