जितना हमें ज्ञान होता है वह पूरा प्रमाणित होता ही नहीं. जैसे - समुद्र की एक बूँद का परीक्षण करके हम प्रमाणित करते हैं. समुद्र का सारा पानी वैसा ही है, यह हमें ज्ञान रहता है. समुद्र के सारे एक एक बूँद को निकाल करके परीक्षण करना/प्रमाणित करना नहीं बन पाता. इसको "सिन्धु बिंदु न्याय" कहा.
अनंत के प्रति ज्ञान होता है, आंशिक रूप में प्रमाण होता है.
सिन्धु रूप में ज्ञान, बिंदु रूप में प्रमाण
अनंत ज्ञान को थोडा सा ही प्रमाणित करते हैं तो सामने व्यक्ति में भी जीवन है, वो अनंत के अर्थ को पकड़ लेता है. उसके वह अनुभव में आता ही है, ज्ञान होता ही है. ज्ञान होने पर वह दूसरा व्यक्ति भी इस सिन्धु-बिंदु न्याय के साथ जीने लगता है. इसको बताने के लिए सूत्र दिया:
"जो जितना जानता है, उतना चाह नहीं पाता
जितना चाह पाता है, उतना कर नहीं पाता
जितना कर पाता है, उतना भोग नहीं पाता"
इसलिए मानव द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु पैदा करना अस्तित्व सहज है.
जानना ही ज्ञान है, प्रमाणित करना जागृति है.
प्रमाणित करने की जगह छोटा है, ज्ञान की जगह बड़ा है.
ज्ञान से पहले प्रमाणित करना दुरूह लगता है. ज्ञान के बाद प्रमाणित करना बायें हाथ का खेल लगता है.
अभी जहाँ आदमी फंसा है उससे छूटने का यह बहुत बढ़िया जुगाड़ है. इसको हम बहुत अच्छे से निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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