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Wednesday, February 20, 2013

"कहने" और "जीने" में सामंजस्य बैठाना

प्रश्न:  अध्ययन के मार्ग पर चलते हुए, "न्याय" को जीने में भय लगता है।  इसका कारण क्या है?  इस भय का निवारण क्या है?

उत्तर: भय का कारण है, आपकी पूर्व स्मृतियाँ।  पूर्व स्मृतियाँ सभी भ्रम हैं, अपराधिक हैं।  यह प्रस्ताव भ्रम और अपराध के समर्थन में नहीं है।  पहले का स्मरण आपको आगे बढ़ने नहीं देगा।  अपराधिक कर्मों का स्मरण हमको पीड़ा देता है।  भ्रमवश हम ही अपराध किये रहते हैं, हम ही फंसे रहते हैं।  हमारा ही करतूत हमको फंसाता है।

इसका निवारण है - अपने "कहने" और "जीने" में सामंजस्य बैठाना। मैं तो इसी विधि से पार पाया हूँ।  "जैसा कहते हैं, वैसा जीना चाहिए" - ऐसा मैंने शुरू किया।

"कहने" और "जीने" में सामंजस्य के लिए प्रतिपादित किया है - "समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि"।  समझदारी के प्रस्ताव को विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत किया है।  श्रम से समृद्ध होने के ६ आयाम हैं - आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन।

प्रश्न: "श्रम से समृद्धि" को क्यों अपनाएं?

उत्तर:  सच्चाई की प्रेरणा देने के लिए, सच्चाई को प्रमाणित करने के लिये।  प्रेरणा पाना और प्रमाणित करना  हर मानव का अधिकार है।  कोई ऐसा मानव नहीं है, जो शरीर के साथ न हो।  शरीर के साथ ही मानव प्रेरणा पाता है, शरीर के साथ ही मानव जीता है।  शरीर पोषण, शरीर संरक्षण और समाज गति के लिए "श्रम से समृद्धि" को अपनाएँ।

- अनुभव शिविर, जनवरी २०१३, अमरकंटक (श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित)

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