This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Monday, May 31, 2010
Thursday, May 20, 2010
ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत
व्यापक में कोई परिवर्तन नहीं होता। व्यापक में संपृक्त प्रकृति में परिवर्तन होता है।
हर वस्तु अपने तरीके से व्यापक में भीगा है, उसके अनुसार हर वस्तु का काम है। वस्तु के अनुसार काम है। वस्तु के अनुसार कार्य-ऊर्जा का प्रकटन है। वस्तु के अनुसार कार्य-ऊर्जा का प्रकटन है - जो न ज्यादा है, न कम है।
प्रश्न: धरती पर पहले एक ही अवस्था (पदार्थ-अवस्था) थी, और आज चारों अवस्थाएं प्रकट हैं। तो क्या धरती की कार्य-ऊर्जा पहले से बढ़ गयी?
उत्तर: इसमें ज्यादा-कम कुछ नहीं होता। क्रियाशीलता है, उतना ही है। जैसे - पहले धरती पर १२० तरह के परमाणुओं के प्रकटन के लिए क्रियाशीलता रही। उसके बाद ये १२० फिर क्रियाशील रहे, अगली अवस्था के प्रकटन के लिए। कार्य-ऊर्जा में परिवर्तन कहाँ हुआ - आप ही सोचो! जितना धरती पर द्रव्य था, उतना ही रहा। कुल मिला कर जो ऊर्जा प्रकट हो रही है, वह उतनी ही है। अगली अवस्था जो प्रकट होती है, उसकी उपयोगिता-पूरकता का स्वरूप पिछली अवस्था से भिन्न हो जाता है। कार्य-ऊर्जा उतना ही रहता है। सम्पूर्ण अस्तित्व में कुल मिला कर साम्य-ऊर्जा उतना ही रहता है, कार्य-ऊर्जा उतना ही रहता है - परिवर्तित नहीं होता। साम्य-ऊर्जा ज्यादा-कम नहीं होता, कार्य-ऊर्जा भी ज्यादा-कम नहीं होता। कार्य-ऊर्जा का फल-परिणाम ज्यादा-कम होता है।
- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
हर वस्तु अपने तरीके से व्यापक में भीगा है, उसके अनुसार हर वस्तु का काम है। वस्तु के अनुसार काम है। वस्तु के अनुसार कार्य-ऊर्जा का प्रकटन है। वस्तु के अनुसार कार्य-ऊर्जा का प्रकटन है - जो न ज्यादा है, न कम है।
प्रश्न: धरती पर पहले एक ही अवस्था (पदार्थ-अवस्था) थी, और आज चारों अवस्थाएं प्रकट हैं। तो क्या धरती की कार्य-ऊर्जा पहले से बढ़ गयी?
उत्तर: इसमें ज्यादा-कम कुछ नहीं होता। क्रियाशीलता है, उतना ही है। जैसे - पहले धरती पर १२० तरह के परमाणुओं के प्रकटन के लिए क्रियाशीलता रही। उसके बाद ये १२० फिर क्रियाशील रहे, अगली अवस्था के प्रकटन के लिए। कार्य-ऊर्जा में परिवर्तन कहाँ हुआ - आप ही सोचो! जितना धरती पर द्रव्य था, उतना ही रहा। कुल मिला कर जो ऊर्जा प्रकट हो रही है, वह उतनी ही है। अगली अवस्था जो प्रकट होती है, उसकी उपयोगिता-पूरकता का स्वरूप पिछली अवस्था से भिन्न हो जाता है। कार्य-ऊर्जा उतना ही रहता है। सम्पूर्ण अस्तित्व में कुल मिला कर साम्य-ऊर्जा उतना ही रहता है, कार्य-ऊर्जा उतना ही रहता है - परिवर्तित नहीं होता। साम्य-ऊर्जा ज्यादा-कम नहीं होता, कार्य-ऊर्जा भी ज्यादा-कम नहीं होता। कार्य-ऊर्जा का फल-परिणाम ज्यादा-कम होता है।
- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
सत्ता, ऊर्जा, ज्ञान
सत्ता ही ऊर्जा है, जिसके प्राप्त होने से प्रकृति क्रियाशील है। क्रियाशील होने से कार्य-ऊर्जा तैयार होता है। कार्य-ऊर्जा का प्रयोजन उपयोगिता-पूरकता के रूप में सिद्ध होता है।
जैसे एक अजीर्ण-परमाणु क्रियाशील होने से विकीरण (radiation) के रूप में उसकी कार्य-ऊर्जा प्रकट होती है। विकीरण की उपयोगिता-पूरकता सिद्ध होती है। किसी भी धरती पर जब पानी यौगिक विधि से घटित होता है, उसमें विकीरण का योगदान रहता है - जलने वाली वस्तु और जलाने वाली वस्तु को मिलाने के लिए।
प्रश्न: विकीरण वस्तु के रूप में क्या है?
उत्तर: अजीर्ण-परमाणु वस्तु है। विकीरण अजीर्ण-परमाणु का "प्रभाव" है। विकीरण को ब्रह्मांडीय-किरणे भी कहते हैं। ब्रह्मांडीय किरणों से धरती पर ऋतु-संतुलन प्रमाणित होता है। धरती पर पानी बनने का आधार यही है। विकीरण सकारात्मक और प्राकृतिक रूप में इस तरह काम कर रहा है। विकीरण का नकारात्मक प्रयोग भ्रमित-मनुष्य करता है।
सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है। ऊर्जा है, इसीलिये जड़-प्रकृति कार्य-रत है। ज्ञान है, इसीलिये चैतन्य-प्रकृति कार्य-रत है। जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता में संपृक्त है। सत्ता में जड़ प्रकृति के भीगे होने पर उसका नाम "ऊर्जा" है। सत्ता में चैतन्य-प्रकृति भीगे होने पर उसका नाम "ज्ञान" है।
ज्ञान का मतलब है "चेतना"। चेतना को छोड़ कर काम करते हुए न आप मनुष्य को देख सकते हो, न दिखा सकते हो।
चेतना के चार स्तर हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना।
चैतन्य-प्रकृति (जीवन) अपनी "प्रवृत्ति" के अनुसार चेतना को व्यक्त करता है। प्रवृत्तियाँ हैं - चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में प्रवृत्ति, पांच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में प्रवृत्ति, तीन ईश्नाओं (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेषणा) में प्रवृत्ति, और उपकार में प्रवृत्ति। प्रवृत्ति ही प्रकट होता है। जीवन की प्रवृत्ति ही जीने में प्रकट होती है। जीने पर ही प्रवृत्ति का पता चलता है। हम अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही जीते हैं। जीवन में गुणात्मक-परिवर्तन की स्थितियों के अनुसार प्रवृत्तियां हैं।
प्रवृत्तियों का प्रकटन "योग्यता" है। सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता का एक नाम "योग्यता" है।
प्रवृत्ति के अनुसार ही "स्वभाव" है। जड़-प्रकृति ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। चैतन्य-प्रकृति ज्ञान-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
जैसे एक अजीर्ण-परमाणु क्रियाशील होने से विकीरण (radiation) के रूप में उसकी कार्य-ऊर्जा प्रकट होती है। विकीरण की उपयोगिता-पूरकता सिद्ध होती है। किसी भी धरती पर जब पानी यौगिक विधि से घटित होता है, उसमें विकीरण का योगदान रहता है - जलने वाली वस्तु और जलाने वाली वस्तु को मिलाने के लिए।
प्रश्न: विकीरण वस्तु के रूप में क्या है?
उत्तर: अजीर्ण-परमाणु वस्तु है। विकीरण अजीर्ण-परमाणु का "प्रभाव" है। विकीरण को ब्रह्मांडीय-किरणे भी कहते हैं। ब्रह्मांडीय किरणों से धरती पर ऋतु-संतुलन प्रमाणित होता है। धरती पर पानी बनने का आधार यही है। विकीरण सकारात्मक और प्राकृतिक रूप में इस तरह काम कर रहा है। विकीरण का नकारात्मक प्रयोग भ्रमित-मनुष्य करता है।
सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है। ऊर्जा है, इसीलिये जड़-प्रकृति कार्य-रत है। ज्ञान है, इसीलिये चैतन्य-प्रकृति कार्य-रत है। जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता में संपृक्त है। सत्ता में जड़ प्रकृति के भीगे होने पर उसका नाम "ऊर्जा" है। सत्ता में चैतन्य-प्रकृति भीगे होने पर उसका नाम "ज्ञान" है।
ज्ञान का मतलब है "चेतना"। चेतना को छोड़ कर काम करते हुए न आप मनुष्य को देख सकते हो, न दिखा सकते हो।
चेतना के चार स्तर हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना।
चैतन्य-प्रकृति (जीवन) अपनी "प्रवृत्ति" के अनुसार चेतना को व्यक्त करता है। प्रवृत्तियाँ हैं - चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में प्रवृत्ति, पांच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में प्रवृत्ति, तीन ईश्नाओं (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेषणा) में प्रवृत्ति, और उपकार में प्रवृत्ति। प्रवृत्ति ही प्रकट होता है। जीवन की प्रवृत्ति ही जीने में प्रकट होती है। जीने पर ही प्रवृत्ति का पता चलता है। हम अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही जीते हैं। जीवन में गुणात्मक-परिवर्तन की स्थितियों के अनुसार प्रवृत्तियां हैं।
प्रवृत्तियों का प्रकटन "योग्यता" है। सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता का एक नाम "योग्यता" है।
प्रवृत्ति के अनुसार ही "स्वभाव" है। जड़-प्रकृति ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। चैतन्य-प्रकृति ज्ञान-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
साम्य-ऊर्जा, कार्य-ऊर्जा, प्रकटनशीलता
व्यापक-वस्तु साम्य रूप में प्रकृति की सभी इकाइयों को प्राप्त है। यह एक दूसरे के बीच में खाली-स्थली के रूप में सभी जगह दिखता है। दो धरतियों के बीच में यही व्यापक वस्तु है। उसी तरह - दो व्यक्तियों के बीच में, दो जानवरों के बीच में, दो अणुओं के बीच में, दो परमाणुओं के बीच में, दो परमाणु-अंशों के बीच में भी यही व्यापक-वस्तु है। सभी जगह है, इसलिए व्यापक है।
प्रश्न: व्यापक वस्तु के इस तरह प्रकृति की सभी इकाइयों के बीच में होने का क्या प्रयोजन है?
उत्तर: व्यापक वस्तु के इस तरह प्रकृति की इकाइयों के बीच में होने से उन इकाइयों के एक-दूसरे को पहचानने की व्यवस्था है। यदि इकाइयों के बीच में खाली-स्थली नहीं होती तो वे एक-दूसरे को पहचानते कैसे? व्यापक-वस्तु के पारदर्शी होने से इकाइयों का एक-दूसरे को पहचानना संभव है।
दूसरे, व्यापक-वस्तु सभी इकाइयों को प्राप्त है। यह सभी इकाइयों में पारगामी है। एक परमाणु-अंश, एक परमाणु, एक अणु, एक पत्थर, एक पेड़, एक जानवर, एक मनुष्य, एक धरती - सभी में से यह पारगामी है।
प्रश्न: पारगामियता है, इसका क्या प्रमाण है?
उत्तर: इकाइयों की ऊर्जा-सम्पन्नता ही पारगामियता का प्रमाण है। इकाइयों के कार्य करने के पहले जो ऊर्जा उनको प्राप्त रहता है - उसका नाम है साम्य-ऊर्जा। साम्य-ऊर्जा सबको प्राप्त है। साम्य-ऊर्जा प्राप्त होने से सभी प्रकृति क्रियाशील है। क्रियाशीलता के फलस्वरूप कार्य-ऊर्जा है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित-विज्ञान में नहीं पढ़ाया जाता। मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन में यहाँ साम्य-ऊर्जा को हम पढ़ाते हैं।
प्रश्न: कार्य-ऊर्जा का क्या प्रयोजन है?
उत्तर: कार्य-ऊर्जा का प्रयोजन है - "एक दूसरे का विकास"! जिससे विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति का प्रकटन होता है। उपयोगिता-पूरकता के रूप में कार्य-ऊर्जा है। अगली अवस्था के लिए पिछली अवस्था की उपयोगिता, पिछली अवस्था के लिए अगली अवस्था की पूरकता। "पिछली अवस्था में अगली अवस्था का भ्रूण बना रहता है।" - यह सिद्धांत है। यह सिद्धांत प्रचलित-विज्ञान में नहीं पढ़ाया जाता। उसको यहाँ मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन में हम पढ़ाते हैं।
पिछली अवस्था में अगली अवस्था का भ्रूण बना रहता है, तभी अगली अवस्था प्रकट होती है। इस तरह - सह-अस्तित्व नित्य प्रकटनशील है। सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता के आधार पर मनुष्य भी प्रकट हो गया।
प्रश्न: मनुष्य के प्रकट होने का क्या प्रयोजन है?
उत्तर: मनुष्य के प्रकट होने का प्रयोजन है, वह "सह-अस्तित्व के प्रतिरूप" स्वरूप में काम करे। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान के साथ अपने जीवन को सार्थक बनाए।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
प्रश्न: व्यापक वस्तु के इस तरह प्रकृति की सभी इकाइयों के बीच में होने का क्या प्रयोजन है?
उत्तर: व्यापक वस्तु के इस तरह प्रकृति की इकाइयों के बीच में होने से उन इकाइयों के एक-दूसरे को पहचानने की व्यवस्था है। यदि इकाइयों के बीच में खाली-स्थली नहीं होती तो वे एक-दूसरे को पहचानते कैसे? व्यापक-वस्तु के पारदर्शी होने से इकाइयों का एक-दूसरे को पहचानना संभव है।
दूसरे, व्यापक-वस्तु सभी इकाइयों को प्राप्त है। यह सभी इकाइयों में पारगामी है। एक परमाणु-अंश, एक परमाणु, एक अणु, एक पत्थर, एक पेड़, एक जानवर, एक मनुष्य, एक धरती - सभी में से यह पारगामी है।
प्रश्न: पारगामियता है, इसका क्या प्रमाण है?
उत्तर: इकाइयों की ऊर्जा-सम्पन्नता ही पारगामियता का प्रमाण है। इकाइयों के कार्य करने के पहले जो ऊर्जा उनको प्राप्त रहता है - उसका नाम है साम्य-ऊर्जा। साम्य-ऊर्जा सबको प्राप्त है। साम्य-ऊर्जा प्राप्त होने से सभी प्रकृति क्रियाशील है। क्रियाशीलता के फलस्वरूप कार्य-ऊर्जा है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित-विज्ञान में नहीं पढ़ाया जाता। मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन में यहाँ साम्य-ऊर्जा को हम पढ़ाते हैं।
प्रश्न: कार्य-ऊर्जा का क्या प्रयोजन है?
उत्तर: कार्य-ऊर्जा का प्रयोजन है - "एक दूसरे का विकास"! जिससे विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति का प्रकटन होता है। उपयोगिता-पूरकता के रूप में कार्य-ऊर्जा है। अगली अवस्था के लिए पिछली अवस्था की उपयोगिता, पिछली अवस्था के लिए अगली अवस्था की पूरकता। "पिछली अवस्था में अगली अवस्था का भ्रूण बना रहता है।" - यह सिद्धांत है। यह सिद्धांत प्रचलित-विज्ञान में नहीं पढ़ाया जाता। उसको यहाँ मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन में हम पढ़ाते हैं।
पिछली अवस्था में अगली अवस्था का भ्रूण बना रहता है, तभी अगली अवस्था प्रकट होती है। इस तरह - सह-अस्तित्व नित्य प्रकटनशील है। सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता के आधार पर मनुष्य भी प्रकट हो गया।
प्रश्न: मनुष्य के प्रकट होने का क्या प्रयोजन है?
उत्तर: मनुष्य के प्रकट होने का प्रयोजन है, वह "सह-अस्तित्व के प्रतिरूप" स्वरूप में काम करे। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान के साथ अपने जीवन को सार्थक बनाए।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
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