परीक्षण, निरीक्षण और सर्वेक्षण के आधार पर मूल्यांकन होता है. परीक्षण का मतलब है - वस्तु कैसा है? निरीक्षण का मतलब है - प्रयोजन क्या है? सर्वेक्षण का मतलब है - कितना है?
किसी भी वस्तु का परीक्षण किये बिना उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. वैसे ही स्वयं का और सामने व्यक्ति का परीक्षण किये बिना हम उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते. स्वयं का परीक्षण करने के बाद ही स्वयं का मूल्यांकन हो पाता है. वैसा ही दूसरे व्यक्ति के साथ भी है.
स्व-निरीक्षण में अपनी उपयोगिता और प्रयोजन को समझने की बात है. प्रयोजन ही पूरकता है. अपनी उपयोगिता और पूरकता (प्रयोजन) को समझे बिना हम दूसरों को क्या समझायेंगे? यदि प्रयोजन नहीं है तो आडम्बर है. यदि आडम्बर है तो संसार के लिए हानिप्रद है.
प्रश्न: मूल्यांकन और समीक्षा में क्या अंतर है?
उत्तर: अनावश्यकता (पूरकता-उपयोगिता के विपरीत कार्य-कलाप) की समीक्षा होती है, आवश्यकता (पूरकता-उपयोगिता सहज कार्य-कलाप) का मूल्यांकन होता है. अनावश्यकता की समीक्षा नहीं होगी तो अनावश्यकता कम कैसे होगा? आवश्यकता का मूल्यांकन नहीं होगा तो सही के लिए उत्साहित कैसे होंगे? मूल्यांकन और समीक्षा दोनों होना आवश्यक है. आवश्यकता को लेकर प्रोत्साहित कर दिया, गलती को छुपा दिया - यह महान अपराध है. थोडा भी गलती हो तो उसको उजागर करना चाहिए. उजागर करने का मतलब - जिसने गलती किया, उसको अवगत कराना. दूसरे की गलती का प्रचार करने का कोई फायदा नहीं है.
प्रश्न: हम जब दूसरे का मूल्यांकन करें तो यदि हम केवल उसके 'सही' को बताएं, उसकी 'गलती' को न बताएं - तो इसमें क्या परेशानी है?
उत्तर: गलती करने वाला अपनी गलती को भी 'सही' माने रहता है. इसलिए आप यदि केवल उसके 'सही' को बताते हैं तो वह मान लेता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है (जो उसके हिसाब से 'सही' है) उसको आप प्रोत्साहन कर रहे हैं. अब आप इस तरह कितना भी सिर कूट लो, क्या परिवर्तन आएगा उससे उसमें? उसकी गलती का सुधार होगा कैसे? ऐसा हो रहा है या नहीं? इसलिए दूसरे का मूल्यांकन करते हुए उसकी गलती को उसे अवगत करायें, फिर सही को भी उसे बताएं.
- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक)
किसी भी वस्तु का परीक्षण किये बिना उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. वैसे ही स्वयं का और सामने व्यक्ति का परीक्षण किये बिना हम उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते. स्वयं का परीक्षण करने के बाद ही स्वयं का मूल्यांकन हो पाता है. वैसा ही दूसरे व्यक्ति के साथ भी है.
स्व-निरीक्षण में अपनी उपयोगिता और प्रयोजन को समझने की बात है. प्रयोजन ही पूरकता है. अपनी उपयोगिता और पूरकता (प्रयोजन) को समझे बिना हम दूसरों को क्या समझायेंगे? यदि प्रयोजन नहीं है तो आडम्बर है. यदि आडम्बर है तो संसार के लिए हानिप्रद है.
प्रश्न: मूल्यांकन और समीक्षा में क्या अंतर है?
उत्तर: अनावश्यकता (पूरकता-उपयोगिता के विपरीत कार्य-कलाप) की समीक्षा होती है, आवश्यकता (पूरकता-उपयोगिता सहज कार्य-कलाप) का मूल्यांकन होता है. अनावश्यकता की समीक्षा नहीं होगी तो अनावश्यकता कम कैसे होगा? आवश्यकता का मूल्यांकन नहीं होगा तो सही के लिए उत्साहित कैसे होंगे? मूल्यांकन और समीक्षा दोनों होना आवश्यक है. आवश्यकता को लेकर प्रोत्साहित कर दिया, गलती को छुपा दिया - यह महान अपराध है. थोडा भी गलती हो तो उसको उजागर करना चाहिए. उजागर करने का मतलब - जिसने गलती किया, उसको अवगत कराना. दूसरे की गलती का प्रचार करने का कोई फायदा नहीं है.
प्रश्न: हम जब दूसरे का मूल्यांकन करें तो यदि हम केवल उसके 'सही' को बताएं, उसकी 'गलती' को न बताएं - तो इसमें क्या परेशानी है?
उत्तर: गलती करने वाला अपनी गलती को भी 'सही' माने रहता है. इसलिए आप यदि केवल उसके 'सही' को बताते हैं तो वह मान लेता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है (जो उसके हिसाब से 'सही' है) उसको आप प्रोत्साहन कर रहे हैं. अब आप इस तरह कितना भी सिर कूट लो, क्या परिवर्तन आएगा उससे उसमें? उसकी गलती का सुधार होगा कैसे? ऐसा हो रहा है या नहीं? इसलिए दूसरे का मूल्यांकन करते हुए उसकी गलती को उसे अवगत करायें, फिर सही को भी उसे बताएं.
- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक)
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