न्याय-धर्म-सत्य के साथ प्रिय-हित-लाभ को तोलना नहीं बनता. न्याय-धर्म-सत्य में प्रिय-हित-लाभ का विलय होता है. प्रिय-हित-लाभ के विलय होने तक अध्ययन है. जब विलय हो जाता है तब अनुभव है.
अनुभव के पहले न्याय-धर्म-सत्य भाषा के रूप में रहता है, लेकिन जीना प्रिय-हित-लाभ में ही बना रहता है. "न्याय-धर्म-सत्य ठीक है" - ऐसा भाषा के रूप में आ जाता है, पर वह "स्वीकृति" नहीं है. स्वीकृति प्रिय-हित-लाभ की ही रहती है. सूचना हो जाना स्वीकृति नहीं है.
अभी लोग अपनी अनुकूलता (अच्छा लगने) के अनुसार समझने की इच्छा व्यक्त करते हैं. सच्चाई को समझने की इच्छा का रंग ही कुछ और होता है! अपनी अनुकूलता के अनुसार समझने की इच्छा से प्रयास करते हैं तो एक व्यक्ति कुछ समझ लेता है, दूसरा व्यक्ति कुछ और समझ लेता है. सच्चाई जैसा है - वैसा समझने का प्रयास करते हैं तो आप जैसा समझते हैं, वैसा ही मैं भी समझता हूँ. सच्चाई अच्छा लगने और बुरा लगने की जगह में नहीं है.
"मुझे जीव-चेतना में नहीं जीना है, मानव-चेतना में ही जीना है" - जब यह निश्चय होता है, तब सच्चाई को समझने की इच्छा से प्रयास होता है. मानव ने अभी तक जीवों से अच्छा जीना चाहा है, कुछ मायनों में जीवों से अच्छा जिया भी है, पर जीव-चेतना को छोड़ा नहीं है. इसी जगह में मानव-जाति कराह रहा है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक)
अनुभव के पहले न्याय-धर्म-सत्य भाषा के रूप में रहता है, लेकिन जीना प्रिय-हित-लाभ में ही बना रहता है. "न्याय-धर्म-सत्य ठीक है" - ऐसा भाषा के रूप में आ जाता है, पर वह "स्वीकृति" नहीं है. स्वीकृति प्रिय-हित-लाभ की ही रहती है. सूचना हो जाना स्वीकृति नहीं है.
अभी लोग अपनी अनुकूलता (अच्छा लगने) के अनुसार समझने की इच्छा व्यक्त करते हैं. सच्चाई को समझने की इच्छा का रंग ही कुछ और होता है! अपनी अनुकूलता के अनुसार समझने की इच्छा से प्रयास करते हैं तो एक व्यक्ति कुछ समझ लेता है, दूसरा व्यक्ति कुछ और समझ लेता है. सच्चाई जैसा है - वैसा समझने का प्रयास करते हैं तो आप जैसा समझते हैं, वैसा ही मैं भी समझता हूँ. सच्चाई अच्छा लगने और बुरा लगने की जगह में नहीं है.
"मुझे जीव-चेतना में नहीं जीना है, मानव-चेतना में ही जीना है" - जब यह निश्चय होता है, तब सच्चाई को समझने की इच्छा से प्रयास होता है. मानव ने अभी तक जीवों से अच्छा जीना चाहा है, कुछ मायनों में जीवों से अच्छा जिया भी है, पर जीव-चेतना को छोड़ा नहीं है. इसी जगह में मानव-जाति कराह रहा है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २०१२, अमरकंटक)
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