प्रश्न: अध्ययनशील लोगों के बीच मंगल-मैत्री और समानता का क्या सूत्र होगा?
उत्तर: ये सभी लोग, जो जीवनविद्या मध्यस्थ दर्शन - सहअस्तित्ववाद के प्रति समर्पित हैं, सर्वशुभ को चाहने वाले हैं और वैसा ही मैं भी हूँ.
सर्वशुभ विधि से ही अपना-पराया की दीवारें और अपराध-प्रवृत्ति सामाप्त होती हैं - इसीलिये इनके साथ मंगल-मैत्री स्वाभाविक है. अपना-पराया और अपराध-प्रवृत्ति के चलते मंगल-मैत्री होता नहीं है. अपना-पराया और अपराध-प्रवृत्ति से मुक्ति ही भ्रम-मुक्ति है. इस एकात्मता से जुड़ के अध्ययनशील लोग मंगल मैत्री को प्रमाणित कर सकते हैं. मंगल-मैत्री की आधार-भूमि सर्वशुभ ही है.
क्या इसमें कोई खोट है? क्या इसमें कोई व्यक्तिवाद है? क्या इसको कोई समुदायवाद छू सकता है?
इस प्रस्ताव को पहले तर्क विधि से सोच लो, फिर कल्पना विधि से इसका शोध कर लो. तर्क से आगे है कल्पना! कल्पना विधि से यदि यह पूरा हो जाता है तो इसको समझने के अलावा और कोई रास्ता स्वयं में नहीं है। तर्क और कल्पना के योग से स्वयं में "अनुमान" बन जाता है. फिर उस अनुमान के आधार पर आगे कल्पना से प्रमाण तक पहुँचने के लिए अपने में सामर्थ्य बन जाता है.
इस तरह अध्ययनशील लोगों के बीच मंगलमैत्री का रास्ता हम साफ़-साफ़ देख पाते हैं. सबके साथ जी सकते हैं, रह सकते हैं, परस्पर शुभकामना व्यक्त कर सकते हैं, एक दूसरे के सर्वशुभ कार्यों के प्रति प्रसन्न और रोमांचित हो सकते हैं.
एक दिन में सारा निर्माण पूरा होता नहीं है, इसमें समय लगता ही है. मेरा उदाहरण लें तो मैं अभी संसार को मानवचेतना का परिचय कराने के लिए प्रयत्नशील हूँ. इतने में ही अभी हम असमंजस में हैं जबकि मैं मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना तीनों में पारंगत हूँ. अभी बहुत ज्यादा पहुँच गए हों ऐसा स्थिति में हम आये नहीं हैं. आप हमारे बीच संवाद भी मानव चेतना का परिचय कराने के अर्थ में है. यह बात सही है - लोगों में इस बात की भनक पड़ गयी है, वैचारिक रूप में इसकी स्वीकृति भी कुछ बनी है, कार्य रूप में कुछ प्रयास भी है. ज्यादा लोगों में इसकी भनक पड़ी है, कुछ लोग अपनी वैचारिक स्वीकृति को प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं. इस प्रयास क्रम में अनुभव का बिंदु आता ही है. प्रयास करते समय में "अनुभव" का जिक्र तो ख़त्म नहीं होता। वह अनुभव का झोंका आता ही है. अनुभव से जुड़ना पड़ता ही है, समझाने का सम्मान उसके बिना बनता ही नहीं है. यह पूरा प्रक्रिया ऐसा ही है - कोई एक छोर आपने पकड़ लिया तो पूरा होने की संभावना है.
प्रश्न: आपकी बात को हम "समझ के करें" या "कर कर के समझें"?
उत्तर: समझ के ही करें। विकल्प को समझ के ही उसको करने (समझाने) का प्रवृत्ति बनता है. समझ चाहे "मानी हुई" स्वीकृति के स्तर की क्यों न हो, उसके बिना समझाने का प्रयत्न नहीं बनेगा। स्वीकृति के आधार पर यदि समझाने का प्रयत्न करते हैं तो एक दिन अनुभव तक पहुंचेंगे ही! जीवन विद्या परिवार के लोग जो जागृति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, उन परिवारजनों में मंगलमैत्री के लिए यह एक बहुत बड़ा आधार बन गया है. यह निर्विवाद है. इसी विधि से सब जुड़े हैं. सबके साथ जुड़ने का यही सुगम उपाय है.
यदि आप इस बात को सोचें तो उससे यही निकलता है कि हमको अपने प्रयास की शुरुआत करने के लिए एक छोर को पकड़ने की आवश्यकता है. इसको आप "सिद्धांत" भले ही न मानो। यदि हम इसमें चले जाते हैं कि "पूरा समझे बिना मुँह ही नहीं खोलना है" - तो वह प्रयास बुरा नहीं है, पर यह "दुर्घट प्रयास" है. सम्मानजनक भाषा में कहें तो यह "परिपक्व प्रयास" है. इस प्रयास में कोई खोट नहीं है - पर उससे सही बात को संसार के सामने तत्काल प्रकट करने का कोई सूत्र नहीं मिलता। जबकि दूसरे विधि में हम अपने प्रयास के लिए जो छोर पकड़े हैं उस विश्वास को व्यक्त कर सकते हैं. उस प्रयास के फलन में अनुभव होने पर हम स्वयं प्रमाण होने के दावे के साथ बोल सकते हैं. मैं सोचता हूँ, आज नहीं तो कल इस प्रकार सत्यापित करने वाले सैंकड़ों व्यक्ति तैयार हो जाएंगे। इस जगह आये बिना सब जगह पहुँचने का गति भी नहीं बनेगा।
मानव को सच्चाई का थोड़ा भी यदि भनक लगता है तो वह अपने को रोक नहीं पाता है. आदमी को जब यह स्वीकार होता है कि यह बात सही और शाश्वत है, तो वह उस स्वीकृति को अपने तक रोक नहीं पाता है. यह बात फैलनी चाहिए, इसी जगह में वह आता है - चाहे उस बात को लेकर वह उसमें अभी पारंगत नहीं हुआ हो!
समझने का जहाँ छोर पकड़ा, वहीं से उपकार कार्य में जिम्मेदारी-भागीदारी भी शुरू हो जाती है. जैसे-जैसे लोगों का इसमें रुझान बनता है, स्वयं के अनुभव तक पहुँचने का रास्ता भी बनता है.
प्रश्न: इस तरीके से चलें तो समझदारी पूरा होने तक एक अध्ययन करने वाला किस-किस घाट से गुजरता है?
उत्तर: सच्चाई के इस प्रस्ताव का "श्रवण" करना एक घाट है. श्रवण के बाद सर्वशुभ के अर्थ में अपने प्रयास के लिए मूल मुद्दे के रूप में "एक छोर को स्वीकार लेना" दूसरा घाट है. सच्चाई का "साक्षात्कार कर लेना" तीसरा घाट है. समझदारी जब पूरा होता है तो वह जीवचेतना से मानव चेतना में संक्रमण स्वरूप में प्रमाणित होता है.
अध्ययन करने वाले में "स्व-निरीक्षण" चलता रहता है. जिस प्रयास को मैंने कल्याणकारी स्वीकारा है, क्या उसमें मैं पारंगत हो गया हूँ? यदि पारंगत नहीं हुआ हूँ तो पारंगत होने के लिए रास्ता क्या है?
प्रश्न: इसमें गुत्थी यही है - हम पूरा समझ के मुँह खोलें या जितना समझे हैं उतना मुँह खोलते हुए आगे के लिए प्रयास करते रहें। अभिव्यक्ति में श्रेष्ठता का क्रम क्या है?
उत्तर: अनुभव मूलक अभिव्यक्ति परम है.
स्वीकृति मूलक अभिव्यक्ति द्वितीय स्तर पर है.
तर्क मूलक अभिव्यक्ति तृतीय स्तर पर है.
कल्पना मूलक अभिव्यक्ति चतुर्थ स्तर पर है.
प्रश्न: कल्पना, तर्क या स्वीकृति मूलक अभिव्यक्ति करने में समय लगाना क्या अपनी शक्तियों का अपव्यय तो नहीं है?
उत्तर: नहीं! आपकी कल्पना, तर्क या स्वीकृति में सर्वशुभ का क्या स्वरूप आता है, उसको आप कह ही सकते हैं. उसमें शक्ति का अपव्यय कहाँ हुआ? आपके पास कल्पना रहता ही है, तर्क रहता ही है, स्वीकृति रहता ही है. इन तीनो में से कोई भी कड़ी अध्ययन के लिए विरोधी नहीं है. अध्ययन का अंतिम बिंदु है - अनुभव! पीछे की तीनों कड़ियाँ अनुभव के लिए सहायक हैं. आपके पास जो है वह आवंटित न हो, ऐसा कोई व्यवस्था नहीं है. आप इस ढंग से आवंटित न करें, दूसरे ढंग से करें - यह हो सकता है! पर आवंटित न करें - यह हो नहीं सकता।
अभिव्यक्ति का निम्नतम आधार कल्पना है. हमने अपनी कल्पना में सर्वशुभ को ऐसे पहचाना है, इसको घोषित करने में किसको क्या तकलीफ है? इसको नकारने का किसी का अधिकार ही नहीं बनता है.
प्रश्न: हमारी स्थिति तर्क की है, या कल्पना की या स्वीकृति की - इसका मूल्यांकन कौन करेगा?
उत्तर: अध्ययन करने वाला स्वयं अपनी स्थिति का मूल्यांकन करेगा। आपकी स्वीकृति हो जाने के बाद आप अपनी कल्पना के दृष्टा हो जाते हो. आप जब स्वीकृति के स्तर पर हो तो अपनी कल्पना का दावा कर सकते हो. अनुभव होने के बाद व्यवहार में दावा कर सकते हो. अपनी स्थिति को भुलावा देते हैं तो संसार का आक्षेप होता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)