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Monday, September 30, 2019

वर्तुलात्मक गति और कम्पनात्मक गति


परिवेशीय गति को वर्तुलात्मक गति कहा है.  जैसे - सौर मंडल में धरती का घूमना हो या परमाणु में परमाणु अंशों का घूमना.

इकाई अपने में एक मात्रा है.  ऊर्जा सम्पन्नता उसमे रहता ही है, जिससे हर परमाणु उसमे क्रियाशील रहते हैं.  ऐसे सारे परमाणुओं के साथ में उस इकाई में कम्पनात्मक गति प्रकट हो जाती है.  कम्पनात्मक गति सभी ओर हिल-डुल, कंपकपी के रूप में होती है.  कम्पनात्मक गति इकाई का वातावरण बनाती है.  इकाइयों के बीच अच्छी निश्चित दूरी तय करने का आधार कम्पनात्मक गति है.  एक ग्रह-गोल व दूसरे ग्रह-गोल के बीच, एक परमाणु व दूसरे परमाणु के बीच निश्चित अच्छी दूरी कम्पनात्मक गति के आधार पर होती है. 

प्रश्न:  आपने लिखा है - "गठनपूर्ण परमाणु में कम्पनात्मक गति वर्तुलात्मक गति से अधिक हो जाती है."  इसका क्या आशय है?

उत्तर: परमाणु में जब तक वर्तुलात्मक गति कम्पनात्मक गति से अधिक रहता है तब तक जड़ परमाणु है.  जड़   परमाणु भौतिक या रासायनिक क्रिया में भागीदारी करता हुआ हो सकता है.  जड़ परमाणु भौतिक क्रिया में सहवास विधि से साथ-साथ रहते हैं, रासायनिक क्रिया में यौगिक विधि से साथ-साथ रहते हैं.  रासायनिक क्रिया जीवन क्रिया से सेतु जैसा काम करता है.  जीव शरीर और मानव शरीर रासायनिक क्रिया ही है.  शरीर के बिना जीवन क्रिया के व्यक्त होने का प्रश्न ही नहीं है.

गठनपूर्ण होते ही परमाणु अणुबंधन और भारबंधन से मुक्त हो गया और उसी मुहूर्त (समय) से आशा-बंधन युक्त हो गया.  अपने कार्य गतिपथ को आशानुरूप तैयार कर लिया.  जीवन का यह कार्य गतिपथ अपने आप में एक आकार होता है.  उस आकार का शरीर रचना उपलब्ध रहता है.  उस शरीर को वह चलाता है.  कम्पनात्मक गतिवश ही जीवन अपने कार्यगति पथ को तैयार कर पाता है.  जीवन में कम्पनात्मक गति मनोगति के बराबर होता है. 

जीवन में वर्तुलात्मक गति उसकी कार्य सीमा है.  कम्पनात्मक गति उस कार्य सीमा से अधिक है.  तभी वह अपने पुन्जाकार को तैयार किया.  इस तरह कम्पनात्मक गति में वर्तुलात्मक गति नियंत्रित हो गयी. यही कम्पनात्मक गति आगे चल के आशा, विचार व इच्छा बंधन मुक्ति पूर्वक अनुभव तक का आधार बनना होता है.

प्रश्न: "चैतन्य क्रिया में कम्पनात्मक गति ही संचेतना एवं वर्तुलात्मक गति ही यांत्रिकता है." - आपके इस कथन का क्या आशय है?

उत्तर: वर्तुलात्मक गति बार बार दोहराने के रूप में होता है, उसको "यांत्रिकता" मैंने नाम दिया.   जैसे - जीवन का शरीर को पुन्जाकार बनाते हुए जीवंत बनाना यांत्रिकता है.  शरीर के साथ जीवन यांत्रिकता को व्यक्त करता है.  जीवन तृप्ति यांत्रिकता में नहीं है.  जीवन तृप्ति ज्ञान में है.  ज्ञान मानव परम्परा में कम्पनात्मक गति से परावर्तित होता है.  इसमें द्रव्य कुछ आता जाता नहीं है.  ज्ञान स्पष्ट होना, नहीं होना - यही रहता है.  ज्ञान स्वरूप में हम दूर दूर तक पहुँचते हैं, यांत्रिक स्वरूप में शरीर तक ही रहते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

Sunday, September 8, 2019

प्रकृति में संयमता का स्वरूप

प्रकृति में हर अवस्था के अनुसार संयमता है.  संयमता = आचरण. 

मानव को कैसे आचरण करना है, संयमता से रहना है - यह मानव चेतना विधि से आएगा, जीव चेतना विधि से आएगा नहीं. 

नियति विधि से यौगिक विधि से रसायन संसार में नृत्य (उत्सव) के आधार धरती पर प्राणावस्था स्थापित हुआ.  वनस्पतियों में स्त्री-कोषा व पुरुष-कोषा की परिकल्पना शुरू हुई.  वनस्पति संसार में एक स्त्री-कोषा है तो उसके लिए एक करोड़ पुरुष-कोषा होगा.  जबकि एक स्त्री-कोषा के साथ एक पुरुष-कोषा का योग फल होने के लिए पर्याप्त है. 

उसके बाद जीवावस्था में - गाय, बन्दर आदि में - नर में यौन संवेदना की संयमता कम है, मादा में संयमता अधिक है.  नर में यौन चेतना की विवशता अधिक है, मादा में यौन चेतना की विवशता कम है.  जीवों में यौन क्रिया सामयिक है.

मानव के प्रकटन के साथ यौन चेतना की संवेदना स्त्री और पुरुष में समान है.  मानव परम्परा में यौन चेतना की नर-नारी में समानता है.  विवेक को दोनों में समान रूप से प्रमाणित होना है.  नर-नारी में समानता का एक आयाम यह भी है.  इसे नियति क्रम का वैभव कहा जाए या पराभव कहा जाए - आप सोच लो!

ज्ञान के प्रमाणित होने में हर नर-नारी में समान अधिकार हैं.  यह समान अधिकार समझदारी में है, ज्ञान में है, विवेक में है, विज्ञान में है.  इस समान अधिकार की जगह में संसार अभी पहुंचा नहीं है.  अभी नर-नारी में समानता को लेकर सोचते हैं - "यदि एक रुपया है तो ५० पैसे नर का और ५० पैसे नारी का होना चाहिए!"  "यदि नर एक घूँसा मार सकता है तो नारी को दो घूँसा मारना चाहिए" - इसको समानता मानते हैं!  इसमें यदि आपका जीना बन जाता है तो क्या तकलीफ है?  मुझे इससे कोई तकलीफ नहीं है.

जीवों से अच्छा जीने के लिए शरीर संवेदना को आधार बना कर हम आज जी रहे हैं.  जीव चार विषयों की सीमा में जीते हैं.  मानव ४ विषयों के साथ ५ संवेदनाओं के साथ जीता है.  संवेदनाओं को राजी रखने और विषयों को भोगने के अर्थ में आज मानव का सारा जीना है.  इसके लिए सुविधा-संग्रह को लक्ष्य बना कर ज्ञानी, विज्ञानी. अज्ञानी तीनो पागल हैं.  इस सुविधा-संग्रह के पागलपन में धरती ही बीमार हो गयी.   धरती बीमार होने पर कौन जियेगा?  इसके विकल्प में इस प्रस्ताव का उदय हुआ कि समाधान-समृद्धि पूर्वक जिया जाए.  समाधान-समृद्धि पूर्वक हर परिवार जी सकता है.  हर व्यक्ति समाधान संपन्न हो सकता है.  पूरा मानव समाज समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाण परम्परा हो सकता है.  इस प्रस्ताव के किसी कोने में निरर्थकता आपको दिखता है तो आप बताइये, मैं उसकी सार्थकता आपको समझा दूंगा.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)

विश्वासघात का सुधार

प्रश्न: कुछ लोग जैसे दिखते हैं, वैसे वो हैं नहीं; जैसे वो हैं, वैसे दिखते नहीं हैं - ऐसे लोगों से कैसे बचा जाए?

उत्तर: ऐसे लोगों से कैसे बचें - एक चीज़ है, उनका सुधार कैसे हो - यह दूसरी चीज़ है.

ऐसे लोगों से बच के कहाँ जाओगे?  क्या इस प्रकार के लोग संसार में कम हैं?  ऐसे लोग संसार में बहुत हैं.

जैसे दिखना वैसा होना नहीं, जैसा होना वैसे दिखना नहीं - यह "विश्वासघात" है.

विश्वासघात का चार स्वरूप है - छल, कपट, दंभ, पाखण्ड.

छल = विश्वासघात के बाद भी जिसके साथ विश्वासघात हुआ हो, उसको समझ में नहीं आना.
कपट = विश्वासघात होने के बाद जिसके साथ विश्वासघात हुआ हो, उसको समझ में आना.
दंभ = आश्वासन पूर्वक विश्वासघात
पाखण्ड = दिखावा पूर्वक विश्वासघात

अभी जिस तरह की शिक्षा है, उससे इस प्रकार के ही आदमी तैयार हो रहे हैं.  इस तरह की शिक्षा कौन दे रहे हैं?  "अच्छा आदमी" जो कहलाते हैं, वही ऐसी शिक्षा दे रहे हैं.

यदि हम जागृत होते हैं तो हम इन सबके सुधार के लिए उत्तर हम दे पाएंगे.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)