This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
पहले मानव का हैसियत को पूरा प्रमाणित करो, फिर जीवन का हैसियत भी समझ में आएगा. मेरा सोच तो ऐसा ही है. मानव की हैसियत को प्रमाणित करने से पहले यदि हम आगे की बात करते हैं तो सब मनगढ़ंत ही होगा. पहले स्थूल रूप में समाधान, फिर सूक्ष्म रूप में समाधान, फिर कारण रूप में समाधान. इसमें किसको क्या तकलीफ है? पहले शरीर और जीवन के संयुक्त स्वरूप को समझने/जीने से पहले आगे की बात हो नहीं सकती.
मानव की हैसियत को समझना/जीना छोड़ कर यदि जीवन की हैसियत को समझने/जीने का प्रयास करते हैं तो या तो असमर्थता में जाते हैं या अपराध में जाते हैं. या तो दूसरों को दोष देने/निंदा करने में जाते हैं या स्वयं को मूर्ख मान लेते हैं - ये दोनों गलत हैं.
विधिवत बात है - चारों अवस्थाओं में परस्पर उपयोगिता-पूरकता प्रमाणित होने के बाद जीवन का हैसियत अपने आप से समझ में आता है. पहले मानव चेतना स्पष्ट हो जाए (जीने में आ जाए), फिर देवचेतना और दिव्यचेतना उनसे जुड़ी ही हुई है.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
वेदान्त परंपरा में बताया गया है - साधन चतुष्टय सम्पन्नता के बाद श्रवण करने का पात्रता होता है. चार महावाक्यों को श्रवण करने से मनन-निधिध्यासन होता है. मनन-निधिध्यासन का मतलब है - समाधि. "समाधि में अज्ञात ज्ञात होता है" - यह लेख में भी लिखा है. हमारे समय में रमण मह्रिषी और जिनका भी हम सम्मान करते थे - उनकी भाषा में भी यह था.
मैंने पाया - समाधि में कोई अज्ञात ज्ञात होता नहीं है. जो ज्ञात था, वह समाप्त-प्रायः हो जाता है. समाधि की अवस्था में सुख-दुःख का भास् नहीं होता. मैं जब समाधि की अवस्था में बैठा था तब एक दरवाजा मेरी पीठ पर गिरा, उसकी नोक से पीठ में एक इंच गड्ढा हो गया. समाधि अवस्था से उठने पर जब शरीर का अध्यास हुआ तब दर्द का पता चला - कम से कम आधा घंटे बाद! इन सब गवाहियों के साथ मैं विश्वास दिलाना चाहता हूँ - समाधि होता है, यह सही है. बुजुर्गों ने जो बताया था, वह गलत नहीं है. लेकिन समाधि होने की प्रक्रिया fixed नहीं है, न उसको हम fix कर सकते हैं. मैं समाधि-संपन्न व्यक्ति हूँ - फिर भी मैं ऐसा कह रहा हूँ. मैं समाधि की प्रक्रिया को fix नहीं कर सकता हूँ. इतने काल में, इस क्रिया से संतुष्टि होगी - इसको हम कह नहीं सकते. यह अनिश्चयता है. काल और क्रिया दोनों को समाधि हज़म किया रहता है.
प्रश्न: संयम में क्या होता है?
उत्तर: संयम में क्रिया साक्षात्कार होने लगता है. स्थिति साक्षात्कार, गति साक्षात्कार, वस्तु साक्षात्कार - ये तीन बात हैं. इसमें से स्थिति साक्षात्कार और गति साक्षात्कार पूरा हो जाता है. स्थिति साक्षात्कार = सारा अस्तित्व कैसे है, यह पहचान होना. गति साक्षात्कार = क्यों है, यह पहचान होना. क्यों और कैसे का उत्तर हो जाता है. यही सत्य बोध का मतलब है. यह बोध होने के बाद अनुभव तो होता ही है. अनुभव की फिर निरंतरता है. पूरा जीवन अनुभव में तद्रूप हो जाता है. सदा-सदा संगीत, सदा-सदा सत्य, सदा-सदा समाधान, सदा-सदा न्याय. अब ईंटा खिसकने की कोई जगह ही नहीं है!
यह जो मैंने बताया वह आपको बोध हो गया, या बोध होने में सहायक हुआ - तो यह सार्थक हो गया. सूचना तो हो गयी. अध्ययन विधि से शब्द के अर्थ को ग्रहण करने की विधि से यह पूरा हो जाएगा.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
अभी हम व्यापार परंपरा में हैं, संघर्ष परंपरा में हैं, या उपभोग परंपरा में हैं, और आशय के स्तर पर सुविधा-संग्रह परंपरा में हैं. इसमें उत्पादन का जिक्र ही नहीं है. यहाँ उत्पादन व्यापार ही है. व्यक्ति उत्पादन, उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता में प्रमाणित होता है. अभी सारा उत्पादन व्यापार में समर्पित है, जिसमे जितने हाथों से वस्तु निकलती है उसका दाम उतना बढ़ता जाता है. इस तरह उत्पादक और उपभोक्ता के बीच जो दलाली है, उससे दाम बढ़ता गया. इससे मानव का जीना दूभर होता जा रहा है.
राष्ट्रीय नीति ऐसा होना चाहिए कि हर परिवार अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर सके और उत्पादित वस्तुओं का विनिमय कर सके. राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था के लिए दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था प्रस्तावित है.
परिवार में समझदारी के उपरान्त अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना बन जाता है. समझदारी से समाधान होता है, फलस्वरूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना बनता है. बिना समझदारी के कोई अपनी आवश्यकता का निर्णय नहीं कर पाता है. आवश्यकता ही निर्णय नहीं हुई हो तो आवश्यकता से अधिक उत्पादन क्या करेगा?
मानव में जो निपुणता, कुशलता विकसित हो गयी है, उसको सर्वसुलभ करने की आवश्यकता है. इन दोनों के सुलभ होने के उपरान्त श्रम से समृद्ध होना सुलभ हो जाता है.
वर्तमान शिक्षा और व्यवस्था में यह कुछ प्रमाणित होना नहीं है. तृप्ति बिंदु इसमें कुछ मिलना नहीं है तो इसमें कब तक सिर कूटा जाए? विकल्प चाहिए! विकल्प है - दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था. इस व्यवस्था का मूल परिवार ही है. परिवार में ही मानव समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व पूर्वक जीना चाहता है. हर मानव में इसकी चाहत है. इस चाहत को पूरा करने के लिए हर व्यक्ति समझदार हो जाए.
- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००७, अमरकंटक)