मध्यस्थ-दर्शन से सर्व-मानव का लक्ष्य निकला – समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व। अभी का विज्ञान क्या करना चाहता है, उसको भी सोचा जाए?
अभी के विज्ञान से जो कल्याण हुआ है और जो नाश हुआ है, उसका मूल्यांकन किया जाए। विज्ञान से सकारात्मक भाग में दूर-संचार मिला है। नकारात्मक भाग में - विज्ञान से धरती बीमार हो गयी, प्रदूषण छा गया, और अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी। ये तीनो अनिष्ट का कारण हो गया। दूर-संचार इष्ट का कारण हुआ – जो विज्ञान-युग का देन है। दूर-संचार भी विज्ञान की चाहत से मानव जाति को हासिल नहीं हुआ। प्रौद्योगिकी विधि से हासिल हुआ। विज्ञान-युग आने के पहले से ही पहिये का आविष्कार हो ही चुका था। पहले मानव ने खुद उसको घुमाया, फिर जानवर से घुमाया। विज्ञान-युग में यंत्र को बनाया। यंत्र में ईंधन का संयोग किया। उससे धरती, पानी, हवा पर चलने वाले यान-वाहन बना लिए।
आदर्शवादी युग में भी अपने-पराये की दूरियां रहा – मैं इसका सत्यापन करने के पक्ष में हूँ। आदर्शवादी युग में भी अपने-पराये की दूरियां रही। दूरी पहले से रहा, जो विज्ञान-युग के आने से और बढ़ गया।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Thursday, November 24, 2011
सत्यापन
प्रश्न: यह जो आप-हमारे बीच में जो खाली स्थली है, यह “सत्ता” है – ऐसा मुझसे बोलना नहीं बन रहा है।
उत्तर: - पहले बोलना ही बनता है, फिर समझा हुआ को समझाना बनता है, फिर जिया हुआ को जीने के रूप में प्रमाणित करना बनता है। यही क्रम है। मैं भी इसी क्रम से गुजरा हूँ। इससे ज्यादा क्या सत्यापन होगा? इससे कम सत्यापन में काम चलेगा नहीं। ऐसी बात है यह!
प्रकृति जड़ ओर चैतन्य स्वरूप में है। जड़ है – भौतिक ओर रासायनिक क्रियाकलाप। चैतन्य है – जीवन। रासायनिक क्रियाकलाप हरियाली के रूप में तथा जीव-शरीरों ओर मानव-शरीरों के रूप में हमे प्राप्त है। इनको बनाने में मानव का कोई हाथ नहीं है। परमाणु में विकास हो कर गठन-पूर्णता के रूप में हर जीवन है। गठन-पूर्णता के फलन में हर जीवन “जीने की आशा” से संपन्न है। मानव-परंपरा में भी वैसा ही “जीने की आशा” से संपन्न जीवन है। उसके बाद है – विचार, इच्छा, संकल्प, और उसके बाद है – प्रमाण। अभी साढ़े-चार क्रिया में मानव आशा-विचार-इच्छा की सीमा में है। यह सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता (व्यापक-वस्तु) में ही संपृक्त है। व्यापक-वस्तु जड़-प्रकृति में ऊर्जा है, जिससे जड़-प्रकृति (भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में) में चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। व्यापक वस्तु ही चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान है. व्यापक वस्तु ही मानव-परंपरा में ज्ञान रूप में प्रकट है। ज्ञान ही मानव में ऊर्जा है. ज्ञान की ताकत पर ही मानव अपने वैभव को बनाए रख सकता है। इसको छोड़ कर मानव अपराध को विधि मान कर नाश के काम करेगा ही. संपृक्तता का मतलब यह है। यह बात समझ में आने से आगे की बात हो सकती है।
जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता वश क्रियाशीलता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) का मानव-परंपरा में आशा से विचार, विचार से इच्छा, इच्छा से संकल्प, और संकल्प से प्रमाण तक पहुँचने की बात है। इस तरह साढ़े चार क्रिया से दस क्रिया तक पहुंचना हर मानव की जिम्मेदारी है। जब इच्छा हो तब पहुँच सकते हैं। उसी के लिए हमने मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मैंने किसी चीज को निर्मित नहीं किया है। केवल “जो है” उसको स्पष्ट किया है। स्पष्ट होने पर हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। स्पष्ट होने की परिपूर्णता ही “अनुभव” है। अनुभव पूर्वक हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। अच्छी तरह जीने का स्वरूप है – समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व।
जिसको मैंने पता लगाया है, इसको समझने के लिए क्या हमको किसी आइंस्टीन को पढ़ना है? प्रचलित विज्ञान के साथ हम जिस जगह पहुँच गए हैं, कितनी विलक्षण बात है। ऊर्जा को हम समझे नहीं हैं, और “ऊर्जा” का नाम लेते हैं! ये विज्ञानी ऊर्जा को एक “प्रतिक्रिया” के रूप में ही पहचाने हैं। जैसे – एक लकड़ी का जलना। इसमें जलने को ऊर्जा माना। जबकि वास्तविकता है – एक जलाने वाली वस्तु थी, एक जलने वाली वस्तु थी, इसलिए जलने की घटना हुई। जलने को ऊर्जा माना। जलने से पहले जो लकड़ी और वायु थी – उसको ये जड़ (ऊर्जा-विहीन) मानते हैं। विज्ञानी वैभव को ऊर्जा-विहीन मानते हैं, नाश करने को ऊर्जा मानते हैं। इस तरह विज्ञान द्वारा ऊर्जा को प्रतिक्रिया मानना केवल ह्रास की ओर ले गया। आप इसको हर जगह में, जिसको applied science मानते हैं, जांच करके देखिये।
जिस स्वरूप में मैंने ऊर्जा को पहचाना, वह प्रभाव रूप में विकास-क्रम, विकास, जाग्रति-क्रम, जाग्रति को प्रगट कर चुका है। उस ऊर्जा को आइंस्टीन नहीं पहचाना। आप बताइये – क्या मैं ऐसा कहने योग्य हूँ या नहीं हूँ? ऊर्जा को इस तरह पहचाने बिना मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता। यदि मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता, तो जियेगा कैसे? ऐसे बिना पहचान के लकडबग्घा जैसे ही जियेगा, और उससे जो होना है वह हो जाएगा। मैंने अस्तित्व की स्थिरता और निश्चयता को जो स्पष्ट किया है, वह विज्ञानियों के सामने प्रकट नहीं है, ऐसी बात नहीं है। लेकिन जब उसी को वे देखे तो कैसे उसको अस्थिर-अनिश्चित मान लिए? उस सोच ने आदमी-जात को कहाँ पहुंचाया – सोच लो! यदि विज्ञान की सोच ही चाहिए, तो आप विज्ञान को ही अपनाओ। यदि नहीं तो विकल्प का अध्ययन करो।
प्रश्न: तो आप यथास्थिति को बताते हैं, आवश्यकता को बताते हैं, फिर हमारी इच्छा पर छोड़ देते हैं?
उत्तर: विकल्प को अपनाना स्वेच्छा से ही होगा। हम किसी को आग्रह करने वाले नहीं हैं। इच्छा हो तो अपनाओ, नहीं तो जो आप कर रहे हैं – वही ठीक है। उपदेश-विधि को मैंने अपनाया नहीं है। जबकि अनुसंधान से पहले मैं उपदेश-परंपरा से ही था।
संपृक्तता को समझना इस बात का आधार है। यदि संपृक्तता समझ आती है, तो आगे सभी कुछ समझ में आ जाता है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)
उत्तर: - पहले बोलना ही बनता है, फिर समझा हुआ को समझाना बनता है, फिर जिया हुआ को जीने के रूप में प्रमाणित करना बनता है। यही क्रम है। मैं भी इसी क्रम से गुजरा हूँ। इससे ज्यादा क्या सत्यापन होगा? इससे कम सत्यापन में काम चलेगा नहीं। ऐसी बात है यह!
प्रकृति जड़ ओर चैतन्य स्वरूप में है। जड़ है – भौतिक ओर रासायनिक क्रियाकलाप। चैतन्य है – जीवन। रासायनिक क्रियाकलाप हरियाली के रूप में तथा जीव-शरीरों ओर मानव-शरीरों के रूप में हमे प्राप्त है। इनको बनाने में मानव का कोई हाथ नहीं है। परमाणु में विकास हो कर गठन-पूर्णता के रूप में हर जीवन है। गठन-पूर्णता के फलन में हर जीवन “जीने की आशा” से संपन्न है। मानव-परंपरा में भी वैसा ही “जीने की आशा” से संपन्न जीवन है। उसके बाद है – विचार, इच्छा, संकल्प, और उसके बाद है – प्रमाण। अभी साढ़े-चार क्रिया में मानव आशा-विचार-इच्छा की सीमा में है। यह सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता (व्यापक-वस्तु) में ही संपृक्त है। व्यापक-वस्तु जड़-प्रकृति में ऊर्जा है, जिससे जड़-प्रकृति (भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में) में चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। व्यापक वस्तु ही चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान है. व्यापक वस्तु ही मानव-परंपरा में ज्ञान रूप में प्रकट है। ज्ञान ही मानव में ऊर्जा है. ज्ञान की ताकत पर ही मानव अपने वैभव को बनाए रख सकता है। इसको छोड़ कर मानव अपराध को विधि मान कर नाश के काम करेगा ही. संपृक्तता का मतलब यह है। यह बात समझ में आने से आगे की बात हो सकती है।
जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता वश क्रियाशीलता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) का मानव-परंपरा में आशा से विचार, विचार से इच्छा, इच्छा से संकल्प, और संकल्प से प्रमाण तक पहुँचने की बात है। इस तरह साढ़े चार क्रिया से दस क्रिया तक पहुंचना हर मानव की जिम्मेदारी है। जब इच्छा हो तब पहुँच सकते हैं। उसी के लिए हमने मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मैंने किसी चीज को निर्मित नहीं किया है। केवल “जो है” उसको स्पष्ट किया है। स्पष्ट होने पर हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। स्पष्ट होने की परिपूर्णता ही “अनुभव” है। अनुभव पूर्वक हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। अच्छी तरह जीने का स्वरूप है – समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व।
जिसको मैंने पता लगाया है, इसको समझने के लिए क्या हमको किसी आइंस्टीन को पढ़ना है? प्रचलित विज्ञान के साथ हम जिस जगह पहुँच गए हैं, कितनी विलक्षण बात है। ऊर्जा को हम समझे नहीं हैं, और “ऊर्जा” का नाम लेते हैं! ये विज्ञानी ऊर्जा को एक “प्रतिक्रिया” के रूप में ही पहचाने हैं। जैसे – एक लकड़ी का जलना। इसमें जलने को ऊर्जा माना। जबकि वास्तविकता है – एक जलाने वाली वस्तु थी, एक जलने वाली वस्तु थी, इसलिए जलने की घटना हुई। जलने को ऊर्जा माना। जलने से पहले जो लकड़ी और वायु थी – उसको ये जड़ (ऊर्जा-विहीन) मानते हैं। विज्ञानी वैभव को ऊर्जा-विहीन मानते हैं, नाश करने को ऊर्जा मानते हैं। इस तरह विज्ञान द्वारा ऊर्जा को प्रतिक्रिया मानना केवल ह्रास की ओर ले गया। आप इसको हर जगह में, जिसको applied science मानते हैं, जांच करके देखिये।
जिस स्वरूप में मैंने ऊर्जा को पहचाना, वह प्रभाव रूप में विकास-क्रम, विकास, जाग्रति-क्रम, जाग्रति को प्रगट कर चुका है। उस ऊर्जा को आइंस्टीन नहीं पहचाना। आप बताइये – क्या मैं ऐसा कहने योग्य हूँ या नहीं हूँ? ऊर्जा को इस तरह पहचाने बिना मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता। यदि मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता, तो जियेगा कैसे? ऐसे बिना पहचान के लकडबग्घा जैसे ही जियेगा, और उससे जो होना है वह हो जाएगा। मैंने अस्तित्व की स्थिरता और निश्चयता को जो स्पष्ट किया है, वह विज्ञानियों के सामने प्रकट नहीं है, ऐसी बात नहीं है। लेकिन जब उसी को वे देखे तो कैसे उसको अस्थिर-अनिश्चित मान लिए? उस सोच ने आदमी-जात को कहाँ पहुंचाया – सोच लो! यदि विज्ञान की सोच ही चाहिए, तो आप विज्ञान को ही अपनाओ। यदि नहीं तो विकल्प का अध्ययन करो।
प्रश्न: तो आप यथास्थिति को बताते हैं, आवश्यकता को बताते हैं, फिर हमारी इच्छा पर छोड़ देते हैं?
उत्तर: विकल्प को अपनाना स्वेच्छा से ही होगा। हम किसी को आग्रह करने वाले नहीं हैं। इच्छा हो तो अपनाओ, नहीं तो जो आप कर रहे हैं – वही ठीक है। उपदेश-विधि को मैंने अपनाया नहीं है। जबकि अनुसंधान से पहले मैं उपदेश-परंपरा से ही था।
संपृक्तता को समझना इस बात का आधार है। यदि संपृक्तता समझ आती है, तो आगे सभी कुछ समझ में आ जाता है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)
Saturday, November 5, 2011
अनुगमन और चिंतन
अनुगमन का मतलब है – अनुक्रम से गति होना। अनुक्रम है – समझ, योजना, कार्य-योजना, फल-परिणाम, जिसमे फल-परिणाम समझ के अनुरूप हो। दूसरे – जीव-चेतना से मानव-चेतना को पहचानना अनुक्रम है, मानव-चेतना से देव-चेतना को पहचानना अनुक्रम है, देव-चेतना से दिव्य-चेतना को पहचानना अनुक्रम है। तीसरे – अनुभव से विचार, विचार से व्यव्हार की ओर गति होना अनुगमन है। अनुभव मूलक विधि से इच्छा का नाम है – चिंतन।
अनुगमन और चिंतन के लिए बताया है – स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण, कारण से महाकारण।
धरती स्थूल है, परमाणु सूक्ष्म है, परमाणु-अंश अति-सूक्ष्म है। जीवन सूक्ष्म है, अनुभव “परम-सूक्ष्म” है। सत्ता में संपृक्त सम्पूर्ण प्रकृति के रूप में सृष्टि स्थूल है, सत्ता “परम-सूक्ष्म” है. मानव-शरीर स्थूल है। मानव-शरीर में जो क्रियाएँ हैं – वे सूक्ष्म हैं। मानव-शरीर का जो प्रयोजन है – वह “परम-सूक्ष्म” है। वह प्रयोजन है – शरीर के द्वारा जीवन सहज जागृति को प्रमाणित करना। इन तीन विधियों से “परम-सूक्ष्म” को पहचाना जाता है। प्रकृति की सभी इकाइयां स्थूल, सूक्ष्म, अति-सूक्ष्म रूप में हैं – लेकिन “परम-सूक्ष्म” वस्तु व्यापक-सत्ता ही है। इस “परमता” को समझने के बाद मानव कहाँ गलती या अपराध कर सकता है, आप सोच लो!
न्याय समझ में आने के बाद अपराध है ही नहीं। जो लोग अपराध करते हैं, वे भी न्याय ही चाहते हैं।
सही समझ में आने के बाद गलती है ही नहीं। जो लोग गलती करते हैं, वे भी सही ही करना चाहते हैं।
“कारण” है – सह-अस्तित्व। “ महाकारण” है – सत्ता। सारी क्रियाकलाप का, ज्ञान का, अज्ञान का, विज्ञान का एक मात्र कारण है – सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्व में ही सारा अज्ञान है और सारा ज्ञान है। जीव-चेतना में जीना अज्ञान है। मानव-चेतना में जीना ज्ञान है। सत्ता ही जड़-प्रकृति को ऊर्जा के रूप में और चैतन्य-प्रकृति (जीवन) को ज्ञान के रूप में प्राप्त है। सत्ता में ही सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति है – इसीलिये सत्ता को “महाकारण” नाम दिया।
अभी तक किसी भी परंपरा में “महाकारण” का उद्धाटन करना नहीं बना। “ कारण” को बताना भी नहीं बना। “ स्थूल” को बताने वाले बहुत हैं। जीवन को समझे बिना “सूक्ष्म” को समझाना बनेगा नहीं। सूक्ष्म को समझने पर ही दृष्टा-पद समझ में आता है। दृष्टा-पद समझ में आने पर ही दृश्य समझ में आता है। दृश्य समझ में आने पर प्रयोजन समझ में आता है। प्रयोजन समझ में आना ही “परम-सूक्ष्म” है। यह ज्ञान हो जाना ही परिपूर्णता है। इन्द्रिय-गोचर विधि से मानव परिपूर्ण नहीं होता है, ज्ञान-गोचर विधि से ही मानव परिपूर्ण होता है। इन्द्रियगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता ही नहीं है, तो उसके साथ जियेंगे कैसे? ज्ञानगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता है, तभी उसके साथ जीना बनता है।
- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २०१०, सरदारशहर)
अनुगमन और चिंतन के लिए बताया है – स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण, कारण से महाकारण।
धरती स्थूल है, परमाणु सूक्ष्म है, परमाणु-अंश अति-सूक्ष्म है। जीवन सूक्ष्म है, अनुभव “परम-सूक्ष्म” है। सत्ता में संपृक्त सम्पूर्ण प्रकृति के रूप में सृष्टि स्थूल है, सत्ता “परम-सूक्ष्म” है. मानव-शरीर स्थूल है। मानव-शरीर में जो क्रियाएँ हैं – वे सूक्ष्म हैं। मानव-शरीर का जो प्रयोजन है – वह “परम-सूक्ष्म” है। वह प्रयोजन है – शरीर के द्वारा जीवन सहज जागृति को प्रमाणित करना। इन तीन विधियों से “परम-सूक्ष्म” को पहचाना जाता है। प्रकृति की सभी इकाइयां स्थूल, सूक्ष्म, अति-सूक्ष्म रूप में हैं – लेकिन “परम-सूक्ष्म” वस्तु व्यापक-सत्ता ही है। इस “परमता” को समझने के बाद मानव कहाँ गलती या अपराध कर सकता है, आप सोच लो!
न्याय समझ में आने के बाद अपराध है ही नहीं। जो लोग अपराध करते हैं, वे भी न्याय ही चाहते हैं।
सही समझ में आने के बाद गलती है ही नहीं। जो लोग गलती करते हैं, वे भी सही ही करना चाहते हैं।
“कारण” है – सह-अस्तित्व। “ महाकारण” है – सत्ता। सारी क्रियाकलाप का, ज्ञान का, अज्ञान का, विज्ञान का एक मात्र कारण है – सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्व में ही सारा अज्ञान है और सारा ज्ञान है। जीव-चेतना में जीना अज्ञान है। मानव-चेतना में जीना ज्ञान है। सत्ता ही जड़-प्रकृति को ऊर्जा के रूप में और चैतन्य-प्रकृति (जीवन) को ज्ञान के रूप में प्राप्त है। सत्ता में ही सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति है – इसीलिये सत्ता को “महाकारण” नाम दिया।
अभी तक किसी भी परंपरा में “महाकारण” का उद्धाटन करना नहीं बना। “ कारण” को बताना भी नहीं बना। “ स्थूल” को बताने वाले बहुत हैं। जीवन को समझे बिना “सूक्ष्म” को समझाना बनेगा नहीं। सूक्ष्म को समझने पर ही दृष्टा-पद समझ में आता है। दृष्टा-पद समझ में आने पर ही दृश्य समझ में आता है। दृश्य समझ में आने पर प्रयोजन समझ में आता है। प्रयोजन समझ में आना ही “परम-सूक्ष्म” है। यह ज्ञान हो जाना ही परिपूर्णता है। इन्द्रिय-गोचर विधि से मानव परिपूर्ण नहीं होता है, ज्ञान-गोचर विधि से ही मानव परिपूर्ण होता है। इन्द्रियगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता ही नहीं है, तो उसके साथ जियेंगे कैसे? ज्ञानगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता है, तभी उसके साथ जीना बनता है।
- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २०१०, सरदारशहर)
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