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Sunday, June 25, 2017

साथी-सहयोगी सम्बन्ध में न्याय

प्रश्न: हम इस दर्शन के अध्ययन-अभ्यास क्रम में समृद्धि को प्रमाणित करने के प्रयास में कृषि कार्य कर रहे हैं.  हमारे सहयोग के लिए कुछ लोग आते हैं, जिनको हम यहाँ के अभी के रेट के अनुसार पारिश्रमिक देते हैं.  हमको कई बार लगता है वह उनके लिए बहुत कम है.  तो क्या करें?  

उत्तर:  आपको लगता है कम दे रहे हैं, तो ज्यादा दे दो!  यही उसका उत्तर है.

प्रश्न: पर ज्यादा देने की भी हमारी हैसियत नहीं है... फिर क्या करें?

उत्तर: यदि नहीं दे सकते हैं तो ऐसे मान कर शुरू करें, अभी जो मान्यता है उसके अनुसार हम देंगे.  अभी परंपरा में जितना देते हैं उससे थोड़ा ज्यादा, अपनी हैसियत के अनुसार,  दे दिया और संतुष्टि पा लिया - ऐसे चल सकते हैं.  आगे उनके समझदार होने पर उनके साथ समानता और भागीदारी करेंगे.

प्रश्न:  क्या हम सहयोग न लें?

उत्तर: सहयोग न लें यह कौन कहता है?  जैसे आपके यहाँ जोतना, बोना और काटने का काम है.  सरकार ने मानो १०० रुपया रोजी तय किया है - उसके अनुसार हमने उनको दे दिया.

मैं भी १९५० से अपने उत्पादन कार्य में सहयोग लेता रहा हूँ.  मैंने यह देखा है - १९५० में एक आदमी एक दिन में जितना काम करता था आज उसका दस प्रतिशत भी काम नहीं करता.  जबकि पैसा बढ़ा है.  उसके बावजूद मैं अपने विवेक से इसको संतुलित बना कर चलता हूँ.

प्रश्न: एक व्यापारी भी तो अपने काम के लिए सहयोगियों को रखता है, और उनको बाज़ार के रेट के अनुसार मेहनताना देता है.  तो हममे और उस व्यापारी में फर्क क्या हुआ?

उत्तर: व्यापारी केवल उनसे अपने लाभ के लिए काम निकालता है.  हमारा सहयोगी के साथ जुड़ाव उसको समझदार बनाने, या उपकार करने तक है.  सहयोगी के समझदार होने पर ही उत्पादन कार्य के फल में उनके साथ भागीदारी का सुख मिलेगा, उससे पहले नहीं.

प्रश्न: यदि उनका समझदारी की तरफ कोई रुझान नहीं हो तो?

उत्तर: तो उनके साथ अभी जो परंपरा में है उसके अनुसार चलना होगा.  दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है.

हमारे घर पर भी एक लड़का सेवा करता था.  कुछ समय हमारे साथ रहने के बाद वही लड़का समझने की इच्छा हमसे व्यक्त किया.  उसकी हमने व्यवस्था कर दिया.

प्रश्न:  परंपरा के अनुसार ही उनको देने से हमको जो असंतुष्टि होती है, उसका क्या?

उत्तर: अपनी संतुष्टि के अनुसार उनको उससे थोडा ज्यादा दे दिया, जैसे - त्योहारों पर, उत्सव पर आदि.

ज्ञान विधि से जिनका हम सहयोग लेते हैं उनके श्रम का मूल्यांकन करते हैं, यह आ पाता है तो हमे उस सम्बन्ध में संतुष्टि होता है.  यह नहीं आ पाता है तो संतुष्टि नहीं होता.

समझदार होने पर ही सहयोगी को संतुष्टि होगा, उससे पहले नहीं.  समझदारी होने पर उपयोगिता के आधार पर प्रतिफल और उससे संतुष्टि होता है.

साथी-सहयोगी सम्बन्ध में सफल होना समानता में ही है.  समझदारी में ही समानता होती है, भौतिक वस्तुओं में समानता होती नहीं है.

इसमें मूल मुद्दा है - साथी और सहयोगी दोनों को समझदार बनना.  दूसरे - सहयोगी द्वारा अपने श्रम का मूल्यांकन स्वयं करना, साथी द्वारा भी वह मूल्यांकन होना, दोनों मूल्यांकन में साम्यता होना, फलन में उभय तृप्ति होना.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २००८, भोपाल) 

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