प्रश्न: आत्मा क्या पहले से ही क्रियाशील रहती है या अध्ययन पूर्ण होने के बाद क्रियाशील होगी?
उत्तर: आत्मा क्रियाशील रहती ही है, अधिकार संपन्न रहता है - किन्तु प्रमाणित होने की योग्यता और पात्रता नहीं रहता। अभी मानव परंपरा में भ्रम और अपराध ही प्रचलित है या मानव कल्पना में मान्य है। आत्मा और बुद्धि भ्रम या अपराध को स्वीकारता नहीं है। इसलिए संतुष्ट होता नहीं है। भ्रमित रहते तक तदाकार-तद्रूप प्रक्रिया होता नहीं है। भ्रमित रहते तक मानव अपराध को ही सही मानता है। उससे आत्मा का संतुष्टि होता नहीं है।
आत्मा की संतुष्टि के लिए अध्ययन है। अध्ययन में पहले सही बात को "विकल्प स्वरूप में" सुनना होता है। अभी तक के जिए हुए से जोड़ कर सुनते हैं तो नहीं बनता। अध्ययन = संस्कार संपन्न होना। संस्कार है - पूर्णता के अर्थ में स्वीकृति। पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता। गठनपूर्णता नियति विधि से हो चुकी है। क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता ज्ञान के अर्थ में हैं।
हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है। बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा के अनुसार रहता है। हर मानव संतान में यह बात समान है। उसमें कोई परेशानी नहीं है। उसके बाद बच्चा परंपरा के अनुसार ढलता है। अपराधिक परंपरा के अनुसार ढलता है तो अपराध करता है। मानवीय परंपरा में यदि जन्म लेता है तो अध्ययन और अभ्यास पूर्वक संस्कार को ग्रहण करता है। बच्चों में पायी जाने वाली कामना के अनुसार यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।
प्रश्न: "बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा के अनुसार रहता है।" क्या सभी बच्चों की क्षमता जन्म के समय एक जैसी होती है?
उत्तर: हाँ। सारी मानव जाति के साथ ऐसा "अधिकार" है।
प्रश्न: यदि जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो आपमें जो जिज्ञासा उदय हुई, दूसरों में क्यों नहीं होती दिखती?
उत्तर: उसका कारण है, मैं जहाँ जन्मा था - वहाँ की परम्परा में तीन बात लेकर चले थे - घोर परिश्रम, घोर सेवा और घोर विद्वता। उस विद्वता को लेकर मैं राजी नहीं हुआ, बाकी दो बातों में राजी हो गया।
मैं उस "विद्वता" से इसलिए राजी नहीं हो पाया क्योंकि मैंने देखा कि जैसा मेरे परिवार में "कहते" हैं, वैसा वे "जीते" नहीं हैं। यही मेरी जिज्ञासा का आधार हुआ। "कहने" और "करने" में साम्यता कैसे हो? - यह जिज्ञासा हुई। यही "पात्रता" है। पात्रता के आधार पर ही समझ हासिल होता है।
प्रश्न: जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो - आपके भाई-बंधु तो उस विद्वता से राजी हो गए, फिर आप क्यों राजी नहीं हो पाए?
उत्तर: "राजी हो पाने" या "राजी नहीं हो पाने" की बात जन्म के बाद, शरीर यात्रा के साथ शुरू होती है। यह हर शरीर यात्रा (हर व्यक्ति) के साथ भिन्न-भिन्न होता है - क्योंकि हर शरीर भिन्न है। जन्म के समय सबकी क्षमता समान होने का कारण है - (जन्म के समय) जीवन की समान क्षमता व्यक्त होती है। उसके अनुकूल वातावरण मिलता नहीं है, क्योंकि अभी तक मानव शरीर के आधार पर जिया है, जीवन के आधार पर जिया नहीं है। जीवन शरीर के साथ तदाकार होकर स्वयं को शरीर ही मान लेता है। इस कारण जन्म के समय क्षमता एक जैसी होते हुए भी अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग स्वीकृतियाँ हो जाती हैं। प्रधान रूप में जिस परिवार में जन्म लेते हैं, उसके अनुसार स्वीकृतियाँ होती हैं। बच्चा परिवार को मानने, परिवार के कार्यक्रम को मानने और परिवार के फल-परिणाम को मानने से शुरू करता है।
प्रश्न: क्या आप अपने बचपन में जैसा "कहते" थे, वैसा "जीते" थे?
उत्तर: नहीं। मैं भी जैसा कहता था, वैसा जीता नहीं था। "जीना" अभी आया - यह समझ हासिल होने के बाद। जैसा "कहते" हैं वैसा "जीते" नहीं हैं - यह गलत है, ऐसा मुझे स्वीकार हुआ। सही क्या है - यह तब पता नहीं था। साधना के बाद "सही" का पता चला। अब अध्ययन विधि से सबको "सही" का पता चलेगा, ऐसा स्वीकार के इस प्रस्ताव को मानव जाति के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।
- अनुभव शिविर, जनवरी २०१३, अमरकंटक (श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित)
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