मनुष्य के समाधानित होने के लिए उसका ज्ञान-संपन्न होना आवश्यक है। ज्ञान है - अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझ पाना। सह-अस्तित्व में जीवन को समझना। सह-अस्तित्व में मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना। यह तीन बात समझ में आता है तो "ज्ञान" हुआ। उसके पहले ज्ञान हुआ नहीं।
अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझने का मतलब है - सह-अस्तित्व में "दृष्टा-पद प्रतिष्ठा" को पाना।
मनुष्य ही सह-अस्तित्व में अध्ययन करता है। अध्ययन का प्रयोजन ही है - सह-अस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा को पाना। व्यापक और एक-एक वस्तु का सह-अस्तित्व है। यह चार अवस्था (पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था) तथा चार पद (प्राण-पद, भ्रांत-पद, देव-पद, और दिव्य-पद) के स्वरूप में प्रकट है। यही अध्ययन की वस्तु है।
सह-अस्तित्व में ही जीवन-ज्ञान है।
सह-अस्तित्व में ही मानवीयता-पूर्ण-आचरण ज्ञान है। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता चलता है। सुविधा-संग्रह के ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता नहीं चलता। भक्ति-विरक्ति के ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता नहीं चलता।
सह-अस्तित्व में ज्ञान होने पर ही पता चला "मानव-चेतना" का स्वरूप क्या है
मानव-चेतना पूर्वक जीने से "उपकार" करने की विधि आ गयी। उपकार का स्वरूप-ज्ञान होने से देव-चेतना और दिव्य-चेतना का पता चला। मानव-चेतना से पहले उपकार होता नहीं है, चाहे कुछ भी कर लें।
संग्रह-सुविधा विधि से उपकार होता है, या शोषण होता है? आज जिनको सर्वोपरि विद्वान मानते हैं, वे उपकार कर रहे हैं, या शोषण कर रहे हैं?
शोषण करना है, या नहीं करना है? - यह पूछते हैं, तो सभी मनुष्यों का यही उत्तर मिलता है - "नहीं करना है।"
प्रश्न: "शोषण नहीं करना है" - यह सभी मनुष्यों का उत्तर कैसे है?
उत्तर: यही तो जीवन-सहज है। जीवन में "शुभ का चाहत" बना हुआ है। जीवन सहज रूप में शुभ को ही चाहता है। जीवन सुखी होना चाहता है, इसी लिए मनुष्य से ऐसा सकारात्मक-उदगार निकलता है।
प्रश्न: जीवन सहज रूप में "शुभ" को ही क्यों चाहता है?
उत्तर: क्योंकि जीवन की गम्य-स्थली "शुभ" है।
प्रश्न: जीवन को (या मुझे) पता कैसे चला कि उसका गम्य-स्थली "शुभ" है?
उत्तर: जीवन को पता नहीं है, पर ऐसा है! अभी जो लोग कहते हैं, हम "सुखी" हैं या "दुखी" हैं - उनको पता ही नहीं है - सुख क्या है? अभी तक केवल संवेदनाओं का ज्ञान है। संवेदनाएं जब तक राजी रहती हैं, तब तक अपने को "सुखी" मान लेते हैं। संवेदनाएं जब राजी नहीं रहती तो अपने को "दुखी" मान लेते हैं। जंगल-युग में क्रूर जीव-जानवरों से दुखी होने की बात होती थी। आज अमानवीयता से दुखी होने की बात है, जिसको हम "शोषण" कह रहे हैं। सुखी होने की अपेक्षा में ही मनुष्य आज तक दुखी होता आया है।
प्रश्न: सुखी होने की अपेक्षा मनुष्य में आ कैसे गयी?
उत्तर: संवेदनाओं की सीमा में जीने से मनुष्य को सुख भासता है (या सुख जैसा लगता है) - पर वह सुख होता नहीं है। सुख के इस भास् के टूटने से मनुष्य दुखी होता है। "दुःख नहीं चाहिए" - यह मनुष्य को पता चलता है। पर "सुख" क्या है - यह पता नहीं चलता। "दुःख नहीं चाहिए" - इस बात का ज्ञान मनुष्य को जंगल-युग से ही है। ऐसी स्थिति जिसमें "दुःख नहीं हो" - उसको मनुष्य ने "सुख" नाम दे दिया। इस तरह "सुख चाहिए" - यह बात मनुष्य के पकड़ में आयी। "सुख" नाम पकड़ में आया। लेकिन "सुखी" कैसे होना है - यह मनुष्य के पकड़ में नहीं आया। मनुष्य की यह स्थिति जंगल युग से आज के अत्याधुनिक-युग तक बनी हुई है। अत्याधुनिक-युग में मनुष्य ने बहुत शेखी मारा - ऐसा कर देंगे, तैसा कर देंगे! पर उसका सुखी होना भर बना नहीं!
अब क्या किया जाए? यही पुनर्विचार की स्थिति है।
उसी क्रम में यह अनुसंधान हुआ है। अनुसंधान पूर्वक पता चला - मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव का सुखी होना बनता है।
अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीवों से अच्छा जीने का कोशिश किया है - यह भी है। पर इसी क्रम में धरती बीमार हो गया। भ्रमित-मनुष्य द्वारा जंगल और खनिज के अनानुपातीय शोषण से ही धरती बीमार हुई है। धरती जो बीमार हो गयी तो मानव-चेतना को अपनाना मनुष्य के लिए अनिवार्य हो गया। मनुष्य धरती को तंग करते ही जाए तो धरती सुधरेगा कैसे? मनुष्य समझे, धरती को तंग करना बंद करे - तो धरती का अपने-आप सुधरना बनेगा।
मानव-चेतना विधि से वन और खनिज के अनुपात को समझा जाए, जिससे ऋतु-संतुलन रहने की बात बनती है। ऋतु-संतुलन पूर्वक भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करने से "समृद्धि" आती है। इस प्रकार समाधान और समृद्धि पूर्वक मनुष्य का सुख और शान्ति पूर्वक जीना बनता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझने का मतलब है - सह-अस्तित्व में "दृष्टा-पद प्रतिष्ठा" को पाना।
मनुष्य ही सह-अस्तित्व में अध्ययन करता है। अध्ययन का प्रयोजन ही है - सह-अस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा को पाना। व्यापक और एक-एक वस्तु का सह-अस्तित्व है। यह चार अवस्था (पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था) तथा चार पद (प्राण-पद, भ्रांत-पद, देव-पद, और दिव्य-पद) के स्वरूप में प्रकट है। यही अध्ययन की वस्तु है।
सह-अस्तित्व में ही जीवन-ज्ञान है।
सह-अस्तित्व में ही मानवीयता-पूर्ण-आचरण ज्ञान है। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता चलता है। सुविधा-संग्रह के ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता नहीं चलता। भक्ति-विरक्ति के ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता नहीं चलता।
सह-अस्तित्व में ज्ञान होने पर ही पता चला "मानव-चेतना" का स्वरूप क्या है
मानव-चेतना पूर्वक जीने से "उपकार" करने की विधि आ गयी। उपकार का स्वरूप-ज्ञान होने से देव-चेतना और दिव्य-चेतना का पता चला। मानव-चेतना से पहले उपकार होता नहीं है, चाहे कुछ भी कर लें।
संग्रह-सुविधा विधि से उपकार होता है, या शोषण होता है? आज जिनको सर्वोपरि विद्वान मानते हैं, वे उपकार कर रहे हैं, या शोषण कर रहे हैं?
शोषण करना है, या नहीं करना है? - यह पूछते हैं, तो सभी मनुष्यों का यही उत्तर मिलता है - "नहीं करना है।"
प्रश्न: "शोषण नहीं करना है" - यह सभी मनुष्यों का उत्तर कैसे है?
उत्तर: यही तो जीवन-सहज है। जीवन में "शुभ का चाहत" बना हुआ है। जीवन सहज रूप में शुभ को ही चाहता है। जीवन सुखी होना चाहता है, इसी लिए मनुष्य से ऐसा सकारात्मक-उदगार निकलता है।
प्रश्न: जीवन सहज रूप में "शुभ" को ही क्यों चाहता है?
उत्तर: क्योंकि जीवन की गम्य-स्थली "शुभ" है।
प्रश्न: जीवन को (या मुझे) पता कैसे चला कि उसका गम्य-स्थली "शुभ" है?
उत्तर: जीवन को पता नहीं है, पर ऐसा है! अभी जो लोग कहते हैं, हम "सुखी" हैं या "दुखी" हैं - उनको पता ही नहीं है - सुख क्या है? अभी तक केवल संवेदनाओं का ज्ञान है। संवेदनाएं जब तक राजी रहती हैं, तब तक अपने को "सुखी" मान लेते हैं। संवेदनाएं जब राजी नहीं रहती तो अपने को "दुखी" मान लेते हैं। जंगल-युग में क्रूर जीव-जानवरों से दुखी होने की बात होती थी। आज अमानवीयता से दुखी होने की बात है, जिसको हम "शोषण" कह रहे हैं। सुखी होने की अपेक्षा में ही मनुष्य आज तक दुखी होता आया है।
प्रश्न: सुखी होने की अपेक्षा मनुष्य में आ कैसे गयी?
उत्तर: संवेदनाओं की सीमा में जीने से मनुष्य को सुख भासता है (या सुख जैसा लगता है) - पर वह सुख होता नहीं है। सुख के इस भास् के टूटने से मनुष्य दुखी होता है। "दुःख नहीं चाहिए" - यह मनुष्य को पता चलता है। पर "सुख" क्या है - यह पता नहीं चलता। "दुःख नहीं चाहिए" - इस बात का ज्ञान मनुष्य को जंगल-युग से ही है। ऐसी स्थिति जिसमें "दुःख नहीं हो" - उसको मनुष्य ने "सुख" नाम दे दिया। इस तरह "सुख चाहिए" - यह बात मनुष्य के पकड़ में आयी। "सुख" नाम पकड़ में आया। लेकिन "सुखी" कैसे होना है - यह मनुष्य के पकड़ में नहीं आया। मनुष्य की यह स्थिति जंगल युग से आज के अत्याधुनिक-युग तक बनी हुई है। अत्याधुनिक-युग में मनुष्य ने बहुत शेखी मारा - ऐसा कर देंगे, तैसा कर देंगे! पर उसका सुखी होना भर बना नहीं!
अब क्या किया जाए? यही पुनर्विचार की स्थिति है।
उसी क्रम में यह अनुसंधान हुआ है। अनुसंधान पूर्वक पता चला - मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव का सुखी होना बनता है।
अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीवों से अच्छा जीने का कोशिश किया है - यह भी है। पर इसी क्रम में धरती बीमार हो गया। भ्रमित-मनुष्य द्वारा जंगल और खनिज के अनानुपातीय शोषण से ही धरती बीमार हुई है। धरती जो बीमार हो गयी तो मानव-चेतना को अपनाना मनुष्य के लिए अनिवार्य हो गया। मनुष्य धरती को तंग करते ही जाए तो धरती सुधरेगा कैसे? मनुष्य समझे, धरती को तंग करना बंद करे - तो धरती का अपने-आप सुधरना बनेगा।
मानव-चेतना विधि से वन और खनिज के अनुपात को समझा जाए, जिससे ऋतु-संतुलन रहने की बात बनती है। ऋतु-संतुलन पूर्वक भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करने से "समृद्धि" आती है। इस प्रकार समाधान और समृद्धि पूर्वक मनुष्य का सुख और शान्ति पूर्वक जीना बनता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
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