(1) समझना वस्तु है, शब्द नहीं है। अंततोगत्वा शब्दों से इंगित वस्तु को पहचानना है, या शब्द को पहचानना है? यह तय करना होगा। शब्दों को शब्दों से जोड़ते हुए शब्दों में ही हम फैलते जाते हैं। वस्तु पर ध्यान देते हैं तो शब्द कम होते जाते हैं, और वस्तु को पा जाते हैं।
(२) समझाने वाले व्यक्ति की पूरी बात को पूरा सही से सुनने के लिए, सुनने/समझने वाले को अपने पूर्व-विचार को स्थगित करने की आवश्यकता है।
(३) "सबके साथ समझदारी एक ही होगा" - यह स्वीकारने से "विशेषता" का भ्रम समाप्त होता है। "हम समझदार होंगे, बाकी सब मूर्ख रहेंगे" - इससे परेशानी बढ़ेगी। "सब समान रूप से समझदार होंगे" - इस बात पर हमको विश्वास रखना है।
(४) पवित्रता पूर्वक, संयमता पूर्वक रहने से जल्दी समझ में आता है। समझने के बाद पवित्रता में ही रहना होता है।
(५) अध्ययन विधि से क्रमिक रूप से साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होना = वस्तु के होने-रहने की स्वीकृति होना = वस्तु का दृष्टा बनना। वस्तु अपने रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म के साथ है। साक्षात्कार में ये चारों समाहित हैं। साक्षात्कार होने के फल-स्वरूप कल्पनाशीलता तदाकार होती है। कल्पनाशीलता तदाकार होना = प्रतीति होना। चित्त तदाकार होता है, जिसको बुद्धि स्वीकारता है। बुद्धि में स्वभाव और धर्म स्वीकृत होता है, जिसको अनुभव-गामी बोध कहा। बोध होने के फलस्वरूप अनुभव होता है। अनुभव होना = तद्रूप होना। अनुभव का प्रमाण फिर कार्य-व्यवहार में होता है। इस प्रकार जीने की विधि अनुभव-मूलक, जीवन-मूलक, और प्रमाण-मूलक हो जाती है।
(६) शरीर के साथ जब तक जीवन तदाकार रहता है, या जब तक जीवन स्वयं को शरीर माना रहता है, तब तक चार विषयों और पांच संवेदनाओं की सीमा में ही जीना बनता है। विषयों में और संवेदनाओं में सुख जैसा लगता है, पर सुख होता नहीं है। विषयों और संवेदनाओं में सुख यदि होता तो उनमें सुख की निरंतरता भी होती!
(७) तत-सान्निध्य = वास्तविकता के साथ हम प्रमाणित हों। तत-सान्निध्य तद्रूपता (अनुभव सम्पन्नता) के साथ है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सदा सान्निध्य रूप में रहे, हमारे अधिकार में रहे - उसी को तत-सान्निध्य कहा है। अध्ययन-क्रम में तत-सान्निध्य की अपेक्षा बना रहता है।
(८) तदाकार होने के लिए समझने की इच्छा, और प्रमाणित होने की इच्छा को बलवती बनाने की आवश्यकता है। प्रमाणित होने के लिए अर्थ के पास जाना ही पड़ता है। प्रमाणित नहीं होना है तो शब्द की सीमा में ही रहना बनता है। परिभाषा को याद करने से अर्थ तक नहीं पहुंचे। परिभाषा के अनुरूप जब जीना शुरू होता है, तब शब्द से इंगित अर्थ को समझे।
(९) अध्ययन-क्रम में जीने के उद्देश्य में गुणात्मक-परिवर्तन होता है। स्वयं में गुणात्मक-परिवर्तन अनुभव के बाद ही होता है।
(१०) अध्ययन-काल में मुख्य बात है, सामने वाला व्यक्ति जो अध्ययन कराता है, उसको प्रमाण मानना पड़ता है। प्रमाण मानने के बाद प्रमाण के स्वरूप - न्याय, धर्म, और सत्य - में क्या अड़चन हो सकता है, उसको शोध करना होता है। शोध करने का मूल मुद्दा है - न्याय, धर्म, सत्य को हम समझ रहे हैं, या नहीं समझ रहे हैं? प्रमाणित करने की विधि क्या होगी उसको यथावत सुनते हैं, समझते हैं, तो प्रमाणित करने की जगह तक पहुँचते हैं। यदि अपने मन मर्जी का तर्जुमा करके सुनते हैं, तो जहां पहले थे वहीं रह जाते हैं। सुनना समझना नहीं है। सुनने पर बोलना बनता है। समझने पर प्रमाणित करना बनता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)
(२) समझाने वाले व्यक्ति की पूरी बात को पूरा सही से सुनने के लिए, सुनने/समझने वाले को अपने पूर्व-विचार को स्थगित करने की आवश्यकता है।
(३) "सबके साथ समझदारी एक ही होगा" - यह स्वीकारने से "विशेषता" का भ्रम समाप्त होता है। "हम समझदार होंगे, बाकी सब मूर्ख रहेंगे" - इससे परेशानी बढ़ेगी। "सब समान रूप से समझदार होंगे" - इस बात पर हमको विश्वास रखना है।
(४) पवित्रता पूर्वक, संयमता पूर्वक रहने से जल्दी समझ में आता है। समझने के बाद पवित्रता में ही रहना होता है।
(५) अध्ययन विधि से क्रमिक रूप से साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होना = वस्तु के होने-रहने की स्वीकृति होना = वस्तु का दृष्टा बनना। वस्तु अपने रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म के साथ है। साक्षात्कार में ये चारों समाहित हैं। साक्षात्कार होने के फल-स्वरूप कल्पनाशीलता तदाकार होती है। कल्पनाशीलता तदाकार होना = प्रतीति होना। चित्त तदाकार होता है, जिसको बुद्धि स्वीकारता है। बुद्धि में स्वभाव और धर्म स्वीकृत होता है, जिसको अनुभव-गामी बोध कहा। बोध होने के फलस्वरूप अनुभव होता है। अनुभव होना = तद्रूप होना। अनुभव का प्रमाण फिर कार्य-व्यवहार में होता है। इस प्रकार जीने की विधि अनुभव-मूलक, जीवन-मूलक, और प्रमाण-मूलक हो जाती है।
(६) शरीर के साथ जब तक जीवन तदाकार रहता है, या जब तक जीवन स्वयं को शरीर माना रहता है, तब तक चार विषयों और पांच संवेदनाओं की सीमा में ही जीना बनता है। विषयों में और संवेदनाओं में सुख जैसा लगता है, पर सुख होता नहीं है। विषयों और संवेदनाओं में सुख यदि होता तो उनमें सुख की निरंतरता भी होती!
(७) तत-सान्निध्य = वास्तविकता के साथ हम प्रमाणित हों। तत-सान्निध्य तद्रूपता (अनुभव सम्पन्नता) के साथ है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सदा सान्निध्य रूप में रहे, हमारे अधिकार में रहे - उसी को तत-सान्निध्य कहा है। अध्ययन-क्रम में तत-सान्निध्य की अपेक्षा बना रहता है।
(८) तदाकार होने के लिए समझने की इच्छा, और प्रमाणित होने की इच्छा को बलवती बनाने की आवश्यकता है। प्रमाणित होने के लिए अर्थ के पास जाना ही पड़ता है। प्रमाणित नहीं होना है तो शब्द की सीमा में ही रहना बनता है। परिभाषा को याद करने से अर्थ तक नहीं पहुंचे। परिभाषा के अनुरूप जब जीना शुरू होता है, तब शब्द से इंगित अर्थ को समझे।
(९) अध्ययन-क्रम में जीने के उद्देश्य में गुणात्मक-परिवर्तन होता है। स्वयं में गुणात्मक-परिवर्तन अनुभव के बाद ही होता है।
(१०) अध्ययन-काल में मुख्य बात है, सामने वाला व्यक्ति जो अध्ययन कराता है, उसको प्रमाण मानना पड़ता है। प्रमाण मानने के बाद प्रमाण के स्वरूप - न्याय, धर्म, और सत्य - में क्या अड़चन हो सकता है, उसको शोध करना होता है। शोध करने का मूल मुद्दा है - न्याय, धर्म, सत्य को हम समझ रहे हैं, या नहीं समझ रहे हैं? प्रमाणित करने की विधि क्या होगी उसको यथावत सुनते हैं, समझते हैं, तो प्रमाणित करने की जगह तक पहुँचते हैं। यदि अपने मन मर्जी का तर्जुमा करके सुनते हैं, तो जहां पहले थे वहीं रह जाते हैं। सुनना समझना नहीं है। सुनने पर बोलना बनता है। समझने पर प्रमाणित करना बनता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)
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