प्रत्येक जीवन एक अनुस्यूत क्रिया है. जीवन में मनन, विचार, इच्छा, बोध एवं अनुभव अविभाज्य और अनिवार्य क्रियाएँ हैं.
मन - मनन क्रिया
मनन क्रिया मान्यताओं पर आधारित जीवन गति है.
मनन सीमावर्ती मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में गण्य होती हैं. चयन क्रियाएँ अधिकांशतः रूचिमूलक होती हैं, और रुचियाँ सर्वाधिक इन्द्रिय सन्निकर्ष पूर्वक ही प्रमाणित हो पाती हैं. इन्द्रिय-सन्निकर्ष = इन्द्रियों के योग वियोग में होने वाले प्रभाव व स्वीकृतियां। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के अनुकूल अर्थात "अच्छा लगने" वाले योग, संयोग, वियोगात्मक मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में व्यक्त, सम्प्रेषित व प्रकाशित होती हैं। शरीर को जीवन समझते पर्यन्त जीवन की सम्पूर्ण शक्तियां इन्द्रिय सन्निकर्ष के अर्थ में कार्यरत पायी जाती हैं. यही भ्रम का मूल कारण है. भ्रम का अर्थ है - अस्तित्व में नियति सहज भाव को कम, ज्यादा या नहीं मूल्याङ्कन करना। निर्भ्रम का अर्थ है - जो जैसा है, उसको वैसा ही मूल्याङ्कन करना। यह जागृति पूर्वक होता है. इस प्रकार मनन क्रिया में भ्रम और निर्भ्रम का स्पष्ट स्वरूप अभिहित (स्पष्ट) होता है. अतः चयन एवं आस्वादन क्रियाएँ इन्द्रिय सन्निकर्ष सीमावर्ती होने से भ्रमित मनन है. निर्भ्रम मनन का तात्पर्य जीवन-तृप्ति यथा प्रामाणिकता, समाधान, सह-अस्तित्व एवं अभय पूर्वक चयन और आस्वादन क्रिया संपादित होने से है.
वृत्ति - विचार क्रिया
विचार क्रिया विश्लेषण एवं तुलनों पर आधारित जीवन गति है.
विचार सहित ही मानव शरीर में जीवंतता प्रमाणित हो पाती है. अधिकांशतः विश्लेषण की सम्पूर्ण वस्तु भौतिक एवं रासायनिक रूप तक ही सीमित रहती है, एवं गुणों का विश्लेषण न्यूनतम ही होता है.
प्रत्येक इकाई अपनी सम्पूर्णता में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य वर्तमान होती है. अतः इसका यथार्थ विश्लेषण इसकी सम्पूर्णता, अर्थात चारों आयामों के विश्लेषण से ही संभावित है. इस तरह केवल रूप और गुण किसी इकाई की सम्पूर्णता विश्लेषित नहीं होती, फलतः जागृति प्रमाणित नहीं होती। जीवन के जागृति क्रम में विश्लेषण एक सोपान है. जागृत विश्लेषणों के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों का तुलन जीवन सहज है. प्रत्येक मनुष्य प्रियप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म और सत्यासत्य तुलन क्रिया को व्यक्त करता है. यह क्रम से वरीय होते हैं. यही विकास का प्रधान कसौटी है. इस कसौटी में जब क्रम से न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य का प्रभेद जब स्वत्व के रूप में उजागर हो जाता है, तभी इन मुद्दों में जागृति का पद पाता है. इस प्रकार न्याय, धर्म और सत्य को जानने, मानने व उसके गतिक्रम को पहचानने व निर्वाह करने का तुलनात्मक विचारक्रम जागृति को प्रशस्त करता है.
चित्त - इच्छा क्रिया
इच्छा क्रिया चिंतन व चित्रण पर आधारित जीवन गति है एवं चित्त में संपादित होती है.
सम्पूर्ण विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक विचारों का सम्पादन करना ही चित्त की चित्रण क्रिया है, जिससे प्रवर्तन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है. प्रशस्त होने का तात्पर्य प्रकाशन से है. चित्रण क्रिया प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ सीमावर्ती होने की स्थिति में पुनः इन्द्रिय सन्निकर्ष अवधि में ही सर्वाधिक विनियोजित हो जाता है. इससे वरीय न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य विचारों को चित्रित करने की स्थिति में मनुष्य जीवन सहज ही व्यवहारिक हो जाता है. व्यवहारिक होने का तात्पर्य समाज न्याय का पात्र और समाज न्याय प्रदान करने की योग्यता सम्पन्नता है. यही जागृति और समाधान का तात्पर्य है. इस प्रकार चित्रण क्रिया से जागृत और अजागृत मानव का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है.
चिंतन क्रिया जीवन में विवेचनात्मक प्रक्रिया है. विवेचना स्वयं प्रयोजन व उसकी क्रम-बद्धता को पहचानने और निर्वाह करने की प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया शरीर यात्रा और जीवन तृप्ति के संतुलन अथवा संतुलन बिंदु को पहचानने के अर्थ में नित्य क्रियाशील है. जीवन तृप्ति का अर्थ व्यवहार में अभयता, समाधान एवं सह-अस्तित्व ही है. यह चिंतन से निष्कर्षात्मक होने की अभिव्यक्तियाँ हैं.
बुद्धि - बोध क्रिया
बोध क्रिया 'अवधारणा' व 'संकल्प' पर आधारित जीवन गति है.
अवधारणा मुख्यतः स्वभाव और धर्म से सम्बंधित है.
सम्पूर्ण इकाइयाँ चार अवस्थाओं के रूप में गण्य हैं. प्रधम - पदार्थावस्था, जो मृद, पाषाण, मणि, धातु व उसके विकार के रूप में वर्तमान हैं. द्वितीय - प्राणावस्था, जो वनस्पति और उसके बीजानुषंगीय पंरपरा एवं उसके विकारों के रूप में विद्यमान है. तृतीय - जीवावस्था, जो मनुष्येत्तर जीव व उसके वंशानुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार-विहार विन्यास के रूप में वर्तमान है. चतृर्थ - ज्ञानावस्था, मानव एवं उसकी संस्कारनुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार, विहार, व्यवस्था, अभ्यास, अनुसंधान, एवं शिक्षा के रूप में अभिव्यक्त एवं प्रकाशित है, तथा पशुमानव, राक्षसमानव, मानव, देवमानव, दिव्यमानव की कोटि में गण्य है. पशुमानव व राक्षसमानव असामाजिक, मानव सामाजिक तथा देवमानव व दिव्यमानव सामाजिकता के प्रेरणा स्त्रोत होते हैं. ये जागृतिक्रम तथा अवधारणाओं के आधार पर होने वाले प्रवर्तन हैं. ऐसे प्रवर्तन तीन स्वरूप में गण्य हैं - रुचिमूलक, मूल्यमूलक और लक्ष्यमूलक। रुचिमूलक प्रवर्तन में मनुष्य पशुमानव व राक्षसमानव के अर्थ को प्रकाशित करता है. मूल्य मूलक प्रवर्तन रत मनुष्य मानवीयता को व्यक्त, सम्प्रेषित, व प्रकाशित करता है, जो स्वयं में व्यवस्था है. लक्ष्य मूलक प्रवर्तन जीवन जागृति के अर्थ में सार्थक अभिव्यक्ति करता है एवं देवमानव व दिव्यमानव की कोटि में ख्यात होता है. साथ ही मानवीयता से देवमानवीयता की ओर गति एवं दिशा का प्रेरक तथा कारक भी होता है. इस प्रकार अवधारणाओं के आधार पर मानव तीन प्रकार से प्रवर्तित होता हुआ मिलता है. ऐसा प्रवर्तन मूलतः संकल्प के रूप में होता है.
संकल्प अवधारणाओं के प्रति प्रतिबद्धता ही है.
रुचिमूलक प्रणाली के प्रति प्रतिबद्धता हठवादिता कहलाती है एवं मूल्यमूलक तथा लक्ष्यमूलक प्रणालियों के प्रति सम्पूर्ण प्रतिबद्धताएं निष्ठा के रूप में गण्य होती है.
आत्मा - अनुभव क्रिया
अनुभव क्रिया आनंद और प्रामाणिकता पर आधारित जीवन गति है.
आनंद ही संतोष, शान्ति व सुख के नाम से इंगित होता है तथा प्रामाणिकता गति में व्यक्त होती है. यही प्रत्येक मनुष्य का अभीष्ट एवं वर है. प्रामाणिकता मूलक अवधारणाएं अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेष्णा में समाधान के रूप में तथा व्यवहार में न्याय के रूप में प्रकाशित होती हैं. इसी तारतम्य में धर्मपूर्ण विचार व न्याय पूर्ण व्यवहार एवं नियमपूर्ण व्यवसाय हैं, और ऐसी मनन क्रिया शिष्टता के रूप में व्यक्त होती है.
जाने हुए को मानने और माने हुए को जानने के क्रम में अनुभव क्रिया नित्य समीचीन और प्रसवशील है, क्योंकि अनुभव के अनन्तर अनुभव का उदय होता ही है. यही जीवन जागृति व अनुभव क्रम है.
अस्तु! जीवन विद्या में पारंगत व्यक्ति स्वयं में विश्वास और श्रेष्ठता के प्रति सम्मान के अर्थ में समीचीन है. जीवन विद्या पर आधारित शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय चरित्र में सार्वभौमता समीचीन होने की पूर्ण सम्भावना है. इसे चरितार्थ करना ही हमारी प्रतिज्ञा है.
शिक्षा संस्थानों में जीवन विद्या का क्रियान्वयन तीन चरणो में समपन्न होता है: -
प्रथम चरण: - अस्तित्व में जीवन, जीवनी क्रम और जीवन जागृति सम्बन्धी सम्पूर्ण अवधारणा, अर्थात जीवन दर्शन को चिंतनाभ्यास पूर्वक हृदयंगम करना।
द्वितीय चरण: - जीवन की महिमा, प्रक्रिया व स्वरूप के प्रति जागृति व प्रामाणिकता पूर्वक पारंगत होना तथा व्यवहार में चरितार्थ करना।
तृतीय चरण: - जीवन विद्या के प्रबोधन पूर्वक चिंतन में आरूढ़ होने तथा व्यवहाराभ्यास पूर्वक प्रामाणिक होने का मूल्यांकन करना।
(श्री ए नागराज की डायरी से)
मन - मनन क्रिया
मनन क्रिया मान्यताओं पर आधारित जीवन गति है.
मनन सीमावर्ती मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में गण्य होती हैं. चयन क्रियाएँ अधिकांशतः रूचिमूलक होती हैं, और रुचियाँ सर्वाधिक इन्द्रिय सन्निकर्ष पूर्वक ही प्रमाणित हो पाती हैं. इन्द्रिय-सन्निकर्ष = इन्द्रियों के योग वियोग में होने वाले प्रभाव व स्वीकृतियां। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के अनुकूल अर्थात "अच्छा लगने" वाले योग, संयोग, वियोगात्मक मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में व्यक्त, सम्प्रेषित व प्रकाशित होती हैं। शरीर को जीवन समझते पर्यन्त जीवन की सम्पूर्ण शक्तियां इन्द्रिय सन्निकर्ष के अर्थ में कार्यरत पायी जाती हैं. यही भ्रम का मूल कारण है. भ्रम का अर्थ है - अस्तित्व में नियति सहज भाव को कम, ज्यादा या नहीं मूल्याङ्कन करना। निर्भ्रम का अर्थ है - जो जैसा है, उसको वैसा ही मूल्याङ्कन करना। यह जागृति पूर्वक होता है. इस प्रकार मनन क्रिया में भ्रम और निर्भ्रम का स्पष्ट स्वरूप अभिहित (स्पष्ट) होता है. अतः चयन एवं आस्वादन क्रियाएँ इन्द्रिय सन्निकर्ष सीमावर्ती होने से भ्रमित मनन है. निर्भ्रम मनन का तात्पर्य जीवन-तृप्ति यथा प्रामाणिकता, समाधान, सह-अस्तित्व एवं अभय पूर्वक चयन और आस्वादन क्रिया संपादित होने से है.
वृत्ति - विचार क्रिया
विचार क्रिया विश्लेषण एवं तुलनों पर आधारित जीवन गति है.
विचार सहित ही मानव शरीर में जीवंतता प्रमाणित हो पाती है. अधिकांशतः विश्लेषण की सम्पूर्ण वस्तु भौतिक एवं रासायनिक रूप तक ही सीमित रहती है, एवं गुणों का विश्लेषण न्यूनतम ही होता है.
प्रत्येक इकाई अपनी सम्पूर्णता में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य वर्तमान होती है. अतः इसका यथार्थ विश्लेषण इसकी सम्पूर्णता, अर्थात चारों आयामों के विश्लेषण से ही संभावित है. इस तरह केवल रूप और गुण किसी इकाई की सम्पूर्णता विश्लेषित नहीं होती, फलतः जागृति प्रमाणित नहीं होती। जीवन के जागृति क्रम में विश्लेषण एक सोपान है. जागृत विश्लेषणों के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों का तुलन जीवन सहज है. प्रत्येक मनुष्य प्रियप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म और सत्यासत्य तुलन क्रिया को व्यक्त करता है. यह क्रम से वरीय होते हैं. यही विकास का प्रधान कसौटी है. इस कसौटी में जब क्रम से न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य का प्रभेद जब स्वत्व के रूप में उजागर हो जाता है, तभी इन मुद्दों में जागृति का पद पाता है. इस प्रकार न्याय, धर्म और सत्य को जानने, मानने व उसके गतिक्रम को पहचानने व निर्वाह करने का तुलनात्मक विचारक्रम जागृति को प्रशस्त करता है.
चित्त - इच्छा क्रिया
इच्छा क्रिया चिंतन व चित्रण पर आधारित जीवन गति है एवं चित्त में संपादित होती है.
सम्पूर्ण विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक विचारों का सम्पादन करना ही चित्त की चित्रण क्रिया है, जिससे प्रवर्तन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है. प्रशस्त होने का तात्पर्य प्रकाशन से है. चित्रण क्रिया प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ सीमावर्ती होने की स्थिति में पुनः इन्द्रिय सन्निकर्ष अवधि में ही सर्वाधिक विनियोजित हो जाता है. इससे वरीय न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य विचारों को चित्रित करने की स्थिति में मनुष्य जीवन सहज ही व्यवहारिक हो जाता है. व्यवहारिक होने का तात्पर्य समाज न्याय का पात्र और समाज न्याय प्रदान करने की योग्यता सम्पन्नता है. यही जागृति और समाधान का तात्पर्य है. इस प्रकार चित्रण क्रिया से जागृत और अजागृत मानव का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है.
चिंतन क्रिया जीवन में विवेचनात्मक प्रक्रिया है. विवेचना स्वयं प्रयोजन व उसकी क्रम-बद्धता को पहचानने और निर्वाह करने की प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया शरीर यात्रा और जीवन तृप्ति के संतुलन अथवा संतुलन बिंदु को पहचानने के अर्थ में नित्य क्रियाशील है. जीवन तृप्ति का अर्थ व्यवहार में अभयता, समाधान एवं सह-अस्तित्व ही है. यह चिंतन से निष्कर्षात्मक होने की अभिव्यक्तियाँ हैं.
बुद्धि - बोध क्रिया
बोध क्रिया 'अवधारणा' व 'संकल्प' पर आधारित जीवन गति है.
अवधारणा मुख्यतः स्वभाव और धर्म से सम्बंधित है.
सम्पूर्ण इकाइयाँ चार अवस्थाओं के रूप में गण्य हैं. प्रधम - पदार्थावस्था, जो मृद, पाषाण, मणि, धातु व उसके विकार के रूप में वर्तमान हैं. द्वितीय - प्राणावस्था, जो वनस्पति और उसके बीजानुषंगीय पंरपरा एवं उसके विकारों के रूप में विद्यमान है. तृतीय - जीवावस्था, जो मनुष्येत्तर जीव व उसके वंशानुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार-विहार विन्यास के रूप में वर्तमान है. चतृर्थ - ज्ञानावस्था, मानव एवं उसकी संस्कारनुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार, विहार, व्यवस्था, अभ्यास, अनुसंधान, एवं शिक्षा के रूप में अभिव्यक्त एवं प्रकाशित है, तथा पशुमानव, राक्षसमानव, मानव, देवमानव, दिव्यमानव की कोटि में गण्य है. पशुमानव व राक्षसमानव असामाजिक, मानव सामाजिक तथा देवमानव व दिव्यमानव सामाजिकता के प्रेरणा स्त्रोत होते हैं. ये जागृतिक्रम तथा अवधारणाओं के आधार पर होने वाले प्रवर्तन हैं. ऐसे प्रवर्तन तीन स्वरूप में गण्य हैं - रुचिमूलक, मूल्यमूलक और लक्ष्यमूलक। रुचिमूलक प्रवर्तन में मनुष्य पशुमानव व राक्षसमानव के अर्थ को प्रकाशित करता है. मूल्य मूलक प्रवर्तन रत मनुष्य मानवीयता को व्यक्त, सम्प्रेषित, व प्रकाशित करता है, जो स्वयं में व्यवस्था है. लक्ष्य मूलक प्रवर्तन जीवन जागृति के अर्थ में सार्थक अभिव्यक्ति करता है एवं देवमानव व दिव्यमानव की कोटि में ख्यात होता है. साथ ही मानवीयता से देवमानवीयता की ओर गति एवं दिशा का प्रेरक तथा कारक भी होता है. इस प्रकार अवधारणाओं के आधार पर मानव तीन प्रकार से प्रवर्तित होता हुआ मिलता है. ऐसा प्रवर्तन मूलतः संकल्प के रूप में होता है.
संकल्प अवधारणाओं के प्रति प्रतिबद्धता ही है.
रुचिमूलक प्रणाली के प्रति प्रतिबद्धता हठवादिता कहलाती है एवं मूल्यमूलक तथा लक्ष्यमूलक प्रणालियों के प्रति सम्पूर्ण प्रतिबद्धताएं निष्ठा के रूप में गण्य होती है.
आत्मा - अनुभव क्रिया
अनुभव क्रिया आनंद और प्रामाणिकता पर आधारित जीवन गति है.
आनंद ही संतोष, शान्ति व सुख के नाम से इंगित होता है तथा प्रामाणिकता गति में व्यक्त होती है. यही प्रत्येक मनुष्य का अभीष्ट एवं वर है. प्रामाणिकता मूलक अवधारणाएं अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेष्णा में समाधान के रूप में तथा व्यवहार में न्याय के रूप में प्रकाशित होती हैं. इसी तारतम्य में धर्मपूर्ण विचार व न्याय पूर्ण व्यवहार एवं नियमपूर्ण व्यवसाय हैं, और ऐसी मनन क्रिया शिष्टता के रूप में व्यक्त होती है.
जाने हुए को मानने और माने हुए को जानने के क्रम में अनुभव क्रिया नित्य समीचीन और प्रसवशील है, क्योंकि अनुभव के अनन्तर अनुभव का उदय होता ही है. यही जीवन जागृति व अनुभव क्रम है.
अस्तु! जीवन विद्या में पारंगत व्यक्ति स्वयं में विश्वास और श्रेष्ठता के प्रति सम्मान के अर्थ में समीचीन है. जीवन विद्या पर आधारित शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय चरित्र में सार्वभौमता समीचीन होने की पूर्ण सम्भावना है. इसे चरितार्थ करना ही हमारी प्रतिज्ञा है.
शिक्षा संस्थानों में जीवन विद्या का क्रियान्वयन तीन चरणो में समपन्न होता है: -
प्रथम चरण: - अस्तित्व में जीवन, जीवनी क्रम और जीवन जागृति सम्बन्धी सम्पूर्ण अवधारणा, अर्थात जीवन दर्शन को चिंतनाभ्यास पूर्वक हृदयंगम करना।
द्वितीय चरण: - जीवन की महिमा, प्रक्रिया व स्वरूप के प्रति जागृति व प्रामाणिकता पूर्वक पारंगत होना तथा व्यवहार में चरितार्थ करना।
तृतीय चरण: - जीवन विद्या के प्रबोधन पूर्वक चिंतन में आरूढ़ होने तथा व्यवहाराभ्यास पूर्वक प्रामाणिक होने का मूल्यांकन करना।
(श्री ए नागराज की डायरी से)