वस्तु (इकाई) रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के अविभाज्य स्वरूप में है. वस्तु ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर है. ज्ञानगोचर में इन्द्रियगोचर समाया रहता है. इस आधार पर इन्द्रियों द्वारा हम सूचनाओं को ग्रहण करते हैं. रूप इन्द्रियगोचर है. सम और विषम गुण इन्द्रियगोचर हैं. मध्यस्थ गुण (होना-रहना) ज्ञानगोचर है. स्वभाव और धर्म केवल ज्ञानगोचर है. स्वभाव और धर्म समझने पर इकाई की सम्पूर्णता को लेकर हमारा स्वीकृति हो जाता है. यह स्पष्ट होता है कि इकाई + वातावरण = इकाई सम्पूर्ण. स्वभाव और धर्म ही इकाई की सम्पूर्णता में उपयोगिता-पूरकता के स्वरूप में होता है. इस तरह सम्पूर्णता के ज्ञान के साथ इकाई की प्रयोजनीयता, उपयोगिता व पूरकता स्पष्ट हो जाता है. इस ढंग से सहअस्तित्व में जीने या प्रमाणित होने का सूत्र बनता है.
मानव में वस्तु की पहचान इन्द्रियगोचर व ज्ञानगोचर विधि से होता है. वस्तु के साथ प्रमाणित होना इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है.
ज्ञानगोचर जिसको हुआ वह इन्द्रियों के माध्यम से संप्रेषित होता है, जिसको उसके सामने वाला जब सुनता है तो वह समझने के लिए अपने को ज्ञानगोचर तक पहुंचाता है. तभी उसके वस्तु को पहचानने वाली बात आती है. यही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक साक्षात्कार-बोध-अनुभव का रास्ता बनता है. यह रास्ता जितना सुगम होता जाता है, संसार में उतना ही उपकार होता जाता है. यह रास्ता जितना संकीर्ण होता है, या बंद हो जाता है, उतना ही भयभीत होने की जगह में आ जाते हैं. अभी मानव भयभीत होने की जगह में पहुँच गया है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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