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Tuesday, June 21, 2011

अध्ययन विधि

अध्ययन संयोग से होता है। इसमें अभिभावक, अध्यापक, और विद्यार्थी तीनो शामिल हैं। विद्यार्थी वह है - जो जिज्ञासु हो। अभिभावक से आशय है - विद्यार्थी के माता-पिता आदि। अध्यापक वह है - जो अनुभव-संपन्न समझदार व्यक्ति हो।

अध्ययन-क्रम में विद्यार्थी अपनी जिज्ञासा को व्यक्त करता है, जिसका समाधान अध्यापक प्रस्तुत करता है और जिज्ञासा को शांत करता है।

अध्यापक के अनुभव की रोशनी में विद्यार्थी अध्ययन करता है। अध्यापक के अनुभव की रोशनी विद्यार्थी के पूरे जीवन पर प्रभाव डालती है - जिससे विद्यार्थी की बुद्धि और आत्मा बोध और अनुभव करने के लिए तैयार हो जाती है। जैसे-जैसे विद्यार्थी की जिज्ञासा तृप्त होती जाती है उसकी कल्पनाशीलता वैसे-वैसे सह-अस्तित्व में तदाकार होती जाती है। एक बिंदु पर कल्पनाशीलता पूरी तरह तदाकार हो जाती है। वह बिंदु है - अस्तित्व को सह-अस्तित्व रूप में अनुभव करना। अनुभव संपन्न होने पर विद्यार्थी स्वयं को प्रमाणित करने योग्य हो जाता है। यही अध्ययन की सफलता है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २०११, अमरकंटक)

Monday, June 20, 2011

ऊर्जा

सभी संसार – एक परमाणु-अंश से लेकर परमाणु तक, परमाणु से लेकर अणु रचित रचना तक, अणु रचित रचना से लेकर प्राण-कोषा से रचित रचना तक – का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त होता हुआ समझ में आया। स्वयं-स्फूर्त विधि से ही परमाणु का गठन-पूर्ण होना समझ में आया।

प्रश्न: परमाणु स्वयं-स्फूर्त विधि से कैसे रचना कर दिया और कैसे गठन-पूर्ण हो गया?

इसका उत्तर है – परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है। हर परमाणु-अंश स्व-चालित है, हर परमाणु स्व-चालित है। इसको देख लिया गया। स्व-चालित होने के आधार पर ही गठन-पूर्ण हुआ है, और रचनाएँ किया है। स्वयं-स्फूर्त होने के लिए मूल वस्तु है – ऊर्जा-सम्पन्नता। सत्ता से प्रकृति का वियोग होता ही नहीं है। इसी का नाम है – “नित्य वर्तमान” होना।

सत्ता न हो, ऐसा जगह मिलता नहीं है। पदार्थ न हो, ऐसा जगह मिलता है। पदार्थ का सत्ता से वियोग होता नहीं है, पदार्थ को सदा ऊर्जा प्राप्त है – इसलिए पदार्थ नित्य क्रियाशील है, काम करता ही रहता है। इस तरह सभी पदार्थ या जड़-चैतन्य प्रकृति का ‘त्व सहित व्यवस्था – समग्र व्यवस्था में भागीदारी’ पूर्वक रहने का विधि आ गई। पदार्थ की स्वयं-स्फूर्त क्रियाशीलता ही “सह-अस्तित्व में प्रकटन” है।

सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना में जीने से जीवों में तो व्यवस्था होता है, लेकिन मानवों में व्यवस्था होता नहीं है। मानव के व्यवस्था में जीने के लिए कम से कम मानव-चेतना चाहिए। मानव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो देव-चेतना में जी सकते हैं। देव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो दिव्य-चेतना में जी सकते हैं।

साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश प्रकृति में सापेक्ष-ऊर्जा या कार्य-ऊर्जा है। सापेक्ष-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा एक ही है. कार्य से जो उत्पन्न हुआ वह कार्य-ऊर्जा है। अभी प्रचलित भौतिक-विज्ञान में जितना भी पढ़ाते हैं – वह कार्य-ऊर्जा ही है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित भौतिक-विज्ञान में पहचानते ही नहीं हैं।

सत्ता में भीगे रहने से या पारगामीयता से प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है। सत्ता में डूबे रहने से प्रकृति में क्रियाशीलता है। सत्ता में घिरे रहने से प्रकृति में नियंत्रण है। इसको अच्छे से समझने के लिए अपने को लगाना ही पड़ता है। अपने को लगाए नहीं, यंत्र इसको समझ ले – ऐसा होता नहीं है। यंत्र को आदमी बनाता है।

अस्तित्व नित्य वर्तमान होने से, नित्य प्रगटनशील होने से ही मूल-ऊर्जा सम्पन्नता का होना पता चल गया। मूल ऊर्जा सम्पन्नता ही मूल-चेष्टा है. चेष्टा ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता से ही सापेक्ष-ऊर्जा है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में दबाव, तरंग, और प्रभाव के रूप में सापेक्ष-ऊर्जा को पहचाना जाता है। ताप, ध्वनि, और विद्युत भी सापेक्ष ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा पूर्वक ही इकाइयों का एक दूसरे को प्रभावित करना और एक दूसरे से प्रभावित होना सफल होता है। इस तरह प्रभावित होने और प्रभावित करने का प्रयोजन है – व्यवस्था में रहना। प्रभावित होने और करने के साथ परिणिति होने की भी बात है। यदि परणिति न होती तो चारों अवस्थाओं के प्रकट होने की बात ही नहीं थी।

कार्य-ऊर्जा की मानव गणना करता है. मूल-ऊर्जा (साम्य-ऊर्जा) की उस तरह गणना नहीं होती। मूल-ऊर्जा को हम समझने जाते हैं, तो पता चलता है – मूल-ऊर्जा सम्पन्नता चारों अवस्थाओं के रूप में प्रकट है। कार्य-ऊर्जा का स्वरूप हर अवस्था का अलग-अलग है। जैसे – जिस तरह जीव-जानवर कार्य करते हैं, और जिस तरह मानव कार्य करता है, इन दोनों में दूरी है। मानव जीवों से भिन्न जीने का प्रयास किया है, इस कारण से यह दूरी हो गयी। कार्य करने के स्वरूप को ही कार्य-ऊर्जा कहते हैं।

कार्य-ऊर्जा में ही आवेशित-गति और स्वभाव-गति की पहचान होती है। कारण-ऊर्जा या साम्य-ऊर्जा में आवेशित-गति होती ही नहीं है। आवेशित-गति अव्यवस्था कहलाता है। स्वभाव-गति व्यवस्था कहलाता है।

साम्य-ऊर्जा न बढ़ती है न घटती है। कार्य-ऊर्जा भी न बढ़ती है न घटती है। एक दूसरे पर दबाव और प्रभाव के बढ़ने और घटने की बात होती है। उसमे कोई मात्रात्मक परिवर्तन होता नहीं है। कम होना और बढ़ना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ ही होता है। दबाव और प्रभाव में आवेशित गति और स्वभाव गति ही होती है। जैसे - एक तप्त इकाई है, दूसरी इकाई उसके समक्ष है – जो उसके ताप से प्रभावित है। ऐसे में, दोनो इकाइयां कार्य-ऊर्जा संपन्न हैं तभी वे एक दूसरे को पहचान पाती हैं। पहचान के फलस्वरूप दूसरी इकाई उसके ताप को अपने में पचाती है। अंततोगत्वा दोनों इकाइयां स्वभाव-गति में पहुँचती हैं।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

प्रश्न मुक्ति

७०० करोड मानवों के सभी प्रश्नों के लिए एक ही चाबी है। समझना है और प्रमाणित करना है – तो सभी प्रश्न ही समाप्त हैं। समझना नहीं है, प्रमाणित नहीं करना है – तो प्रश्न ही प्रश्न हैं.

समझ में आते तक मानव द्वारा अध्ययन करना या अनुसंधान करना ही उसकी स्वभाव-गति है। समझ में आने पर (अनुभव होने पर) प्रमाणित करना ही मानव की स्वभाव-गति है।

समझना = शक्तियों का अंतर्नियोजन। प्रमाणित करना = शक्तियों का बहिर्गमन। समझने के लिए ध्यान देने का अर्थ है, कल्पनाशीलता को लगाना। परंपरागत ध्यान-विधियों से इसका कोई लेन-देन ही नहीं है। कल्पनाशीलता का सह-अस्तित्व वस्तु में (न कि “सह-अस्तित्व” शब्द में) तदाकार होना ही अध्ययन के लिए ध्यान देना है। सह-अस्तित्व वस्तु है – चारों अवस्थाएं “त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी” स्वरूप में होने से है। शब्द के अर्थ में तदाकार होना होता है. ध्यान देने का मतलब इतना ही है।

तदाकार होते हैं तो बोध होता है, बोध होता है तो अनुभव होता है। अनुभव होता है तो प्रमाण होता है।

सुनना, समझना, और प्रमाणित करना – यह क्रम है। बारम्बार उलझ जाते हैं, मतलब समझे नहीं हैं। समझे नहीं हैं, मतलब सुने नहीं हैं। प्रमाणित नहीं हुए हैं, मतलब समझे नहीं हैं. मूल में “सुख की निरंतरता” के लिए यह क्रम है। समाधान हुए बिना सुख की निरंतरता होता नहीं है. समाधान होने पर प्रमाण होता ही है।

प्रश्न: समझना पूरा होते तक विद्यार्थी के पास सच्चाई को “जांचने” का क्या आधार है?

समझना पूरा होते तक जिज्ञासा ही है. समझ पूरा होने के बाद ही जांचना होता है। विद्यार्थी की समझ पूरा होते तक गुरु ही जांचता है।

समझ पूरा होने के बाद शिष्य स्वयं अपने समझे होने का सत्यापन करता है। गुरु अपने शिष्य के समझदार होने का सत्यापन नहीं करता। कोई एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समझदार होने का सत्यापन करे – यह जीव-चेतना की बात है. मेरे विद्वान होने का आप प्रमाण-पत्र लिख कर दें – यह जीव-चेतना है। यह सब मिला कर के सुविधा-संग्रह में ही समीक्षित होता है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

Friday, June 3, 2011

जिज्ञासा

प्रश्न: मेरी जिज्ञासा ठीक है या नहीं – इसका मैं कैसे निर्णय कर सकता हूँ?

उत्तर: अनुभव-शील व्यक्ति ही इसको बताएगा। अनुभव मूलक विधि से जीने वाला व्यक्ति सामने व्यक्ति की जिज्ञासा को समझ सकता है। जिज्ञासु को जब समझ में आता है, तभी उसको पता चलता है कि उसको अनुभव-संपन्न व्यक्ति ने उसे समझा दिया! एक दूसरे के लिए पूरक होने का विधि इस तरह बन गया या नहीं? यही एक छोटी सी दीवार है, जिसको फांदने की जरूरत है।

मानव में सुख की निरंतरता की चाहत समाई हुई है। “ सत्य” नाम तो सब जानते हैं, बच्चे भी जानते हैं। “ सत्य में सुख की निरंतरता है” – इस परिकल्पना के आधार पर जिज्ञासा है। “ सत्य” शब्द के आधार पर सभी सत्य को चाहते हैं। हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक होता है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहता है, और सत्य-वक्ता होता है। सत्य बोध कराना शिक्षा का काम है, सही कार्य-व्यवहार सिखाना शिक्षा का काम है, और न्याय-प्रदायी क्षमता को स्थापित करना शिक्षा का काम है। जबकि आज की शिक्षा में पढ़ाते है कि “बच्चे जन्म से ही कामुक होते हैं”। यही कामोंमादी मनोविज्ञान है। कामोन्माद के साथ भोगोन्माद और लाभोन्माद जुड़ा ही है। मानव की चाहत और आज की शिक्षा के बीच में परस्पर-विरोध होगा या नहीं?

सत्य को समझना है या नहीं समझना है? – यह पहली बात है। सत्य को समझने के लिए वरीयता है या नहीं? – यह दूसरी बात है। सत्य को समझने के लिए जिज्ञासा है या नहीं? – यह तीसरी बात है। इन तीन बातों को आप अपने में आजमा सकते हैं। सत्य को समझने के लिए वरीयता है तो जिज्ञासा है, सत्य को समझने के लिए वरीयता नहीं है तो जिज्ञासा नहीं है – केवल शब्द के आधार पर बात-चीत है।

बात-चीत तो शब्दों में ही होती है। फिर भी बात-चीत तीन स्तर पर हो सकती है। पहले - शब्द के आधार पर बात-चीत होना। दूसरे – शब्द से इंगित अर्थ के आधार पर समझने के लिए बात-चीत होना। तीसरे – समझ के आधार पर अपना स्वत्व बना कर जीने के लिए बात-चीत होना, या अनुभव के आधार पर बात-चीत होना। इन तीनो में अंतर है या नहीं? अनुभव के आधार पर ही “सत्संग” पूरा होता है। शब्द के आधार पर सत्संग मानव आदि-काल से करता रहा है। शब्द के अर्थ तक मानव अभी तक गया नहीं है। शब्द के अर्थ तक जाना है, फिर अनुभव के आधार पर जीना है।

जिज्ञासा दो बातों के लिए है – पहला, अनुभूत होने के लिए कैसे मैं समझ जाऊँगा? दूसरे, समझने के बाद प्रमाणित कैसे करूँगा? अनुभव के बाद प्रमाणित करना स्वाभाविक होता ही है।

अनुभव के लिए अध्ययन ही अभ्यास है। सुख की निरंतरता के लिए प्रयास ही मानव की स्वभाव-गति है। इस तरह अनुभव से पहले अध्ययन ही स्वभाव गति है।

वस्तु को समझने के लिए कल्पनाशीलता आगे निकल जाता है, तर्क पीछे छूट जाता है। वस्तु को समझने के बाद तर्क कहाँ रहा? वस्तु को समझने के बाद अनुभव ही है, फिर हमको अनुभव हुआ है इसके प्रमाण पूर्वक प्रस्तुत होना शुरू होता है। “ हम ठीक न हों, और दूसरे सब ठीक हो जाएँ” – वर्तमान में राज्य को, धर्म को, शिक्षा को देखने पर ऐसा ही लगता है। राज्य-गद्दी, धर्म-गद्दी, और शिक्षा-गद्दी में बैठे लोग अपने को सही मानते हैं, वे स्वयं सुधरना नहीं चाहते हैं। व्यापार-गद्दी में बैठे लोग अपने आप को इन सभी का संरक्षक मानते हैं – वे तो अपने को सबसे सही मानते हैं।

अनुभव के बिना समझ में आया नहीं। अनुभव के बिना हम कितने भी डिजाईन बना लें – वह दूसरों के लिए ही है, हमारे अपने जीने के लिए नहीं है। अनुभव विधि में पहले स्वयं समझना है, फिर हमको अनुभव हुआ है इसके प्रमाण में दूसरे को समझाना है।

जिज्ञासा की तृप्ति के लिए अध्ययन है। समझा हुआ व्यक्ति ही अध्ययन कराएगा। किताब अध्ययन कराएगा नहीं। यंत्र अध्ययन कराएगा नहीं। इन दो विधियों से आदमी अभी तक चला है। जबकि यंत्र कभी किसी को समझाता नहीं है। किताब कभी किसी को समझाता नहीं है। मानव जो जिज्ञासा करता है, उसके लिए सारी बात को एक स्थान पर संजो कर प्रस्तुत करने का काम न किताब कर सकती है, न यंत्र कर सकता है। कोई एक बात को समझाने के लिए २०० सन्दर्भों के साथ प्रस्तुत होने की बात समझा हुआ आदमी ही कर सकता है, यंत्र नहीं कर सकता। विद्यार्थी द्वारा जिज्ञासा को व्यक्त करना और अध्यापक द्वारा जिज्ञासा का उत्तर देना – इन दोनों के संयोग में अध्ययन है। इसी लिए ‘अनुभव-मूलक विधि से समझाना’ और ‘अनुभव-गामी विधि से समझना’ इसको शिक्षा के लिए तैयार किया। इस तरह से हम शुरू किया हैं। ऐसे शुरू करके हम कहाँ तक पहुँचते हैं, इसको हम देखेंगे। वर्तमान-शिक्षा में तो ऐसा प्रावधान नहीं है।

प्रश्न: आपकी बात से लगता है अध्ययन की जिम्मेदारी विद्यार्थी की कम और अध्यापक की ज्यादा है?

अध्ययन की जिम्मेदारी अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने वाले दोनों पक्षों की है। अध्ययन करने की इच्छा भी ज़रूरी है। अध्ययन कराने की ताकत भी ज़रूरी है। इन दोनों के योगफल में अध्ययन है। कल्पनाशीलता के आधार पर जिज्ञासा है। जिज्ञासा ही पात्रता है। जिज्ञासा की प्राथमिकता के आधार पर ही ग्रहण होता है। जिज्ञासा की प्राथमिकता है या नहीं – इसको सटीक पहचानना अध्यापक का काम है। प्राथमिकता को स्वीकारना और उसके लिए प्रयास करना विद्यार्थी का काम है।

पाँच वर्ष की आयु तक बच्चों में अपने अभिभावकों के प्रति अपनी जिज्ञासा पूरी होने के प्रति पूरा विश्वास रहता है। लेकिन उनकी जिज्ञासा अभिभावकों के न पहचान पाने से और उनके द्वारा उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में बच्चों का विश्वास घटता जाता है। धीरे-धीरे वह घटते-घटते शून्य हो जाता है। एक आयु के बाद बच्चे दूर हो जाते हैं।

"सुख की निरंतरता" मानव का प्रयोजन है। संवेदनाओं में सुख भासता है, पर सुख की निरंतरता बन नहीं पाती। "सत्य में सुख की निरंतरता है" - इस परिकल्पना के साथ जिज्ञासा है। निरंतर सुख संवेदनाओं में नहीं होता है, समाधान से ही निरंतर सुख होता है। यह अनुसंधान पूर्वक मैंने पता लगाया, अब समाधान के लिए सभी का रास्ता बना दिया।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)