ANNOUNCEMENTS



Saturday, October 21, 2017

साधना विधि का विवरण



इस धरती पर ७०० करोड़ आदमियों के मन में कोई भी प्रश्न हों तो उसका उत्तर मेरे पास है.  यदि समस्या है तो उसका समाधान है.  प्रश्न समस्या ही है.  अभी तक मैं उस जगह नहीं पहुंचा जो मुझे कहना पड़े कि इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं है.

प्रश्न:  आपने साधना किस विधि से किया - इसको कृपया और स्पष्ट करें.

उत्तर:  यह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है फिर भी इसका उत्तर इस प्रकार से है.

पतंजलि योग सूत्र में साधना की आठ भूमियों को बताया गया है.  ( यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाध्योअष्टावन्गानि  [ २९ - साधनपाद, पतंजलि योग सूत्र])

इसमें पहले 'यम' और 'नियम' को बताया है - जो आचरण से सम्बंधित हैं.

उसके बाद 'आसन' और 'प्राणायाम' को बताया है - जो शरीर स्वस्थता से सम्बंधित हैं.

उसके बाद 'प्रत्याहार' में बताया है - मानसिकता में क्या सोचना चाहिए और क्या नहीं सोचना चाहिए.  इसमें विरक्ति या असंग्रह विधि से जीने की प्रेरणा है.  संग्रह प्रवृत्ति से मुक्ति को बहुत अच्छे से यहाँ समझाया गया है.

उसके बाद है - 'धारणा'.  (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा [ १ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  जिसका मतलब है - किसी वस्तु या क्षेत्र में हमारी चित्त-वृत्तियाँ निरोध हो सकती हैं.  जैसे - एक चित्र के आकार में चित्त वृत्तियाँ निरोध होना.  कोई आकार, कोई देवी-देवता, कोई अक्षर, कोई कल्पना ही क्यों न हो, माता, पिता, गुरु या स्वयं के शरीर के आकार में चित्त-वृत्तियाँ निरोध हो जाने को हम धारणा कहेंगे.

इसके बाद उसके निश्चित बिंदु में यदि हमारी चित्त-वृत्तियाँ निरोध होती हैं, तो उसको 'ध्यान' नाम दिया.  ( तत्रप्रत्येकतानता ध्यानम  [२ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])

ध्यान के बिंदु का अर्थ रहे पर उसका स्वरूप न रहे, इस स्थिति का नाम है - 'समाधि'.  (तदेवार्थमात्रनिर्भासम स्वरूपशून्यमिव समाधिः [३ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])

इसको आप पतंजलि  योग सूत्र में पढेंगे तो आपको वह यथावत मिलेगा.

समाधि में चित्त वृत्ति निरोध होता ही है.  चित्त-वृत्ति निरोध होने का मतलब है - हमारी आशा, विचार और इच्छाएं चुप हो जाना.  शास्त्रों/प्राचीन ग्रंथों में आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं - यह नहीं लिखा है.  मैं स्वयं इसको देखा हूँ.  आशा, विचार और इच्छा का चुप हो जाना समाधि है.  इसके आधार पर ही शास्त्रों/प्राचीन ग्रंथों में लिखा है - मानव जो कुछ भी समझ सकता है, सोच सकता है - समाधि उसके पार की स्थिति है.  इस स्थिति में मुझे तो कोई ज्ञान मिला नहीं.  जिसको मिला हो, वो बताये!  समाधि का कोई गवाही नहीं होता है.  अब इसको बताएं तो कोई विश्वास कैसे करेगा?  तब 'संयम' की बात आयी.

(त्रयमेकत्र संयमः [४ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  एक विषय में तीनो (धारणा, ध्यान और समाधि) का होना संयम कहलाता  है.

विभूतिपाद में कई तरह के संयम की चर्चा है.  जैसे - (कंठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्ति [३०  - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  कंठकूप गलग्रंथि और स्वरग्रंथि के बीच के गड्ढे  को कहते हैं.    उस जगह में  संयम करने से भूख और प्यास से मुक्ति हो जाती है.  मेरे भूख-प्यास से मुक्त हो जाने से  संसार का कौनसा कल्याण हो जाएगा?  इससे क्या होने वाला  है?  ऐसा   अन्तःकरण में चर्चा होने पर उसका कोई  उत्तर मुझे मिला नहीं.

दूसरा - (नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् [२९  - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  अर्थात नाभिचक्र में   संयम करने से एक ही आदमी अनेक शरीर स्वरूप में व्यक्त  हो सकता है.   यह सिद्धि किसको चाहिए?  जानमारी, सेंधमारी, लूटमारी करने वालों को इसकी ज़रूरत होगी.  मेरे लिए इसका क्या प्रयोजन है?  मुझे इस सिद्धि  का अपने लिए कोई प्रयोजन दिखा नहीं.

इस प्रकार पूरा विभूतिपाद मेरे लिए प्रयोजन का ध्वनि दे नहीं पाया.  किसी को इनमे प्रयोजन दिखता हो तो करते रहे!

इसके चलते, संयम में धारणा-ध्यान-समाधि के क्रम को उलटा किया; इस अपेक्षा में कि शायद इससे भिन्न कोई फल निकल आये.  इन तीन स्थितियों को एकत्र करने से संयम तो होगा ही, यदि मैं इनका क्रम बदलता हूँ तो शायद इस प्रक्रिया का फल बदल जाए!  क्या फल होगा, यह उस समय पता नहीं था.

इसको लेकर मैं चल दिया और मानव के पुण्य से मैं सफल हो गया.  क्या सफल हुआ?  मानव का अध्ययन हुआ, जीवन का अध्ययन हुआ, अस्तित्व का अध्ययन हुआ.  पूरा अस्तित्व अध्ययन होने पर विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति सूत्रों का पता चला.  इन चार सूत्रों में यह सारा अध्ययन समाता है.  इन चार सूत्रों को फिर वांग्मय स्वरूप दिया.  क्यों दिया?  पहला - धरती बीमार हो गयी है, शायद इसको समझने में ही धरती की दवाई है.  दूसरे - यह उपलब्धि मेरे अकेले की नहीं है, मानव जाति की उपलब्धि है.  यह ठीक हुआ या नहीं हुआ - यह आगे विद्वान लोग तय करेंगे.

विगत से जो भी दर्शन उपलब्ध हैं वे रहस्य मूलक ईश्वर केन्द्रित चिंतन के स्वरूप में हैं.  रहस्य में ही सारी बात किये हैं.  रहस्य मानव का प्रमाण नहीं हो सकता.  रहस्य के आधार पर कुछ लिखने के पक्ष में मैं पहले भी नहीं था.  संयोग से यह देखने के बाद पता चला - अध्यव्सायिक विधि से समझ में आने वाली बात अभी तक बचा हुआ रहा है.  सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति का अध्ययन आवश्यक है.  मानव को जागृति पूर्वक जीना है.  पूरा दर्शन इस अर्थ में लिखा है.  अध्ययन पूर्वक सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ दृष्टा पद में होते हैं, जिसको प्रमाणित करने के क्रम में जागृति होती है.

प्रश्न:  आप जो समाधि-संयम पूर्वक अध्ययन किये, उसका स्वरूप क्या था?  हम जो अभी कर रहे हैं, उससे वह कैसे भिन्न है?

उत्तर:  आप कागज़ में अध्ययन करते हैं, मैंने प्रकृति में अध्ययन किया.  अभी जैसे परमाणु, अणु या बैक्टीरिया को देखने के लिए आपको एक लेबोरेटरी चाहिए.  इसके बिना आपको वह दीखता नहीं है.  मैंने वही वस्तु को सीधा प्रकृति में देखा है - इसमें किसको क्या तकलीफ है?  संयम की यही गरिमा है कि मैं इस तरह देख पाया.  आप जो सूक्ष्मतम देखने के लिए उपकरणों को प्राप्त किये हैं - चाहे विद्युत् विधि से हो या रेडिएशन विधि से - वे सब मानव की ताकत की आन्शिकता में हैं.  सभी लेबोरेटरी मानव के मनाकार का साकार स्वरूप है.  मानव अभी अपनी पूर्ण क्षमता को कहीं भी नियोजित कर ही नहीं पाता, आंशिक भाग को ही नियोजित कर पाता है.

स्वयं में मानव का होना-रहना बना ही रहता है.  होते-रहते हुए मानव अपनी ताकत को लगाता है.  अस्तित्व सहज विधि से होते हुए, किसी विधि से रहते हुए - मानव अपनी जितनी भी मानसिकता को नियोजित करता है, उसी में कोई डिजाईन बनाता है.  मनाकार को साकार करने में मानव पूरी तरह नियोजित हुआ नहीं है, बचा ही है.

मानव की सम्पूर्णता समाधान में ही व्यक्त होती है.  समाधान ही सुख है, मानव धर्म है.

मानव जाति की सम्पूर्णता समाधान स्वरूप में ही व्यक्त होती है - एक दूसरे के साथ.

तकनीकी विधि से मानव अपनी ताकत का थोडा सा ही परिचय दे पाया है.  नाश होने के भाग में मानव बहुत कुछ सुन चुका है, कर चुका है.  बचने के बारे में सुन नहीं पा रहा है.  नाश होने की घंटी तो बज ही रही है, अब उद्धार होने या बचने की घंटी को भी हिलाया जाए, बजाया जाए!  ऐसा मैं कह रहा हूँ.  इसको बदलना है तो बताओ!

प्रश्न: मानव ने भ्रमवश धरती को बहुत नुकसान पहुंचाया है.  अब जिस गति से मानव जाति इस बात को समझ रही है, उसको देख कर लगता है - कहीं समझ में आने से पहले धरती का नाश ही न हो जाए!  इसमें आपका क्या कहना है?

उत्तर:  यह कल्पना तो आता ही है.  आप कुछ अनुचित नहीं कह रहे हैं.  बचने के लिए हम एक प्रयोग ही कर सकते हैं.  हमारे पास जो समय शेष है उसमे हम अपराध मुक्त हो सकते हैं.  यदि दूसरे ग्रह पर भी जाना है, तो कम से कम वहां जा कर तो अपराध नहीं करेंगे!  दूसरे - यदि धरती में शक्तियां अभी भी शेष हैं, तो मानव के सुधरने पर उसके स्वस्थ होने का अवसर बन सकता है.  ये दोनों संभावनाओं को लेकर इस दर्शन को प्रस्तुत किया है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)

Sunday, October 15, 2017

विगत से इस प्रस्ताव को जोड़ने की बात को ख़त्म करो!



प्रश्न:  गठनपूर्णता होते ही जीवन परमाणु को क्या कोई ज्ञान रहता है?

उत्तर: गठनपूर्णता के साथ ही  जीवचेतना का ज्ञान जीवन को आ जाता है.  जीवचेतना का ज्ञान है - वंशानुषंगीय विधि.  जिससे वह आहार-निद्रा-भय-मैथुन कार्यकलाप का अनुकरण करता है.

प्रश्न:  क्या जीव अपने प्रकटन के बाद कुछ नया "सीख" कर भिन्न आचरण नहीं कर सकते?

उत्तर:  नहीं.  उनमे वंशानुषंगीयता ही है.  वंशानुषंगीयता है - शरीर के अनुसार जीवन का चलना.  जीव वंशानुषंगीय विधि से जीना जानता है.  सर्वप्रथम जो चिड़िया/तोता बना, आचरण को प्रस्तुत किया - वह आज तक वैसे ही चिड़िया/तोता जैसा आचरण करता है.  सर्वप्रथम जो बन्दर बना, आचरण को प्रस्तुत किया - वह आज तक वैसे ही बन्दर जैसा आचरण करता है.  वैसे ही हर जीव के साथ है.

जीवों में शरीर रचनाओं का क्रमिक रूप से प्रकटन हुआ.  स्वेदज संसार अंडज को जोड़ा.  अंडज संसार पिंडज को जोड़ा.  पिंडज में मानव शरीर का प्रकटन हुआ.   मानव शरीर ऐसा प्रकट हुआ कि मानव "चेतना" के सम्बन्ध में सोचने योग्य हुआ.  इसी क्रम में चेतना में श्रेष्ठता के क्रम को सोचने योग्य भी हुआ.  जीव चेतना से मानव चेतना श्रेष्ठ, मानव चेतना से देव चेतना श्रेष्ठ, देव चेतना से दिव्य चेतना श्रेष्ठ.  जीव चेतना विधि से जीते हुए मानव ने सकल अपराध को वैध मान लिया.

मानव ने जब शुरू किया तो वंशानुषंगीय विधि से ही शुरू किया.  समय के साथ उसका विचार शैली बदलता गया.  विचार शैली बदलते-बदलते विचार में गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बनी.  तब जा करके चेतना में श्रेष्ठता का क्रम को पहचानना बना.

प्रश्न:  मानव ने जब से धरती पर शुरू किया, तब से अब तक उसने कई उपलब्धियां भी तो की हैं.  उस से सम्बंधित बहुत कुछ ज्ञान मानव ने हासिल किया है.  वंशानुषंगीय विधि से यह ज्ञान हमें प्राप्त होता नहीं है और हम लोग उसको सीखते-सिखाते हैं - इस ज्ञान को आप कैसे देखते हैं?

उत्तर:  मानव ने अभी तक ये सब जो भी प्रयत्न किया वह शरीर के लिए उपयोगिता के अर्थ में किया, जीवन के लिए  उपयोगिता के अर्थ में प्रयत्न नहीं किया.  भौतिक-रासायनिक वस्तुओं से सम्बंधित ज्ञान की मैं यहाँ कोई बात नहीं कर रहा हूँ.   वह सब शरीर के लिए आहार-निद्रा-भय-मैथुन के अर्थ में है.  उसको वहीं सुरक्षित रखो!  मैं जीवन ज्ञान की बात कर रहा हूँ, जिसके लिए "चेतना विकास" की बात है.   जो हम "सीखते" हैं - वह कोई जीवन-ज्ञान नहीं है.  अभी तक जो सीखते-सिखाते रहे उसमे "चेतना विकास" की बात नहीं है, वह सब भौतिक-रासायनिक संसार से सम्बंधित है - जो शरीर के लिए है.  उसको एक तरफ रखके आप बात करो!

प्रश्न:  चेतना विकास से सम्बंधित ज्ञान मानव को अभी किस स्वरूप में "प्राप्त" रहता है?

उत्तर:  अनुमान स्वरूप में प्राप्त रहता है!   अनुमान में रहता है, इसीलिये उसको मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना स्वीकार होता है.   अनुमान में जो स्वीकार होता है, उसको व्यवहार में प्रमाणित करने तक अध्ययन है.  अध्ययन से हम ज्ञान को अपना स्वत्व बनाते हैं.  अध्ययन से जीवन संतुष्टि की बात है.  वंशानुषंगीयता से शरीर संतुष्टि की बात है.  जीवन संतुष्टि के लिए अध्ययन को हम धरती पर पहली बार प्रस्तावित किये हैं.  उसमे आपका और हमारा tug of war चल रहा है!

जीवन को ज्ञान "प्राप्त" था, इसीलिये अनुभव हुआ.  प्राप्त था, लेकिन अभ्यास नहीं था.  परंपरा नहीं था.  उसको अभ्यास में और परंपरा में डालने के लिए हम प्रस्ताव रखे हैं. 

जीवन को ज्ञान "प्राप्त" था, तभी तो उसमे भास, आभास, प्रतीति होती है.  जीवन सत्ता में संपृक्त रहता है - फलस्वरूप अनुमान में ज्ञान प्राप्त है, फिर अध्ययन के संयोग से भास-आभास-प्रतीति होती है.  प्रतीत होने के पश्चात अनुभव होता है.  अनुभव होने से प्रमाण होता है.

हर मनुष्य में कल्पनाशीलता है.  जिससे शब्द के अर्थ में सहअस्तित्व में वस्तु का ज्ञान होता है - विकसित चेतना के रूप में.  विकसित चेतना ही तीन भाग में है - मानव चेतना, देव चेतना, और दिव्य चेतना.  जीव चेतना पहले से है ही - जिसमे शरीर के लिए सीखना, शरीर के लिए जीना, और शरीर के लिए ही मरना होता है.  जीवन संतुष्टि के लिए चेतना विकास की बात है.

विगत से यह प्रस्ताव जुड़ता नहीं है.  इस प्रस्ताव को विगत से जोड़ने की बात को ख़त्म करो!

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०११, अछोटी)

Wednesday, October 4, 2017

न्याय-सुरक्षा, संविधान, संप्रभुता




न्याय का केंद्र बिंदु है - उभय तृप्ति.  न्याय को बनाए रखने के लिए 'सुरक्षा' है.  अन्याय की दूर-दूर तक संभावना को दूर करने/रोकने के लिए सुरक्षा.  अव्यवस्था या आकस्मिक दुर्घटना से बचाव के साथ चलने का नाम है -"सुरक्षा".

प्रश्न:  आपने "मानवीय संविधान" जो प्रस्तुत किया है, उसका क्या आधार है?

उत्तर:  मानवीय संविधान का मूल बिंदु है - मानवीयता पूर्ण आचरण.  मानवीयता पूर्ण आचरण जागृति के आधार पर होता है.  इस आचरण को हर देश-काल में प्रयोग करने की स्वतंत्रता ही मानवीय संविधान है.

वर्तमान में जो संविधान है वह "शक्ति केन्द्रित शासन" की व्याख्या करता है.  शक्ति केन्द्रित शासन का अर्थ है - गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना, युद्ध को युद्ध से रोकना.

संविधान के लिए "संप्रभुता" को पहचानने की आवश्यकता होती है.  (राज युग में) संप्रभुता को "जो गलती नहीं करता" के स्वरूप में पहचाना गया.  ईश्वर गलती नहीं करता - इसलिए ईश्वर को संप्रभुता का आधार माना गया.  फिर राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मान कर कहा - राजा गलती नहीं करता, और राजा को संप्रभुता का आधार माना गया.  फिर गुरु गलती नहीं करता, कह कर गुरु को संप्रभुता का आधार माना गया.

गणतंत्र आने पर संप्रभुता को पहचानने की आवश्यकता हुई.  तो कहा गया - वोटर के पास संप्रभुता है.  वोटर गलती नहीं करता, ऐसा सोचा गया.  वोटर के गलती नहीं करने की क्या गारंटी है? इसका नहीं में उत्तर मिलने पर सोचा गया - "वोटर वोट देते समय गलती नहीं करता".  इस पर हमारे (भारत के) संविधान की "संप्रभुता" टिका हुआ है!  संविधान में यह तय नहीं है कि राष्ट्रपति गलती नहीं कर सकता या प्रधानमंत्री गलती नहीं कर सकता.

मानवीय संविधान में कहा -

  • प्रबोधन करने योग्य, प्रमाणित करने योग्य अधिकार सम्पन्नता ही प्रबुद्धता या समझदारी है.
  • समझदारी को व्यवस्था में जी कर प्रमाणित करना संप्रभुता है.  न्याय, समाधान और समृद्धि को प्रमाणित करना संप्रभुता है.  मानव द्वारा व्यवस्था में जीना = मानवीयता पूर्ण आचरण
  • मानवीयता पूर्ण आचरण को सर्व देश-काल में उपयोग करना सर्वमानव का मौलिक अधिकार है. 
  • मानव द्वारा अपने मौलिक अधिकार को प्रमाणित करना ही राज्य है.   


हर व्यक्ति मानवीयता पूर्ण आचरण को अपने जीने में ला सकता है.  हर व्यक्ति का संप्रभुता संपन्न व्यक्तित्व हो सकता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी आश्रम)