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Saturday, March 2, 2013

जागृति का ही प्रमाण होता है


जागृतिक्रम का कोई प्रमाण नहीं होता, जागृति का ही प्रमाण होता है।

प्रश्न: "जागृति क्रम" बोध की वस्तु है या नहीं?

उत्तर: नहीं।  "जागृति" बोध की वस्तु है।  जागृति-क्रम मन, वृत्ति, चित्त तक का शरीर मूलक क्रियाकलाप है।  जागृत होने पर यह आंकलन होता है कि इससे पहले मैं "जागृति क्रम" में  था।  जागृति परंपरा स्वरूप में होती है।

मेरे अकेले के अनुभव संपन्न होने से जागृति नहीं हुई।  आप सब जागृत होते हैं, तब परंपरा होगी।  उसी के लिए तो हम बारम्बार मिलते ही हैं।  अभी मैं जागृति के लिए प्रेरक हूँ।

प्रश्न:  क्या जागृति-क्रम में न्याय नहीं होता?

उत्तर: नहीं।  जागृति में ही न्याय होता है।  जागृति क्रम में मानव में जीवों से अच्छा जीने की कल्पना होता है, उसमे मानव जी भी लिया।  लेकिन उसमे न्याय नहीं हुआ।

अध्ययन पूर्वक अर्थ का अनुमान होता है, साथ ही अनुमान के प्रमाणित होने की आवश्यकता स्वीकार होती है।  अनुभव मूलक विधि से ही जागृति होता है।  अनुभव मूलक विधि से ही बुद्धि में (सच्चाई के प्रति) "निश्चय" होता है।

अध्ययन विधि में, आशा-विचार-इच्छा में प्राथमिकता के बने बिना साक्षात्कार होता नहीं है, साक्षात्कार और बोध पूरा हुए बिना अनुभव होता नहीं है।

प्रश्न:  अध्ययन विधि में, आशा-विचार-इच्छा में सच्चाई के लिए प्राथमिकता बनेगी तो वह मानव के जीने में किस "क्रम" में परिलक्षित होगा?

उत्तर: पहले पर-पीड़ा विचार समाप्त होता है, फिर पर-धन विचार समाप्त होता है  फिर पर-नारी/पर-पुरुष विचार समाप्त होता है।  जागृत होने के पहले स्वयं में ऐसे सब विचारों का शमन होता है, उसके पश्चात हम अनुभव मूलक विचार में टिक जाते हैं।

प्रश्न: अपने आशा-विचार-इच्छा में इस प्रकार प्राथमिकता बनने  को हम अनुभव की ओर अपना "क्रमिक विकास" मान रहे हैं - क्या यह ठीक है?  

उत्तर:  आपका यह मान्यता यदि आपके जीने में आता है, तब ठीक है।  यदि आपके जीने में नहीं आता है, तब थोड़ा ज्यादा ही ठीक है!  हमारे जीने में कोई परिवर्तन न हो, और हम जागृत हो जाएँ - यह कहाँ की भाषा है?

प्रश्न: साक्षात्कार-बोध होने के क्रम में क्या आशा-विचार-इच्छा में गुणात्मक-विकास का क्या कोई "क्रम" होगा?

उत्तर: "क्रम" की बात मैंने नहीं की है।  "क्रम" आप ही लोग बना रहे हो।  जागृत होना "क्रम" है या "घटना" है - ऐसा मैंने नहीं लिखा है।  यह बात सही है कि जागृत होने के पहले पर-पीड़ा विचार, पर-धन विचार, पर-नारी/पर-पुरुष विचार शमन हो जाता है।

प्रश्न:  अध्ययन विधि में "अनुकरण"  की क्या भूमिका है?

उत्तर: अनुकरण नहीं है तो अध्ययन किसका करोगे?  कोई जागृत स्वरूप में जीता है, तो उसको देख करके अध्ययन होता है।  वही अनुकरण है।  दूसरी विधि से अध्ययन होता नहीं है।  जागृत होने के लिए दूसरी विधि अनुसंधान ही है।

प्रश्न:  आपके जागृत स्वरूप में जीने को देख कर मुझ में वैसा जीने की इच्छा बनती है।  क्या वह अध्ययन है?

उत्तर: मेरे जीने को देख कर पहले आप में वैसा जीने की "कल्पना" दौड़ती है, आपका "कार्य" नहीं दौड़ता।  आपका कार्य उसके अनुसार दौड़ने से फिर ठीक हो जाता है।  इच्छा भर होना "व्यक्तिवाद" है।  कार्य भर होना "समाजवाद" है।  अनुभव होना और उसके अनुसार इच्छा और कार्य होना "सहअस्तित्ववाद" है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अनुभव शिविर, २०१३ अमरकंटक)

1 comment:

Gopal Bairwa said...

Thanks Rakesh bhai for sharing these shivir discussions.