ANNOUNCEMENTS



Thursday, September 23, 2021

सम्पूर्णता को लेकर स्वीकृति



वस्तु (इकाई) रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के अविभाज्य स्वरूप में है.  वस्तु ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर है.  ज्ञानगोचर में इन्द्रियगोचर समाया रहता है.  इस आधार पर इन्द्रियों द्वारा हम सूचनाओं को ग्रहण करते हैं.  रूप इन्द्रियगोचर है.  सम और विषम गुण इन्द्रियगोचर हैं.  मध्यस्थ गुण (होना-रहना) ज्ञानगोचर है.  स्वभाव और धर्म केवल ज्ञानगोचर है.  स्वभाव और धर्म समझने पर इकाई की सम्पूर्णता को लेकर हमारा स्वीकृति हो जाता है.   यह स्पष्ट होता है कि इकाई + वातावरण = इकाई सम्पूर्ण.  स्वभाव और धर्म ही इकाई की सम्पूर्णता में उपयोगिता-पूरकता के स्वरूप में होता है.  इस तरह सम्पूर्णता के ज्ञान के साथ इकाई की प्रयोजनीयता, उपयोगिता व पूरकता स्पष्ट हो जाता है.  इस ढंग से सहअस्तित्व में जीने या प्रमाणित होने का सूत्र बनता है.  


मानव में वस्तु की पहचान इन्द्रियगोचर व ज्ञानगोचर विधि से होता है.  वस्तु के साथ प्रमाणित होना इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है.  


ज्ञानगोचर जिसको हुआ वह इन्द्रियों के माध्यम से संप्रेषित होता है, जिसको उसके सामने वाला जब सुनता है तो वह समझने के लिए अपने को ज्ञानगोचर तक पहुंचाता है.  तभी उसके वस्तु को पहचानने वाली बात आती है.  यही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक साक्षात्कार-बोध-अनुभव का रास्ता बनता है.  यह रास्ता जितना सुगम होता जाता है, संसार में उतना ही उपकार होता जाता है.  यह रास्ता जितना संकीर्ण होता है, या बंद हो जाता है, उतना ही भयभीत होने की जगह में आ जाते हैं.  अभी मानव भयभीत होने की जगह में पहुँच गया है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Wednesday, September 22, 2021

सर्वशुभ का स्वरूप


(अध्ययन विधि से) अस्तित्व में वस्तु का साक्षात्कार होता है.  सहअस्तित्व स्वरूप में सम्पूर्णता का और उसके विस्तार में चारों अवस्थाओं का साक्षात्कार होता है.  इस तरह चारों अवस्थाओं के साथ हमारे सम्बन्ध की पहचान और इनके अंतर्संबंधों की पहचान होती है.  नियति विधि से "अंतर्संबंध" हैं, मानव के कार्य विधि से "सम्बन्ध" हैं.  मानव कार्य विधि से चारों अवस्थाओं के साथ अपने सम्बन्ध को पहचानता है और प्रमाणित करता है.  नियति विधि से पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक जो प्रकटन हुआ है, इसके शाश्वत अन्तर्सम्बन्धों की पहचान होती है.  इन शाश्वत अंतर्संबंधों के आधार पर अपने आचरण को fit कर देना - इसी का नाम है उपयोग, सदुपयोग और प्रयोजनशीलता.  


अध्ययन विधि से यह पहचान क्रम से होता है.  अनुक्रम से सम्पूर्णता समझ में आता है, अनुभव में आता है.  अनुक्रम का अर्थ है - मानव के साथ खनिज संसार, वनस्पति संसार, जीव संसार कैसा सम्बंधित है, एक दूसरे के साथ कैसा अनुप्राणित है.  इन सबके साथ हम जुड़े हैं, सम्बंधित हैं - शरीर से और जीवन से.  इन जुडी हुई कड़ियों को पहचानने की बात है.  यही तो सम्बन्ध है, और कौनसा सम्बन्ध है?  यह मार्मिक बात है.  ऐसे सम्बन्ध पहचानने से मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन प्रमाणित होगा और मानव प्रकृति के साथ न्याय, धर्म, सत्य प्रमाणित होगा.  फलस्वरूप मानव परम्परा संतुलित रहेगा.  मानव अपराध मुक्त हो कर, अपना-पराया से मुक्त हो कर अच्छे ढंग से जी पायेगा, धरती को तंग करने की आवश्यकता समाप्त होगी, धरती को अपने में सुधरने का अवसर बनेगा, फलस्वरूप शाश्वत रूप में मानव परम्परा के धरती पर रहने की सम्भावना बनेगी.  सर्वशुभ का स्वरूप यही है.  सर्वशुभ में स्वशुभ समाया है.  सर्वशुभ को काट कर स्वशुभ को आज तक कोई प्रमाणित नहीं किया.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)