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Sunday, November 21, 2010

जीवन की पहचान

हर व्यक्ति अपने जीवन को पहचान सकता है। हर व्यक्ति के साथ जीवन शरीर को जीवंत बनाने के रूप में है। शरीर की जीवन्तता जीवन का गुण है। जीवंत रहते हुए मनुष्य चार विषयों, पांच संवेदनाओं, तीन ईश्नाओं, और उपकार को पहचानता है, समझता है। पहचानने के ये चार स्तर हैं। फिर जो पहचाने हैं, समझे हैं, उसको प्रमाणित करने की बारी आती है। पांच संवेदनाओं को प्रमाणित करने में चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य समाहित रहता है। उसी तरह तीन ईश्नाओं को प्रमाणित करने में पांच संवेदनाओं और चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। उपकार को प्रमाणित करने में तीन ईश्नाओं, पांच संवेदनाओं, और चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। अभी तक मानव-जाति चार विषयों और पांच संवेदनाओं को प्रमाणित कर पाया। तीन ईश्नाओं और उपकार को प्रमाणित करना शेष रहा। समझदारी पूर्वक ही इनको प्रमाणित करना हो पाता है। समझदारी का स्वरूप है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। यह समझदारी अध्ययन गम्य है। अध्ययन पूर्वक समझ आने पर यह पूरा होता है।

जीव जानवरों में चार विषयों में वंश के अनुसार जीने की बात रहती है। जीव-जानवरों में पांच संवेदनाओं का ज्ञान नहीं रहता। जीवों में चार विषयों के अर्थ में पांच संवेदनाओं का व्यक्त होना देखा जाता है। मनुष्य पांच इन्द्रियों से सुखी होने के लिए प्रयत्न करता है। आदिकाल से अभी तक यही हाल है।

जीवन का स्वरूप-ज्ञान न होने के कारण जीवन शरीर के साथ तद्रूपता विधि से घनीभूत रहता है। जीवन के स्वरूप को अध्ययन-विधि से हम समझते हैं। मनुष्य सुख चाहता है। सुखी होने की अपेक्षा शरीर में कहीं नहीं है। जीवन में सुखी होने की प्यास है।

सच्चाई की प्यास आत्मा में सर्वोपरि है। उसके बाद बुद्धि में, उसके बाद चित्त में, वृत्ति में, फिर मन में। मनुष्य चाहत के रूप में शुभ ही चाहता है। यह जीवन की महिमा है। जीवन में शुभ की चाहत है। मनुष्य में संतुलन की चाहत बनी हुई है, पर करते समय असंतुलन का काम करता है। यही आत्म-वंचना है। अभी तक मनुष्य ने ऐसा ही किया, या और कुछ किया? - उसको सोच लीजिये!

मनुष्य में ज्ञानगोचर पक्ष अभी तक सुप्त रहा। ज्ञानगोचर पक्ष को अध्ययन द्वारा समझा जा सकता है, प्रमाणित किया जा सकता है - जीवन-तृप्ति के लिए। समझदारी के बिना समाधान हो नहीं सकता।

सच्चाई को मनुष्य चाहता है, इसलिए हर मनुष्य में न्याय-धर्म-सत्य के भास्-आभास होने की बात बनी हुई है। इसी आधार पर मनुष्य न्याय-धर्म-सत्य की प्रतीति, बोध, और अनुभूति के लिए प्रयास करता है। जीवन शरीर को जीवंत बनाने के फल-स्वरूप में सच्चाई को हम चाहते हैं, समाधान चाहते हैं, न्याय चाहते हैं - यह मनुष्य में बना है। हम जितना जीते हैं, उससे अधिक चाहते हैं। यह इच्छा में चित्रण स्वरूप में बना रहता है।

"समझे बिना मैं सुखी नहीं हो सकता" - यह स्वीकार होने पर अध्ययन में मन लगता है। सुखी होने के अर्थ में ही मन लगता है। कुछ छोड़ने के अर्थ में मन लगता नहीं है। सुखी होने की इच्छा "कमजोर" है, जब तक मनुष्य शरीर को केंद्र में रख कर सुखी होने की सोचता है। शरीर के आधार पर मनुष्य का सुखी होना नहीं बना। "समझदारी के आधार पर ही मैं सुखी हो सकता हूँ" - इस जगह पर आने के बाद ही मनुष्य अध्ययन करता है।

सुखी होने की चाहत मनुष्य में पहले से ही रहा। सुखी होने का रास्ता (अध्ययन) सुनने में आया। उस पर तुल कर चलना शुरू करता है। भास्-आभास पूर्वक हम सुनते हैं, प्रतीति को स्वीकारते हैं। स्वीकारने की विधि है - तदाकार विधि। शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है, वस्तु के साथ तदाकार होने से हमको प्रतीति होता है।

अध्ययन अनुभव के घाट तक पहुँचने के लिए है। अनुभव के बाद प्रमाण है। अनुभव हुआ, उसका प्रमाण। वह दूसरे व्यक्ति के लिए अध्ययन की वस्तु है। अभी मैं जो करा रहा हूँ, वही है। अध्ययन से तदाकार हो जाता है। तदाकार होना ही अध्ययन का लक्ष्य है। तदाकार होने के बाद तद्रूप होना शेष रहता है। तद्रूप होना = आत्मा में अनुभव। अनुभव का ही फिर व्यवहार में प्रमाण होता है। यह हर नर-नारी का अधिकार है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)

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