सत्ता ही ऊर्जा है, जिसके प्राप्त होने से प्रकृति क्रियाशील है। क्रियाशील होने से कार्य-ऊर्जा तैयार होता है। कार्य-ऊर्जा का प्रयोजन उपयोगिता-पूरकता के रूप में सिद्ध होता है।
जैसे एक अजीर्ण-परमाणु क्रियाशील होने से विकीरण (radiation) के रूप में उसकी कार्य-ऊर्जा प्रकट होती है। विकीरण की उपयोगिता-पूरकता सिद्ध होती है। किसी भी धरती पर जब पानी यौगिक विधि से घटित होता है, उसमें विकीरण का योगदान रहता है - जलने वाली वस्तु और जलाने वाली वस्तु को मिलाने के लिए।
प्रश्न: विकीरण वस्तु के रूप में क्या है?
उत्तर: अजीर्ण-परमाणु वस्तु है। विकीरण अजीर्ण-परमाणु का "प्रभाव" है। विकीरण को ब्रह्मांडीय-किरणे भी कहते हैं। ब्रह्मांडीय किरणों से धरती पर ऋतु-संतुलन प्रमाणित होता है। धरती पर पानी बनने का आधार यही है। विकीरण सकारात्मक और प्राकृतिक रूप में इस तरह काम कर रहा है। विकीरण का नकारात्मक प्रयोग भ्रमित-मनुष्य करता है।
सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है। ऊर्जा है, इसीलिये जड़-प्रकृति कार्य-रत है। ज्ञान है, इसीलिये चैतन्य-प्रकृति कार्य-रत है। जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता में संपृक्त है। सत्ता में जड़ प्रकृति के भीगे होने पर उसका नाम "ऊर्जा" है। सत्ता में चैतन्य-प्रकृति भीगे होने पर उसका नाम "ज्ञान" है।
ज्ञान का मतलब है "चेतना"। चेतना को छोड़ कर काम करते हुए न आप मनुष्य को देख सकते हो, न दिखा सकते हो।
चेतना के चार स्तर हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना।
चैतन्य-प्रकृति (जीवन) अपनी "प्रवृत्ति" के अनुसार चेतना को व्यक्त करता है। प्रवृत्तियाँ हैं - चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में प्रवृत्ति, पांच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में प्रवृत्ति, तीन ईश्नाओं (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेषणा) में प्रवृत्ति, और उपकार में प्रवृत्ति। प्रवृत्ति ही प्रकट होता है। जीवन की प्रवृत्ति ही जीने में प्रकट होती है। जीने पर ही प्रवृत्ति का पता चलता है। हम अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही जीते हैं। जीवन में गुणात्मक-परिवर्तन की स्थितियों के अनुसार प्रवृत्तियां हैं।
प्रवृत्तियों का प्रकटन "योग्यता" है। सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता का एक नाम "योग्यता" है।
प्रवृत्ति के अनुसार ही "स्वभाव" है। जड़-प्रकृति ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। चैतन्य-प्रकृति ज्ञान-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
जैसे एक अजीर्ण-परमाणु क्रियाशील होने से विकीरण (radiation) के रूप में उसकी कार्य-ऊर्जा प्रकट होती है। विकीरण की उपयोगिता-पूरकता सिद्ध होती है। किसी भी धरती पर जब पानी यौगिक विधि से घटित होता है, उसमें विकीरण का योगदान रहता है - जलने वाली वस्तु और जलाने वाली वस्तु को मिलाने के लिए।
प्रश्न: विकीरण वस्तु के रूप में क्या है?
उत्तर: अजीर्ण-परमाणु वस्तु है। विकीरण अजीर्ण-परमाणु का "प्रभाव" है। विकीरण को ब्रह्मांडीय-किरणे भी कहते हैं। ब्रह्मांडीय किरणों से धरती पर ऋतु-संतुलन प्रमाणित होता है। धरती पर पानी बनने का आधार यही है। विकीरण सकारात्मक और प्राकृतिक रूप में इस तरह काम कर रहा है। विकीरण का नकारात्मक प्रयोग भ्रमित-मनुष्य करता है।
सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है। ऊर्जा है, इसीलिये जड़-प्रकृति कार्य-रत है। ज्ञान है, इसीलिये चैतन्य-प्रकृति कार्य-रत है। जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता में संपृक्त है। सत्ता में जड़ प्रकृति के भीगे होने पर उसका नाम "ऊर्जा" है। सत्ता में चैतन्य-प्रकृति भीगे होने पर उसका नाम "ज्ञान" है।
ज्ञान का मतलब है "चेतना"। चेतना को छोड़ कर काम करते हुए न आप मनुष्य को देख सकते हो, न दिखा सकते हो।
चेतना के चार स्तर हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना।
चैतन्य-प्रकृति (जीवन) अपनी "प्रवृत्ति" के अनुसार चेतना को व्यक्त करता है। प्रवृत्तियाँ हैं - चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में प्रवृत्ति, पांच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में प्रवृत्ति, तीन ईश्नाओं (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेषणा) में प्रवृत्ति, और उपकार में प्रवृत्ति। प्रवृत्ति ही प्रकट होता है। जीवन की प्रवृत्ति ही जीने में प्रकट होती है। जीने पर ही प्रवृत्ति का पता चलता है। हम अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही जीते हैं। जीवन में गुणात्मक-परिवर्तन की स्थितियों के अनुसार प्रवृत्तियां हैं।
प्रवृत्तियों का प्रकटन "योग्यता" है। सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता का एक नाम "योग्यता" है।
प्रवृत्ति के अनुसार ही "स्वभाव" है। जड़-प्रकृति ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। चैतन्य-प्रकृति ज्ञान-सम्पन्नता पूर्वक अपनी उपयोगिता-सदुपयोगिता को सिद्ध करता है - यही उसका स्वभाव है। सत्ता (व्यापक) जड़ प्रकृति को ऊर्जा स्वरूप में प्राप्त है, और चैतन्य-प्रकृति को ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment