प्रश्न: गठनपूर्णता होते ही जीवन परमाणु को क्या कोई ज्ञान रहता है?
उत्तर: गठनपूर्णता के साथ ही जीवचेतना का ज्ञान जीवन को आ जाता है. जीवचेतना का ज्ञान है - वंशानुषंगीय विधि. जिससे वह आहार-निद्रा-भय-मैथुन कार्यकलाप का अनुकरण करता है.
प्रश्न: क्या जीव अपने प्रकटन के बाद कुछ नया "सीख" कर भिन्न आचरण नहीं कर सकते?
उत्तर: नहीं. उनमे वंशानुषंगीयता ही है. वंशानुषंगीयता है - शरीर के अनुसार जीवन का चलना. जीव वंशानुषंगीय विधि से जीना जानता है. सर्वप्रथम जो चिड़िया/तोता बना, आचरण को प्रस्तुत किया - वह आज तक वैसे ही चिड़िया/तोता जैसा आचरण करता है. सर्वप्रथम जो बन्दर बना, आचरण को प्रस्तुत किया - वह आज तक वैसे ही बन्दर जैसा आचरण करता है. वैसे ही हर जीव के साथ है.
जीवों में शरीर रचनाओं का क्रमिक रूप से प्रकटन हुआ. स्वेदज संसार अंडज को जोड़ा. अंडज संसार पिंडज को जोड़ा. पिंडज में मानव शरीर का प्रकटन हुआ. मानव शरीर ऐसा प्रकट हुआ कि मानव "चेतना" के सम्बन्ध में सोचने योग्य हुआ. इसी क्रम में चेतना में श्रेष्ठता के क्रम को सोचने योग्य भी हुआ. जीव चेतना से मानव चेतना श्रेष्ठ, मानव चेतना से देव चेतना श्रेष्ठ, देव चेतना से दिव्य चेतना श्रेष्ठ. जीव चेतना विधि से जीते हुए मानव ने सकल अपराध को वैध मान लिया.
मानव ने जब शुरू किया तो वंशानुषंगीय विधि से ही शुरू किया. समय के साथ उसका विचार शैली बदलता गया. विचार शैली बदलते-बदलते विचार में गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बनी. तब जा करके चेतना में श्रेष्ठता का क्रम को पहचानना बना.
प्रश्न: मानव ने जब से धरती पर शुरू किया, तब से अब तक उसने कई उपलब्धियां भी तो की हैं. उस से सम्बंधित बहुत कुछ ज्ञान मानव ने हासिल किया है. वंशानुषंगीय विधि से यह ज्ञान हमें प्राप्त होता नहीं है और हम लोग उसको सीखते-सिखाते हैं - इस ज्ञान को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर: मानव ने अभी तक ये सब जो भी प्रयत्न किया वह शरीर के लिए उपयोगिता के अर्थ में किया, जीवन के लिए उपयोगिता के अर्थ में प्रयत्न नहीं किया. भौतिक-रासायनिक वस्तुओं से सम्बंधित ज्ञान की मैं यहाँ कोई बात नहीं कर रहा हूँ. वह सब शरीर के लिए आहार-निद्रा-भय-मैथुन के अर्थ में है. उसको वहीं सुरक्षित रखो! मैं जीवन ज्ञान की बात कर रहा हूँ, जिसके लिए "चेतना विकास" की बात है. जो हम "सीखते" हैं - वह कोई जीवन-ज्ञान नहीं है. अभी तक जो सीखते-सिखाते रहे उसमे "चेतना विकास" की बात नहीं है, वह सब भौतिक-रासायनिक संसार से सम्बंधित है - जो शरीर के लिए है. उसको एक तरफ रखके आप बात करो!
प्रश्न: चेतना विकास से सम्बंधित ज्ञान मानव को अभी किस स्वरूप में "प्राप्त" रहता है?
उत्तर: अनुमान स्वरूप में प्राप्त रहता है! अनुमान में रहता है, इसीलिये उसको मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना स्वीकार होता है. अनुमान में जो स्वीकार होता है, उसको व्यवहार में प्रमाणित करने तक अध्ययन है. अध्ययन से हम ज्ञान को अपना स्वत्व बनाते हैं. अध्ययन से जीवन संतुष्टि की बात है. वंशानुषंगीयता से शरीर संतुष्टि की बात है. जीवन संतुष्टि के लिए अध्ययन को हम धरती पर पहली बार प्रस्तावित किये हैं. उसमे आपका और हमारा tug of war चल रहा है!
जीवन को ज्ञान "प्राप्त" था, इसीलिये अनुभव हुआ. प्राप्त था, लेकिन अभ्यास नहीं था. परंपरा नहीं था. उसको अभ्यास में और परंपरा में डालने के लिए हम प्रस्ताव रखे हैं.
जीवन को ज्ञान "प्राप्त" था, तभी तो उसमे भास, आभास, प्रतीति होती है. जीवन सत्ता में संपृक्त रहता है - फलस्वरूप अनुमान में ज्ञान प्राप्त है, फिर अध्ययन के संयोग से भास-आभास-प्रतीति होती है. प्रतीत होने के पश्चात अनुभव होता है. अनुभव होने से प्रमाण होता है.
हर मनुष्य में कल्पनाशीलता है. जिससे शब्द के अर्थ में सहअस्तित्व में वस्तु का ज्ञान होता है - विकसित चेतना के रूप में. विकसित चेतना ही तीन भाग में है - मानव चेतना, देव चेतना, और दिव्य चेतना. जीव चेतना पहले से है ही - जिसमे शरीर के लिए सीखना, शरीर के लिए जीना, और शरीर के लिए ही मरना होता है. जीवन संतुष्टि के लिए चेतना विकास की बात है.
विगत से यह प्रस्ताव जुड़ता नहीं है. इस प्रस्ताव को विगत से जोड़ने की बात को ख़त्म करो!
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०११, अछोटी)
उत्तर: गठनपूर्णता के साथ ही जीवचेतना का ज्ञान जीवन को आ जाता है. जीवचेतना का ज्ञान है - वंशानुषंगीय विधि. जिससे वह आहार-निद्रा-भय-मैथुन कार्यकलाप का अनुकरण करता है.
प्रश्न: क्या जीव अपने प्रकटन के बाद कुछ नया "सीख" कर भिन्न आचरण नहीं कर सकते?
उत्तर: नहीं. उनमे वंशानुषंगीयता ही है. वंशानुषंगीयता है - शरीर के अनुसार जीवन का चलना. जीव वंशानुषंगीय विधि से जीना जानता है. सर्वप्रथम जो चिड़िया/तोता बना, आचरण को प्रस्तुत किया - वह आज तक वैसे ही चिड़िया/तोता जैसा आचरण करता है. सर्वप्रथम जो बन्दर बना, आचरण को प्रस्तुत किया - वह आज तक वैसे ही बन्दर जैसा आचरण करता है. वैसे ही हर जीव के साथ है.
जीवों में शरीर रचनाओं का क्रमिक रूप से प्रकटन हुआ. स्वेदज संसार अंडज को जोड़ा. अंडज संसार पिंडज को जोड़ा. पिंडज में मानव शरीर का प्रकटन हुआ. मानव शरीर ऐसा प्रकट हुआ कि मानव "चेतना" के सम्बन्ध में सोचने योग्य हुआ. इसी क्रम में चेतना में श्रेष्ठता के क्रम को सोचने योग्य भी हुआ. जीव चेतना से मानव चेतना श्रेष्ठ, मानव चेतना से देव चेतना श्रेष्ठ, देव चेतना से दिव्य चेतना श्रेष्ठ. जीव चेतना विधि से जीते हुए मानव ने सकल अपराध को वैध मान लिया.
मानव ने जब शुरू किया तो वंशानुषंगीय विधि से ही शुरू किया. समय के साथ उसका विचार शैली बदलता गया. विचार शैली बदलते-बदलते विचार में गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बनी. तब जा करके चेतना में श्रेष्ठता का क्रम को पहचानना बना.
प्रश्न: मानव ने जब से धरती पर शुरू किया, तब से अब तक उसने कई उपलब्धियां भी तो की हैं. उस से सम्बंधित बहुत कुछ ज्ञान मानव ने हासिल किया है. वंशानुषंगीय विधि से यह ज्ञान हमें प्राप्त होता नहीं है और हम लोग उसको सीखते-सिखाते हैं - इस ज्ञान को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर: मानव ने अभी तक ये सब जो भी प्रयत्न किया वह शरीर के लिए उपयोगिता के अर्थ में किया, जीवन के लिए उपयोगिता के अर्थ में प्रयत्न नहीं किया. भौतिक-रासायनिक वस्तुओं से सम्बंधित ज्ञान की मैं यहाँ कोई बात नहीं कर रहा हूँ. वह सब शरीर के लिए आहार-निद्रा-भय-मैथुन के अर्थ में है. उसको वहीं सुरक्षित रखो! मैं जीवन ज्ञान की बात कर रहा हूँ, जिसके लिए "चेतना विकास" की बात है. जो हम "सीखते" हैं - वह कोई जीवन-ज्ञान नहीं है. अभी तक जो सीखते-सिखाते रहे उसमे "चेतना विकास" की बात नहीं है, वह सब भौतिक-रासायनिक संसार से सम्बंधित है - जो शरीर के लिए है. उसको एक तरफ रखके आप बात करो!
प्रश्न: चेतना विकास से सम्बंधित ज्ञान मानव को अभी किस स्वरूप में "प्राप्त" रहता है?
उत्तर: अनुमान स्वरूप में प्राप्त रहता है! अनुमान में रहता है, इसीलिये उसको मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना स्वीकार होता है. अनुमान में जो स्वीकार होता है, उसको व्यवहार में प्रमाणित करने तक अध्ययन है. अध्ययन से हम ज्ञान को अपना स्वत्व बनाते हैं. अध्ययन से जीवन संतुष्टि की बात है. वंशानुषंगीयता से शरीर संतुष्टि की बात है. जीवन संतुष्टि के लिए अध्ययन को हम धरती पर पहली बार प्रस्तावित किये हैं. उसमे आपका और हमारा tug of war चल रहा है!
जीवन को ज्ञान "प्राप्त" था, इसीलिये अनुभव हुआ. प्राप्त था, लेकिन अभ्यास नहीं था. परंपरा नहीं था. उसको अभ्यास में और परंपरा में डालने के लिए हम प्रस्ताव रखे हैं.
जीवन को ज्ञान "प्राप्त" था, तभी तो उसमे भास, आभास, प्रतीति होती है. जीवन सत्ता में संपृक्त रहता है - फलस्वरूप अनुमान में ज्ञान प्राप्त है, फिर अध्ययन के संयोग से भास-आभास-प्रतीति होती है. प्रतीत होने के पश्चात अनुभव होता है. अनुभव होने से प्रमाण होता है.
हर मनुष्य में कल्पनाशीलता है. जिससे शब्द के अर्थ में सहअस्तित्व में वस्तु का ज्ञान होता है - विकसित चेतना के रूप में. विकसित चेतना ही तीन भाग में है - मानव चेतना, देव चेतना, और दिव्य चेतना. जीव चेतना पहले से है ही - जिसमे शरीर के लिए सीखना, शरीर के लिए जीना, और शरीर के लिए ही मरना होता है. जीवन संतुष्टि के लिए चेतना विकास की बात है.
विगत से यह प्रस्ताव जुड़ता नहीं है. इस प्रस्ताव को विगत से जोड़ने की बात को ख़त्म करो!
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०११, अछोटी)
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